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ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक)

1212, 1122, 1212, 22

अजीब बात है, दुश्मन से यार होने तक,

वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक।

उबलते खौलते सागर से पार होने तक,

ख़ुदा को भूल न पाए ख़ुमार होने तक।

हमें भी कम न थीं ख़ुशफ़हमियां मुहब्बत में,

हमारा दर्द से अव्वल क़रार होने तक।

तुम्हारा ज़ुल्म बढ़ेगा, हमें ख़बर है ये,

तुम्हारे हुस्न का अगला शिकार…

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Added by Balram Dhakar on October 29, 2018 at 1:40pm — 20 Comments

निर्जला व्रत -लघुकथा -

निर्जला व्रत -लघुकथा -

सूरज तीन महीने बाद अमेरिका से लौटा तो सामान पटक कर सीधा अपने बचपन के मित्र रघु को सरप्राइज़ देने उसके घर जा धमका। रघु की शादी में वह विदेश दौरे के कारण शामिल नहीं हो सका था। इसलिये माफ़ी भी माँगनी थी।बदले में दोनों को ढेर सारे उपहार भी देने थे।

लेकिन यह क्या सूरज तो खुद चकित हो गया जब रघु का लटका हुआ उदास चेहरा देखा।"क्या हुआ दोस्त, क्या शादी रास नहीं आई।"

"छोड़ यार तू सुना, कब आया, कैसा रहा टूर?"

"यार बात को घुमा मत। भाभी कहाँ है?"

"छोड़…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 29, 2018 at 11:08am — 14 Comments

गजल(उठे हैं.....)

122 122  122 12

उठे हैं किसी को गिरा के मियाँ

चले पाग सर पे सजा के मियाँ।1

कहा था, डरेगा न कोई यहाँ

रहे खुद को हाफ़िज बना के मियाँ।2

रहेगा न सूखा शज़र एक भी--

कहें नीर सारा सुखा के मियाँ।3

मिटी भूख उनकी हुए सब सुखी

चहकते चले माल खा के मियाँ।4

किये लाख सज़दे, मिले कब सनम?

गये थे कभी सर नवा के…

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Added by Manan Kumar singh on October 29, 2018 at 7:15am — 10 Comments

'मच्छर' (लघुकथा)

"जब ओज़ोन परत में छेद हो सकता है; ब्रह्मांड में ब्लैक होल हो सकते हैं! तो जबरन बनायी और थोपी गई मच्छरदानी में हम छेद कर, सेंध लगाकर फिर से इन सब का ख़ून क्यों नहीं चूस सकते, मित्रों!"



"बिल्कुल साहिब! नींद के शौक़ीन इन आरामपसंद नागरिकों ने हर तरह से तुष्टिकरण करवा के देख लिया! अब तो इनकी खटमलविहीन हाइटेक आरामगाह में हमें भी खटमल-नीतियों से सेंधमारी करनी चाहिए या बिच्छू-डंक-प्रहार-शैली से!"



"नहीं मित्रो, न तो हमें खटमल माफ़िक बनना है और न ही बिच्छू जैसा! इनके पास और भी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 29, 2018 at 1:07am — 5 Comments

ग़ज़ल नूर की- सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

मुहब्बत से अपनी बिछड़ते हुए.

.

समुन्दर नमाज़ी लगे है कोई

जबीं साहिलों पे रगड़ते हुए.

.

हिमालय सा मानों कोई बोझ है

लगा शर्म से मुझ को गड़ते हुए.

.

“हर इक साँस ने”; उन से कहना ज़रूर  

उन्हें ही पुकारा उखड़ते हुए.  

.

हराना ज़माने को मुश्किल न था  

मगर ख़ुद से हारा मैं लड़ते  हुए.

.

ज़रा देर को शम्स डूबा जो “नूर”

मिले मुझ को जुगनू अकड़ते हुए.

.

निलेश "नूर"

मौलिक/…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 10:30am — 22 Comments

दर्द के दायरे

“दर्द के दायरे”  यह ख़याल मुझको  एक  दिन नदी के किनारे पर बैठे “ जाती लहरों ” को देखते आया । कितनी मासूम होती हैं वह जाती लहरें, नहीं जानती कि अभी कुछ पल में उनका अंत होने को है । जिस पल कोई एक लहर नदी में विलीन होने को होती है, ठीक उसी पल एक नई लहर जन्म ले लेती है .... दर्द की तरह । दर्द कभी समाप्त नहीं होता, आते-जाते उभर आती है दर्द की एक और लहर, और अंतर की रेत पर मानो कुछ लिख जाती है । मेरी एक कविता से कुछ शब्द ...

 

उफ़्फ़ ! कल तो किसी की चित्ता पर…

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Added by vijay nikore on October 28, 2018 at 7:00am — 13 Comments

दोनों तरफ है कत्ल का सामान बा-अदब -- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" ( गजल )

२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२

वाजिब हुआ करे था जो तकरार मर गया

आजाद जिन्दगी  में  भी  इन्कार मर गया।१।



दोनों तरफ है  कत्ल  का  सामान बा-अदब  

इस पार बच गया था जो उस पार मर गया।२।



जीने लगे  हैं  लोग  यहाँ  खुल  के नफरतें

साँसों की जो महक था वही प्यार मर गया।३।



सौदा वतन का रोज ही शासक यहाँ करें

सैनिक ही नाम  देश  के बेकार मर गया।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 27, 2018 at 9:00pm — 21 Comments

ग़ज़ल~ बलराम धाकड़ (इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे)

1212 1122 1212 112/22

इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे।

तरीक़ा उनका था जैसे शहीद कर देंगे।

वो एक बार सही महफ़िलों में आएं तो,

उन्हें हम अपनी ग़ज़ल का मुरीद कर देंगे।

उम्मीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,

तो कैसे तुमको भला नाउम्मीद कर देंगे।

जो तुमने ख़्वाब भी देखे बराबरी के तो,

वो ऐसे ख़्वाब की मिट्टी…

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Added by Balram Dhakar on October 27, 2018 at 8:18pm — 20 Comments

हम देखते ही रह गए दिल का मकाँ जलता हुआ

2212 2212 2212 2212

आसां कहाँ यह इश्क था मत पूछिए क्या क्या हुआ ।

हम देखते ही रह गए दिल का मकाँ  जलता हुआ ।।

हैरान है पूरा नगर कुछ तो है तेरी भी ख़ता ।

आखिर मुहब्बत पर तेरी क्यों आजकल पहरा हुआ ।।

पूरी कसक तो रह गयी इस तिश्नगी के दौर में ।

लौटा तेरी महफ़िल से वो फिर हाथ को मलता हुआ ।।

दरिया से…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 27, 2018 at 6:00pm — 18 Comments

ज़िंदगी..............

ज़िंदगी   .... 

तुम आईं
तो संवरने लगी
ज़िंदगी


साथ जीने
और मरने के
अर्थ
बदलने लगी
ज़िंदगी


मौसम बदला
श्वासें बदलीं
अभिव्यक्ति की साँझ में
बिखरने लगी
ज़िंदगी


प्रतीक्षा
मौन हुई
शब्द शून्य हुए
चुपके-चुपके
स्मृति के परिधान में
सिमटने लगी
ज़िंदगी


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 27, 2018 at 4:00pm — 8 Comments

"हुक्मनामा"

 

हिम्मत है तो मुझसे आकर द्वंद करो।

वरना यूँ अनर्गल प्रलाप को बंद करो॥

 

छोरे छोरी में जो भेद करे ऐसे।  

गाँव की सगरी ऐसी खाप को बंद करो॥…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 27, 2018 at 2:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल - दुनिया का सबसे बड़ा झूठा, खुद को सच्चा कहता है

नादान से बच्चे भी हँसते हैं, जब वो ऐसा कहता है

दुनिया का सबसे बड़ा झूठा, खुद को सच्चा कहता है

 

मुँह उसका है अपने मुंह से, जो कहता है कहने दो

कहने को तो अब वो खुद को, सबसे अच्छा कहता है

 

चिकने पत्थर, फैली वादी, उजला झरना, सहमे पेड़

लहू से भीगा हर इक पत्ता, अपना किस्सा कहता है

 

सूखे आंसू, पत्थर आँखें, लब हिलते हैं बेआवाज

लेकिन उन पे जो गुजरी है, हर इक चेहरा कहता…

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Added by Ajay Tiwari on October 27, 2018 at 7:00am — 30 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६३

1222 1222 1222 1222



(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)



जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले

चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1



उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से

कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2



हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को

तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3…

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Added by राज़ नवादवी on October 26, 2018 at 4:30pm — 15 Comments

दम रखेगा जो परों में- एक गजल

मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ 

आदमी गुम हो गया है आज ईंटों पत्थरों में

है कहाँ परिवार वो जो पल्लवित था छप्परों में

 

हँसते-हँसते जान दे दी दौर वो कुछ और ही था  

ढूँढना इंसानियत भी अब कठिन है खद्दरों में

 

आपने हमको सुनाया गीत के मुखड़े में’ दम है…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on October 26, 2018 at 1:00pm — 15 Comments

फिर भी - लघुकथा

"आज फिर नींद नहीं आ रही है आपको, भूलने की कोशिश कीजिये उसे", रश्मि ने बेचैनी से करवट बदलते हुए राजन से कहा और उठकर बैठ गयी. कुछ देर तक तो वह अँधेरे में ही राजन का सर सहलाते रही, फिर उसने कमरे की बत्ती जला दी.

"लाइट बंद कर दो रश्मि, अँधेरे में फिर भी थोड़ा ठीक लगता है. उजाला तो अब बर्दास्त नहीं होता, काश उस दिन मैं नहीं रहा होता", राजन ने रश्मि की गोद में सर छुपा लिया.

धीरे धीरे रश्मि ने अब अपने आप को संभाल लिया था लेकिन अभी भी जब वह बाहर निकलती, उसे लगता जैसे लोगों की निगाहें उससे…

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Added by विनय कुमार on October 26, 2018 at 12:24pm — 14 Comments

ग़ज़ल : बात करते हैं मगर मर के दिखाते भी नहीं

बह्र : 2122 1122 1122 112/22

अश्क़ आँखों में कभी भूल के लाते भी नहीं

और बर्बादियों का शोक मनाते भी नहीं

पूछ कर ज़िन्दगी में लोग जो आते भी नहीं

इतने बेदर्द हैं जाएँ तो बताते भी नहीं

वो ख़ुशी थी कि जिसे रास नहीं आए हम

और वो ग़म हैं जो हमें छोड़ के जाते भी नहीं

लोग चाहत का गला घोंट तो देते हैं मगर

दफ़्न करते भी नहीं और जलाते भी नहीं

जाइए आपका मैख़ाने में क्या काम है जब

ख़ुद भी पीते नहीं औरों को पिलाते भी…

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Added by Mahendra Kumar on October 26, 2018 at 11:52am — 21 Comments

क़ैद मैं कैसे दायरे में हूँ....संतोष

अरकान:

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फेलुन

क़ैद मैं, कैसे दायरे में हूँ

कौन है जिसके सिलसिले में हूँ

आप तो मीठी नींद सोते हैं

और…

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Added by santosh khirwadkar on October 26, 2018 at 9:11am — 15 Comments

'ताड़ना के कारी-अधिकारी' (लघुकथा)

'परखना, पहचानना, ताड़ना या प्रतारणा या उद्धार करना' ... इन विभिन्न अर्थों में संत तुलसीदास जी की चौपाई ”ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।“ में आये 'ताड़न' शब्द पर इंटरनेट-ज्ञान बघारते हुए कुछ पुरुषों में चर्चा क्या हुई, कि उनके बीच नई सदी के रंग-ढंग पर उस पंक्ति पर तुकबंदी और पैरोडी सी शुरू हो गई! .. फिर मज़ाक ने बहस का रूप ले लिया।



"भई अब तो महिला-पुरुष समानता और महिला सशक्तिकरण की बातें हो रही हैं अपने वतन में भी! योजनाएं और क़ानून बन रहे हैं लड़कियों और…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2018 at 2:59am — 4 Comments

लहरें ( कविता)

आज लहरों ने की बातें मुझसे 

बोलीं 

तुम सोचती हो तुम हो बहादुर 

समय से तुम लडती हो 

मूर्ख हो तुम 

जो यह सोचकर दम भरती हो| 

और वह इठला कर चली गयी 

दूर 

वहीं जहाँ से वह आयीं थी 

किनारे तक 

और वहाँ पड़े चट्टानों से 

टकरा-टकरा कर रही थी 

बातें उनसे, 

कह रहे थे चट्टान उनसे 

रुक जाओ 

करीब आप मेरे ऊपर से 

न यूँ बह जाओ 

रुको कुछ घड़ी 

की हम तपते हैं 

और…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 26, 2018 at 12:00am — 9 Comments

ग़ज़ल



1222 1222 1222 1222



महल टूटा जो ख्वाबों का तो फिर बिखरा नज़र आया ।

गुलिस्ताँ जिसको समझा था वही सहरा नजर आया ।।1

बहुत सहमा है तब से मुल्क फिर खामोश है मंजर।

उतरते ही मुखौटा जब तेरा चेहरा नजर आया ।।2

अजब क़ानून है इनका मिली है छूट रहजन को ।

मगर ईमानदारों पर बड़ा पहरा नज़र आया ।।3

सियासत छीन लेती होनहारों के निवालों को ।

हमारा दर्द कब उनको यहाँ गहरा नजर आया ।।4

वो भूँखा चीखता हक माँगता मरता रहा लेकिन…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 25, 2018 at 10:01pm — 13 Comments

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