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August 2014 Blog Posts (156)

कोई तो मकसद होगा दुनियाँ में हमारा -डा० विजय शंकर

कोई तो मकसद होगा दुनियाँ में हमारा -डा० विजय शंकर



लोगों ने तेरी दुनियाँ को

क्या से क्या बना दिया

हम तुझे ही बनाते

और तराशते रह गए ॥



लोगों ने तेरी दुनियाँ को

गुल-गुलिस्तां बना दिया

हम जो फूल मिले वो भी

तुझे ही चढ़ाते रह गए ॥



तुमने हमें क्यों भेजा था

इस दुनियाँ जहाँन में

वो सब छोड़ हम तुझे

ही तलाशते रह गए ॥



कोई तो मकसद होगा

दुनियाँ में हमारा भी

हम उसको छोड़ तुझको ही

मकसद समझते रह गए… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 10, 2014 at 10:55am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
प्रिये , सुनती हो ! ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

प्रिये , सुनती हो !

मैने सुना है आक्सीजन और हाईड्रोजन तैयार हो गये हैं

अपने ख़ुद के अस्तित्व खो देने के लिये

और एक रासायनिक प्रक्रिया से गुजरने के लिये

ताकि मिल पायें एक दूसरे से ऐसे, कि फिर कोई यूँ ही जुदा न कर सके

और बन सके पानी , एक तीसरी चीज़

दोनो से अलग

 

प्रिये,सुनती हो !

अब वो पानी बन भी चुके हैं

कोई सामान्यतया अब उन्हे अलग नही कर पायेंगे

अच्छा हुआ न ?

 

प्रिये , सुनती हो !

क्यों न हम भी…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on August 10, 2014 at 8:55am — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
राखी (लघु कथा )

“भाभी, अगर कल तक मेरी राखी की पोस्ट आप तक नहीं पँहुची तो परसों मैं आपके यहाँ आ रही हूँ  भैया से कह देना ” कह कर रीना ने फोन रख दिया|

अगले दिन भाभी ने सुबह ११ बजे ही फोन करके कहा, "रीना राखी पहुँच गई है ”

"पर भाभी मैंने तो इस बार राखी पोस्ट ही नहीं की थी !!! "


(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by rajesh kumari on August 9, 2014 at 8:30pm — 58 Comments

ग़ज़ल ..आँख मूँदते ही ....सारे ख़ुदा गए.

ग़ज़ल ..

गाल गाल गा गा ///// गा गा लगा लगा  

मक्ते से पहले वाले शेर में तकाबुले रदीफ़ है लेकिन solution के आभाव में उसे ऐसे ही स्वीकार किया है. 

.

रंग हम जहाँ में क्या क्या मिला गए

हार कर लो खुद को सब को जिता गए.

.

सब कहें पुराना किस्सा सुना गए,

गो बता के सबकुछ सबकुछ छुपा गए.

.

कुछ कहार मिलकर कमरा सजा गए,

और फिर उसी में तन्हा सुला गए.

.

ख़ाक सबने डाली इसका गिला करें क्या,

हाड माँस मिट्टी, मिट्टी बिछा गए.…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on August 9, 2014 at 12:30pm — 11 Comments

शेरनी..........??

बहुत सह लिये तानें

बेबुनयादी ....नारी का धूमिल अस्तित्व

कांति विहीन सा लागने लगा

पुरुष के झूठे प्रलोभन में-

उलझती सी गई स्त्री

पुरुषों की पेचीदे फरमाइशों में

ऊपरी बनावट में बेचारी इतनी 

उलझी कि अपने भीतर की -

सुंदरता को खो बैठी । 

एक विचार विमर्श ने उसको झकझोरा

जब उसे अपने, होने का भान हुआ

तो  स्त्री बागी हो गई 

घायल शेरनी की तरह 

उसने अब ये कह डाला --

की नारी जापानी गुड़िया…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on August 8, 2014 at 11:30pm — 9 Comments

मज़हब (लघुकथा)

चारो तरफ चीख़ पुकार मची हुई थी, सभी बदहवास भाग रहे थे । जिधर देखो आग ही आग । ख़ून और मांस जगह जगह बिखरा पड़ा था |  

थोड़ी ही देर में इलाक़ा पुलिस और मीडिया के लोगों से भर गया । बम डिस्पोजल स्कवॉड भी आ गया । पूरे शहर में तनाव फ़ैल गया क्योंकि विस्फ़ोट की जगह एक धर्मस्थल के पास थी और अफ़वाहें पूरे जोरों पर थीं ।

पर इन सबसे बेख़बर, एक बूढ़ा भिखारी अपनी जगह पर शांत बैठा हुआ था । किसी को नहीं पता था कि वो किस मज़हब का है , सबके आगे हाँथ फैलाना और कुछ मिल जाने पर दुआ देना, बस इतना ही जानता था…

Continue

Added by विनय कुमार on August 8, 2014 at 4:00pm — 14 Comments

क्षणिकाएँ

१-ये कैसा दर्पण

जिसमे सबकुछ

मुझसा ही दिखता है



२-मेरी मर्ज़ी

उनके लम्हे भर का क़र्ज़

जीवन भर लौटाऊँ  



३-वो सबकी नज़रों में था

लेकिन खुद को ही नहीं देख पाया



४- पहले मुझे ज़िंदा करो

फिर मरने की बात करना



५-उन्हें हँसी तो आयी

 बहाना

मेरा रोना ही सही



६-देखते है

ज़िंदा रहने की धुन में

खुद को कितनी बार मारता है वो



७-मैं

मैख़ाने का रास्ता भूल जाऊँ

इसलिए आज

वो आँखों से पिला रही…

Continue

Added by ram shiromani pathak on August 8, 2014 at 3:16pm — 4 Comments

सूरज

सूरज............
रोज निकल पडता है चहलकदमी करते
ठिठकता है कुछ देर मेरे शहर में भी
फिर चल देता है
कांधे पर कुछ यादों की गठरी लादे
देखता है मुड कर किसी शाख के पीछे से
कुछ और भी गुमसुम हो जाते हैं
दरख्तों के घने लंबे साए
पर यादें...............
जाने कहां कहां से फिर लौट कर आ जाती हैं
जिन्हें रोज ही सूखे पत्तों के साथ
समेट कर फेंक देती हूं
---------प्रियंका

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Priyanka Pandey on August 8, 2014 at 2:00pm — 5 Comments

जब बूंदें रिमझिम गिरती हैं

जब बूंदें रिमझिम गिरती हैं

कुछ स्वरलहरियां सी बुनती हैं

हरियाली के इस मौसम में भी

बस फीका सा रह जाता है मन

भीगा भीगा सा ये मौसम.....

भीगी सी वादी और समां

प्यासी धरती हो दृवित चले

पर प्यासा सा रह जाता है मन

रिमझिम बारिश में घंटों रहना

राहों में बस यूं ही संग संग चलना

तेरी उन सारी बातों को

फिर फिर से दोहराता है मन.

मन तुमसे मिलने को तरसे

बूंदों संग आंखें कितना बरसें

इन दोनों की इस बारिश मे

बस रीता सा रह जाता है…

Continue

Added by Priyanka Pandey on August 8, 2014 at 2:00pm — 7 Comments

घनाक्षरी (राम शिरोमणि पाठक"दीपक")

वीर हैं सपूत सारे, भारती के नैन-तारे!
युद्धभूमि में सदैव झंडा गाड़ देते हैं!!

प्रचंड तेज भाल पे,चाहे हो द्व्ंद्व काल से!
भारती के शत्रुओं का,सीना फाड़ देतेहै!!

विश्व धाक मानता है,वीरता को देख देख !
बड़े बड़ों को भी सदा,ये पछाड़ देते है!!

वज़्र के समान देह,नैनों में प्रचंड आग!!
काँप जाता शत्रु जब ,ये दहाड़ देते है!

***************************************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on August 8, 2014 at 1:30pm — 13 Comments

घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    212

**

मयकदे को अब शिवाले बिक गये

रहजनों  के  हाथ  ताले बिक गये

**

घर  जलाना भी  हमारा व्यर्थ अब

रात  के  हाथों  उजाले  बिक  गये

**

जो खबर थी अनछपी ही रह गयी

चुटकले  बनकर मशाले बिक गये

**

न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया

जांच  के  जब  यार आले बिक गये

**

दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही

दोस्ती के फिर से पाले बिक गये

**

सोचते  थे नींव जिनको गाँव की

वो शहर में बनके माले बिक गये

**



मौलिक और…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 8, 2014 at 10:39am — 15 Comments

कहानी प्यार की

2122 212 212 2212

 

हम लिखेंगे ओ सनम इक कहानी प्यार की । । 

दास्ताँ कोई बनेगी ज़िंदगानी प्यार की ।

लाख सदियों से पुराना प्यार फिर भी है नया ,

हर जवाँ दिल में धड़कती है जवानी प्यार की ।

तू खिजां से दोस्ती कर पतझड़ों में रंग भर  ,

एक दिन आकर रहेगी ऋतु सुहानी प्यार की ।

ये जुबां वालों  कि दुनिया में न हाले दिल सुना ,

कब भला समझी किसी ने बेज़ुबानी प्यार की ।

ये सभी रस्में व कसमें सब रिवाज़ों से परे ,…

Continue

Added by Neeraj Nishchal on August 7, 2014 at 7:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

२२ २२ २२ २२ २

किसके गम का ये मारा निकला
ये सागर ज्यादा खारा निकला

दिन रात भटकता फिरता है क्यों
सूरज भी तो बन्जारा निकला

सारे जग से कहा फकीरों ने
सुख दुःख में भाईचारा निकला

हथियारों ने भी कहा गरजकर
इन्सा खुद से ही हारा निकला

चाँद नगर बैठी बुढ़िया का तो
साथी कोई न सहारा निकला



मौलिक व अप्रकाशित

Added by gumnaam pithoragarhi on August 7, 2014 at 7:00pm — 7 Comments

पापा बिन ...........!!! (अतुकांत )

नित बैठी रहती हूँ उदास

हर पल आती पापा की याद

सावन में सखियाँ जब

ले कर बायना आती हैं

नैहर की चीजें दिखा-दिखा

इतराती हैं,

तब भर आता है दिल मेरा

पापा की कमी रुलाती है

कहती हैं जब, वो सब सखियाँ

पापा की भर आयीं अंखिया

मेरे बालों को सहलाया था

माथा चूम दुलराया था

सुनती हूँ जब उनकी बतिया

व्यकुल हो गयी मेरी निदिया

मन अधीर हो जाता है

पापा को बहुत बुलाता है

पर खुश देख सखी को

हल्का…

Continue

Added by Meena Pathak on August 7, 2014 at 6:45pm — 17 Comments

सबने पूंछा आदमी को क्या हुआ है ?

२१२२      २१२२         २१२२ 

सबने पूंछा आदमी को क्या हुआ है ?

क्या बताता आदमी को क्या हुआ है ?

खूबसूरत जिन्दगी बख्सी खुदा ने 

गम ने मारा आदमी को क्या हुआ है ?

कोख में पाला हैं जिसने आदमी को 

उसको लूटा आदमी को क्या हुआ ?

अब नहीं महफूज बहनें भी वतन में 

सबने सोचा आदमी को क्या हुआ है ?

जिन्दगी की दौड़ में हो बेखबर यूं 

फर्ज भूला आदमी को क्या हुआ है ?

मौलिक व…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on August 7, 2014 at 2:55pm — 8 Comments

स्व रक्षार्थ का भार भेजा है (तुकांत कविता )

रक्षा सूत्र में पिरोकर अपना प्यार भेजा है

भैया तुझे मैंने स्व रक्षार्थ का भार भेजा है|



माना मन में तेरे राखी का सम्मान नहीं  

बड़े मान से हमने अपना दुलार भेजा है|



रिश्ता भाई बहन  का हैं एक अटूट बंधन

होता  जार जार जो सब जोरजार भेजा है|



ढुलक गया मोती जो मेरी नम आँखों से

 पिरोकर मोती  हमने उपहार भेजा है|



गिले शिकवे भूल सारे फिर एक बार

  सहेज कर यादें लिफ़ाफ़े में मधुर भेजा है|



राखी दो पैसे की हो  या हजारों की भैया…

Continue

Added by savitamishra on August 7, 2014 at 11:00am — 7 Comments

अंतर (लघुकथा)

"डाक्टर साहब , ये बच्ची हमें नहीं चाहिए", बोलते हुए उस महिला के आँखों में आँसू आ गए थे |

"देखो , बेटा और बेटी में कोई अंतर नहीं है और अब देर भी काफी हो गयी है , तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है" |

" आप तो एबॉर्शन कर दीजिये , और कौन सी हमारे बेटे की उमर निकल गयी है" , सास ने ठन्डे स्वर में कहा । 

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on August 7, 2014 at 1:00am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पाँच दोहे - ( गिरिराज भंडारी )

कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम

सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम

 

कौन काम को देख के , अब देता है दाम  

थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम 

 

सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम

नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम

 

सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम  

फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता  है  दुश्नाम

 

हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम  

कितने नामी के हुये , धूमिल सारे  नाम…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on August 6, 2014 at 9:00pm — 12 Comments

लोला (छोटी कहानी}

लोला

         तीन साल बाद अपने पैतृक आवास की ओर जाते हुए बड़ा अन्यमनस्क था मै I इससे पहले आख़िरी बार पिताजी की बीमारी का समाचार पाकर उनकी चिकित्सा कराने हेतु यहाँ आया था I हालाँकि  हमारी तमाम कोशिशे कामयाब नहीं हुयी थी और हम उन्हें बचा नहीं सके थे I मेरी भतीजी उस समय तीन या चार वर्ष की रही होगी I पिता जी की दवा और परिचर्या के बाद जो भी थोडा समय मिलता, वह मै अपनी भतीजी के साथ गुजारता I उसे बाँहों में लेकर जोर से उछालता I वह खिलखिलाकर हंसती थी I मै प्यार से उसे ‘लोला’ कहता…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 6, 2014 at 6:30pm — 20 Comments

ये जीबन यार ऐसा ही

ये जीबन यार ऐसा ही

ये जीबन यार ऐसा ही ,ये दुनियाँ यार ऐसी ही
संभालों यार कितना भी आखिर छूट जाना है

सभी बेचैन रहतें हैं ,क्यों मीठी बात सुनने को
सच्ची बात कहने पर फ़ौरन रूठ जाना है

समय के साथ बहने का मजा कुछ और है प्यारे
बरना, रिश्तें काँच से नाजुक इनको टूट जाना है

रखोगे हौसला प्यारे तो हर मुश्किल भी आसां है
अच्छा भी समय गुजरा बुरा भी फूट जाना है

मौलिक और अप्रकाशित

मदन मोहन सक्सेना

Added by Madan Mohan saxena on August 6, 2014 at 3:57pm — No Comments

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