कैसे कहू मैं दिल की ......
दिल में ही रह गई .
ख्वाब अधुरा रह गया ,
ख्वाबो पे छुरी चल गई ,
कैसे कहू मैं दिल की ......
दिल में ही रह गई .
बालपन की मन में ब्यथा ,
तन सयानी हो गई ,
लोगो की नजरो में आना ,
जवानी दुश्मन हो गई
कैसे कहू मैं दिल की ......
दिल में ही रह गई .
अपने होते ख्वाबें होती ,
मन की मुरादें मिल जाती ,
अपनों ने जो दगा किया…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 29, 2011 at 4:30pm —
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ऊपर है नीला आसमान, नीचे विशाल वसुधा ललाम.
सर -सरिता और उत्स भूधर, फैले अरण्य अनुपम सुन्दर.
राकेश -रवि को जेल यहाँ.…
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Added by satish mapatpuri on June 13, 2011 at 2:00am —
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सामयिक गीत :
देश को वह प्यार दे दो...
संजीव 'सलिल'
*
रूप को अब तक दिया जो,
देश को वह प्यार दे दो...
इसी ने पाला हमें है.
रूप में ढाला हमें हैं.
हवा, पानी रोटियाँ दीं-
कहा घरवाला हमें है.
यह जमीं या भू नहीं है,
सच कहूँ माता मही है.
देश हित हो ज़िंदगी यह-
देश पर मरना सही है.
आँख के सब स्वप्न दे दो,
साँस का सिंगार दे दो...
*
देश हित विष भी पियें हम.
देश पर मरकर जियें हम.
देश का ही गान…
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Added by sanjiv verma 'salil' on May 12, 2011 at 3:57pm —
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हे परोपकारी भगवन
तू रीते घट भर दे
सूखे ताल तलैया भर दे
पथिको को छैया दे…
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Added by vimla bhandari on May 11, 2011 at 1:37pm —
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पिछले दिनों जय कृष्ण राय 'तुषार' जी ने फोन पर एक गीत सुनाया, जिसे सुनकर मन प्रसन्न हो गया
आज उनकी सहमती लेकर वह गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा करता हूँ की, ओ.बी.ओ. परिवार को गीत पसंद आयेगा व कमेन्ट द्वारा आप तुषार जी को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे -- आपका वीनस केसरी…
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Added by वीनस केसरी on April 20, 2011 at 3:00am —
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जियरा धड़के जर के पिया जी
देखो हैं खेलत होरी पिया जी...
घेरे हैं उनको सखियाँ हमारी
रंग हैं लगावें जम के पिया जी...
करत है लीला रास मैं जानू
जियरा…
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Added by भरत तिवारी (Bharat Tiwari) on March 30, 2011 at 6:30pm —
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गीत
भर आए परदेशी छालों से पाँव, चलो लौट चलें.
दुखियारे तन-मन से गीतों के गाँव, चलो लौट चलें.
…
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Added by राजेश शर्मा on March 23, 2011 at 7:17pm —
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अक्षत,हल्दी छूकर सपने, द्वारे-द्वारे जाएंगे.
शायद कुछ लौटे आमंत्रण,अब स्वीकारे जाएँगे.
**
जबसे कोई मौन ,दृगों…
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Added by राजेश शर्मा on March 2, 2011 at 9:00am —
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याद किया और कलम उठाया,
पर उनको ख़त लिख नहीं पाया.
प्यार लिखूं -दिलदार लिखूं या,
दिल की धड़कन- समझ न पाया.
सोने की कोशिश में थककर,
रात को वो भी जगते होंगे.
उनके तसव्वुर में भी शायद,
कितने सपने सजते होंगे.
मिलना तो कई बार हुआ,
पर क्यों मिलता हूँ कह नहीं पाया.
याद किया और कलम उठाया,
पर उनको ख़त लिख नहीं…
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Added by satish mapatpuri on December 14, 2010 at 1:30pm —
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हमने जो घर-घर में देखा,
उन बातों का यही निचोड़
जीवन है इक बाधा दौड़.
चाहे कितनी करो कमाई,
सब कुछ खा जाती मंहगाई.
दस-पंद्रह दिन में चुक जाती.
एक मॉस की पाई -पाई.
ओवर-इनकम नहीं जो घर में,
इक-दूजे का माथा फोड़.
जीवन है इक बाधा दौड़.
मस्त रहें बच्चे ,धमाल में,
घर के बूढ़े अस्पताल में
घर का करता फिरकी जैसा
नाचे सबकी देख -भाल में
घर-घर बहूएँ कोंस रहीं हैं
बुढ़िया अब तो माचा छोड़
जीवन है इक बाधा…
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Added by anand pandey tanha on November 26, 2010 at 7:52pm —
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हम बच्चों को आप बड़ों का प्यार चाहिए.
हमें भी फूलने- फलने का आधार चाहिए.
हम भी फूल इसी बगिया के, फिर बहार से क्यों वंचित हैं?
देश के हम भी नौनिहाल हैं, फिर दुलार से क्यों वंचित हैं?
हमें भी खुलकर हँसने का अधिकार चाहिए.
हमें भी फूलने - फलने का आधार चाहिए.
उस समाज का क्या मतलब, जहाँ हम अनपढ़ रह जाते हैं?
उस किताब की क्या कीमत, जिसको हम पढ़ नहीं पाते हैं?
हम सब को भी शिक्षा का सिंगार चाहिए.
हमें भी फूलने -फलने का आधार…
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Added by satish mapatpuri on November 19, 2010 at 3:30pm —
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देखो पुकार कर कहता है
भारत माँ का कण-कण, जन जन
हम बने विजय के अग्रदूत
भारत माँ के सच्चे सपूत...
हम बढ़ें अमरता बुला रही...
यश वैभव का पथ दिखा रही ...
यश-धर्म वहीँ है, विजय वहीँ..
जिस पल जीवन से मोह नहीं
आसक्ति अशक्त बनाती है ...
यश के पथ से भटकाती है ...
जो मरने से डर जाता है...
वह पहले ही मर जाता है ...
हम पहन चलें फिर विजयमाल,
रोली अक्षत से सजा भाल...
हम बनें विजय के अग्रदूत...
भारत माँ के सच्चे… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 6, 2010 at 9:11am —
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लोकगीत:
पोछो हमारी कार.....
संजीव 'सलिल'
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ, ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 29, 2010 at 7:00pm —
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नवगीत:
संजीव 'सलिल'
*
*
अपना हर पल
है हिन्दीमय
एक दिवस
क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें
नित्य अंग्रेजी
जो वे
एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को
कहते पिछडी.
पर भाषा
उन्नत बतलाते.
घरवाली से
आँख फेरकर
देख पडोसन को
ललचाते.
ऐसों की
जमात में बोलो,
हम कैसे
शामिल हो जाएँ?...
हिंदी है
दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक
की…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 15, 2010 at 7:54am —
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*
बाल गीत:
लंगडी खेलें.....
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
एक पैर लें
जमा जमीं पर।
रखें दूसरा
थोडा ऊपर।
बना संतुलन
निज शरीर का-
आउट कर दें
तुमको छूकर।
एक दिशा में
तुम्हें धकेलें।
आओ! हम मिल
लंगडी खेलें.....
*
आगे जो भी
दौड़ लगाये।
कोशिश यही
हाथ वह आये।
बचकर दूर न
जाने पाए-
चाहे कितना
भी भरमाये।
हम भी चुप रह
करें…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 1, 2010 at 10:18pm —
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बाल गीत
माँ का मुखड़ा
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
*
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 28, 2010 at 5:19pm —
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गीत:
आराम चाहिए...
संजीव 'सलिल'
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 26, 2010 at 9:52pm —
3 Comments
निवेदन:
आत्मीय !
वन्दे मातरम.
जन्म दिवस पर शताधिक मंगल कामनाएँ भाव विभोर कर गयी. सभी को व्यक्तिगत आभार इस रचना के माध्यम से दे रहा हूँ.
मुझसे आपकी अपेक्षाएँ भी इन संदेशों में अन्तर्निहित हैं. विश्वास रखें मेरी कलम सत्य-शिव-सुन्दर की उअपसना में सतत तत्पर रहेगी. विश्व वाणी हिन्दी के सभी रूपों के संवर्धन हेतु यथाशक्ति उनमें सृजन कर आपकी सेवा में प्रस्तुत करता रहूँगा.
पाँच वर्ष पूर्व हिन्दीभाषियों की संख्या के आधार पर हिन्दी का विश्व में दूसरा…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 21, 2010 at 9:39am —
5 Comments
क्या बोलूँ अब क्या लगता है..
चाहत में घन-पुरवाई है
किन्तु, पहुँच ना सुनवाई है
मेघ घिरे फिर भी ना बरसे तो मौसम ये लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?!
आस भरा 'थप-थप' चलता था
’ताता-थइया’ उठ गिरता था
आज पिघलती सड़कों पर निरुपाय खड़ा है, लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?!
ओढ़ गंध बन-ठन जाने का
शोर बहुत है खिल जाने का
लद गई उन्मन डाली भी यों कि अँदेसा लगता है.. क्या बोलूँ अब क्या लगता है?
Added by Saurabh Pandey on August 18, 2010 at 6:00pm —
5 Comments
स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना:
गीत
भारत माँ को नमन करें....
संजीव 'सलिल'
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 14, 2010 at 11:39pm —
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