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All Blog Posts Tagged 'ग़ज़ल' (449)


प्रधान संपादक
ग़ज़ल : रिश्तों में खटाई जारी है

२२ २२ २२ २२

नफरत की बुआई जारी है

दहशत की कटाई जारी है

.

ऊपर वाला है खौफज़दा

शैताँ की खुदाई जारी है

.

गुड बंटना बंद हुआ जबसे

रिश्तों में खटाई जारी है

.

मेजों पर अम्न की बातें हैं

सरहद पे लड़ाई जारी है

.

दिल भी मैला रूह भी मैली

सड़कों की सफाई जारी है

.

नादां को दानां का तमगा

ऐसी दानाई जारी है

.

गुमशुद हैं दाना पंछी का

जालों की बुनाई जारी है

.

बारिश…

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Added by योगराज प्रभाकर on November 10, 2015 at 11:00am — 8 Comments

जिसमें जितनी कीमत उतनी- पंकज मिश्र

16 रुक्नी ग़ज़ल

=====================================

नफ़रत का बाज़ार सजा है; हममें जितनी, कीमत उतनी।

इच्छाओं का दाम लगा है, खुदमें जितनी, कीमत उतनी।।



इस पुस्तक के पन्नों पर तुम, नैतिकता क्यों कर लिखते हो।

मानवता की छद्म व्याख्या, इसमें जितनी, कीमत उतनी।।



व्यवहार और समाचार में, सिर्फ एक सम्बन्ध यही है।

नमक मिर्च की हुई मिलावट, इनमें जितनी, कीमत उतनी।।



कलयुग वाले महाराज के, दरबारी मानक बदले हैं।

चाटुकारिता भरी हुई है, जिसमें…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 7, 2015 at 9:30am — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल- छिपे मक्कार हैं बहुत (गिरिराज भंडारी)

221    2121    1221      212

शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत  

बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत

 

किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको

जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत

 

अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं

है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत

 

समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये

अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत

 

नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले

वे भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 8:00am — 46 Comments

ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2122 2122 2122 212





कल्पना का पथ टटोलें कुछ समय की आह सुन

इस तरह निभ जाये शायद अपनी चाहत अपनी धुन



उनकी यादों की कोई सीमा कोई मंज़िल भी है

मुड़ हकीकी से मजाज़ी या जगत की पीर बुन



बेगुनाही का मज़ा इस बात से दुगना हुआ

मेरे कातिल ने कहा है खुद सजा की राह चुन



एक मिसरा उनपे भी हो जिनसे होती है ग़ज़ल

फाइलातुन, फाइलातुन ,फाइलातुन, फाइलुन



प्रेम की इस व्यंजना में इक अमिट अनुराग है

वो न मेरा नाम लेती है कहती है बस मेरे…

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Added by मनोज अहसास on October 27, 2015 at 2:00pm — 18 Comments

ग़ज़ल--( माँ) बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'

अरकान-    212  212   212  212

 

दर्द सीने में अक्सर छुपाती है माँ|

तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ|

 

ख़ुद न सोने की चिंता वो करती  मगर,

लोरियां गा के हमको सुलाती है माँ|

 

रूठ जाते हैं हम जो कहीं माँ से तो,

नाज-नखरे हमारे उठाती है माँ|

 

लाख काँटे हों जीवन में उसके मगर,

फूल बच्चों पे अपनी लुटाती है माँ|

 

माँ क्या होती है  पूछो यतीमों से तुम,

रात-दिन उनके सपनों में आती है…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 26, 2015 at 10:30pm — 7 Comments

"ममता, दोस्ती और मुहब्बत" - गीतिका -[ 3] / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

[आधार छंद : 'विधाता']

1222 1222 1222 1222





कभी अपने मुसीबत में, ज़रा भी काम आये हैं,

जिन्हें समझा नहीं था दोस्त वे नज़दीक लाये हैं।



जिसे माना, जिसे पूजा, उसे घर से भगा कर के,

बुढ़ापे में, जताकर स्वार्थ, ममता को भुलाये हैं।

तुम्हारे पास दिल रख तो दिया गिरवी भरोसे पर,

पता मुझको चला तुमने, हज़ारों दिल दुखाये हैं।



कभी वे फोन पर बातें करेंगी, स्वर बदलकर के,

कभी वे नेट पर चेटिंग, झिलाकर के बुलाये हैं।



न जाने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2015 at 8:30am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कभी अपने फ़लक़ से तुम ज़रा नीचे उतरकर- शिज्जु शकूर

1222 1222 1222 122

कभी अपने फ़लक़ से तुम ज़रा नीचे उतरकर

चले आओ हक़ीक़त की ज़मीनों से गुज़रकर



ग़लत के मुख़्तलिफ़ चलना! अनोखी बात है क्या?

मुझे क्यों ऐ खुदा सब देखते हैं? यों ठहरकर!



अज़ाबो-कर्ब के मारों की नाउम्मीद आँखें

छलकती जा रही थीं एक के बाद एक भरकर



मेरे हाथ आई थी़ं कुछ कतरनें यादों की कल रात

गुज़रते वक्त ने जैसे रखा हो यूँ कुतरकर



नुमायाँ हो रही है मेरी हालत क्या सरेआम?

बताओ क्यों शफ़क़ का रंग दिखता है… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on October 21, 2015 at 10:46pm — 5 Comments

जिगर से पूछकर देखो,नज़र से पूछकर देखो (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222



मज़ा क्या है सफ़र का,हमसफ़र से पूछकर देखो

है मंज़िल दूर कितनी,ये डगर से पूछकर देखो

-

सुनाएँगी दरो-दीवार,खिड़की रोज़ ही तुमको

कहानी अपने पुरखों की तो घर से पूछकर देखो

-

बिताई जिस के साये में थी तुमने धूप जीवन की

कि अब तो हाल उस बूढ़े शजर से पूछकर देखो

-

पता चल जाएगा, किसने फ़िज़ा में है ज़हर घोला

हवाओं से,ये बू आती किधर से..पूछकर देखो

-

वफ़ा के ज़ख्म कितने हैं,बहे कितने मेरे आँसू

जिगर से पूछकर… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on October 18, 2015 at 5:00pm — 10 Comments

"प्यार-संस्कार" - (गीतिका) [2]

2122 2122 2122 21

आधार छंद- रूपमाला (मापनी-मुक्त)



चार दिन की चाँदनी है, चार दिन का प्यार,

प्यार का बीमार कहता, भावना व्यापार।

[1]



आज हम त्योहार पर ही, बांटते हैं प्यार,

काश हम हर 'वार' को ही, बांटते हर बार।

[2]



काश उन्हें पूछते हम, बेचते जो प्यार,

झेलते तन बेचकर ही, रोज़ अत्याचार।

[3]



भागते फिरते जुटाने, रोज़ धन को लोग,

तब तरसते खूब रहते, छोड़ कर सब प्यार।

[4]



जाग कर के रात को हो, मौन… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2015 at 10:15pm — 5 Comments

ग़ज़ल : लौट कर जब शाम को मैं घर गया

2122   2122  212

 

लौट कर जब शाम को मैं घर गया ,

निस्‍फ़ दफ़्तर  साथ में लेकर गया ।

 

आंख में देखी थकानों की नदी,

डूब कर उत्‍साह घर का मर गया ।

 

खेंच लो तुम भी तनाबें नींद की ,

चाँद खिड़की से हमें कह कर गया ।

 

बात जो मैं भूलना चाहूं वही ,

ध्‍यान भी उस बात पर अक्‍सर गया ।

 

जब गया तो वो सिंकदर या सखी ,

शान शौकत सब यहीं पर धर गया ।

 

क्‍या बताएं वक्‍़त की मज़बूरियां…

Continue

Added by Ravi Shukla on September 28, 2015 at 6:06pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अपने अपने हिस्से की हम लोग किस्मत ले गये- ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

जब लिया इक दूसरे से हमने रुख़सत ले गये

अपने अपने हिस्से की हम लोग किस्मत ले गये



निस्बतों की अहमियत जो जानते थे लोग वो

याद अपनी दे गये हमसे मुहब्बत ले गये



ताक़ पर रिश्तों को रख जज़्बात बेच आये कहीं

आज तन्हा रह गये जो सिर्फ़ दौलत ले गये



अपनी वो मस्रूफ़ियत से एक लम्हा छोड़कर

पास बैठे दो घड़ी क्या मेरी फुरसत ले गये



वो हसद का एक शो’ला मेरे दिलमें डालकर

काम अपना कर दिया मेरी वजाहत ले गये



रोककर… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on September 24, 2015 at 6:36am — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पलट के फिर आयेंगी- शिज्जु

12112 12112 12112 12112

पलट के फिर आयेंगी वो महक सबा वो सहर कभी न कभी

उदास न हो कि होगा हर इक दुआ का असर कभी न कभी



ये राह बहुत तवील सही, तू तन्हा ओ बेक़रार सही

मगर तुझे याद आयेगी ये घड़ी ये सफ़र कभी न कभी



यूँ हाथ के आबलों पे न जा, ज़बीं से टपकती बूंदें न देख

दिखेगा ज़रूर दुनिया को भी, तेरा ये हुनर कभी न कभी



पिघलने लगेंगे संगे-महक, तेरे तबो-ताब से किसी दिन

निकाल के लायेंगे यही पत्थरों से नहर कभी न कभी



फ़लक़ ये ज़मीन आबो हवा,… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2015 at 5:22pm — 12 Comments

गाँव-घर मुझको बुलाते हैं (ग़ज़ल)

1222  1222  1222  1222

छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..

किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..

-

न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,

न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..

-

फ़िदा इन ही अदाओं पर हुऐ थे हम कभी यारों,

ज़रा सी बात पे वो रूठ कर फिर मान जाते हैं..

-

नज़र की बात थी,पर वो कभी भी बूझ ना पाये,

ज़रा, हम हाल दिल का बोलने में हिचकिचाते हैं..

-

भटक के इस शहर में,उब…

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Added by जयनित कुमार मेहता on September 17, 2015 at 3:50pm — 8 Comments

बिक रही अब तो मुहब्बत दोस्तों (ग़ज़ल)

(2122  2122  212)
बढ़ रही ख़्वाहिश-ए-दौलत दोस्तों..
बिक रही अब तो मुहब्बत दोस्तों..
-
कब रुकेंगी जाने नदियां ख़ून की,
ख़त्म होगी कब ये नफ़रत दोस्तों..
-
न्याय की उम्मीद अब तुम छोड़ दो,
हैं बहस भर ही अदालत दोस्तों..
-
दिल में उनके है नहीं मेरी जगह,
क्यों हमें उनकी है चाहत दोस्तों..
-
टूटने का डर नहीं लगता हमें,
दिल लगाने की है आदत…
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Added by जयनित कुमार मेहता on September 15, 2015 at 6:53pm — 17 Comments

ग़ज़ल : हुई जो खबर नाम चलने लगा है

हुई जो ख़बर नाम चलने लगा है ।

ये सारा जहां  हमसे जलने लगा है ।।

 

यहां झूठ से सबको नफरत है फिर भी ।

है किसकी ये शह जो मचलने लगा है ।।

न तुम आग उगलो न मै ज़ह्र घोलूं  ।

ये सोचें लहू क्‍यूँ उबलने लगा है ।।

बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।

हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।

तुम्‍हें देखते ही  हमारी कबा से ।

उदासी का आलम पिघलने लगा है ।।

 

अज़ल से वही है ज़फ़ा का बहाना ।

 कि मौसम के…

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Added by Ravi Shukla on September 15, 2015 at 5:11pm — 26 Comments

ग़ज़ल- बेरहम दुनिया ने मुझसे शायरी भी छीन ली।

2122 2122 2122 212



आखिरी उम्मीद की अब ये कली भी छीन ली।

बेरहम दुनिया ने मुझसे शायरी भी छीन ली।



रौशनी की बात तो किस्मत में लिक्खी ही नहीं ।

छुप के रोया तो खुदा ने तीरगी भी छीन ली।



दिल लगाया था किसी से दिल्लगी के वास्ते।

दिल्लगी क्या कर ली ख्वाबों की हँसी भी छीन ली।



मय न पीने को मिली तो अश्क ही पीने लगा ।

देख यह किस्मत ने आँखों की नमी भी छीन ली।



दोस्ती के फूल जब मुरझा गये इक मोड पर।

मुफलिसी ने फिर कहानी प्यार की भी… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on September 14, 2015 at 2:12pm — 12 Comments

ग़ज़ल- तुम मिले तो धडकनों में फिर रवानी सी लगी।

2122 2122 2122 212



तुम मिले तो धडकनों में फिर रवानी सी लगी।

तुम मिले तो जिन्दगानी जिन्दगानी सी लगी।



तुम मिले तो आज ये दुनिया सुहानी सी लगी।

तुम मिले तो सच मुहब्बत जाविदानी सी लगी।



तुम मिले तो दिल के हर इक मोड पर खुशियाँ सजी।

तुम मिले तो साँस सुख की राजधानी सी लगी।



तुम मिले तो प्यार का हर एक किस्सा दिलरुबा।

मुझको अपनी और तेरी ही कहानी सी लगी।



जब तुम्हें पहली दफा देखा मेरे जज्बात ने।

तुम कोई पिछले जनम की जानी जानी सी… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on September 7, 2015 at 2:30pm — 14 Comments

जाता नहीं अब कोई भी दर्द दवा लेकर (ग़ज़ल)

(221 1222 221 1222)

जाता नहीं अब कोई भी दर्द दवा लेकर..

ज़ख्मों को भरा दिल के,यादों का नशा लेकर..

-

अब तक न मेरे फ़न को पहचान सके हैं जो,

फिर बाद में ढूंढेंगे वो मुझको दिया लेकर..

-

फीके सभी पकवानों के स्वाद हो जाते हैं,

खाता है नमक रोटी, जब भी वो मज़ा लेकर..

-

खोले खिड़की बैठा मैं देख रहा रस्ता,

शायद पहुँचे, कोई पैगाम हवा लेकर..

-

न ढूंढ सकेगा सारी उम्र खुदा को 'जय',

फिर बोल करेगा क्या, तू उसका पता…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 6, 2015 at 11:53pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मेरी भी दास्ताँ समझे कोई

1222 1222 12
मेरी भी दास्ताँ समझे कोई
मुझे इंसाँ यहाँ समझे कोई

मुहब्बत में तनाफ़ुर ढूँढ ले
मुझे फिर हमज़बाँ समझे कोई

दिखाता हूँ उजालों की तरफ़
ये कोशिश रायगाँ समझे कोई

मुझे भी दर्द होता है बहुत
तड़प मेरी कहाँ समझे कोई

जला के निकला हूँ इक शम्अ मैं
मगर आतिश-फिशाँ समझे कोई

(रायगाँ= व्यर्थ, आतिश-फिशाँ= ज्वालामुखी)

मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on September 6, 2015 at 2:47pm — 5 Comments

चलो! दुआ ये अभी बैठकर /श्री सुनील

1212 1122 1212 22/112



चलो! दुआ ये अभी बैठकर ख़ुदा से करें

कुछेक मुश्किलों के हल तो अब दुआ से करें.



वो अम्नो चैन यहाँ यूँ बह़ाल हों शायद

ख़िरद से काम लें गर बात क़ाइदा से करें.



अ़जीब नस्ल के इस दर्द पे कहा ये तबीब

अब ऐसे दर्द का दरमां भी किस दवा से करें.



ख़ुदा है सबपे, अगर सच यही है तो ऐ दिल!

चराग़ तू तो जला, बात क्या हवा से करें.



वो ख़ुशनिहाद है, ख़ुशदिल है, ख़ुशज़बाँ है तो

अब ऐसे शख्स का पैमाई किस उला से…

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Added by shree suneel on September 5, 2015 at 1:00am — 6 Comments

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