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गाँव-घर मुझको बुलाते हैं (ग़ज़ल)

1222  1222  1222  1222

छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..

किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..

-

न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,

न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..

-

फ़िदा इन ही अदाओं पर हुऐ थे हम कभी यारों,

ज़रा सी बात पे वो रूठ कर फिर मान जाते हैं..

-

नज़र की बात थी,पर वो कभी भी बूझ ना पाये,

ज़रा, हम हाल दिल का बोलने में हिचकिचाते हैं..

-

भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,

कभी जो छोड़ आया, गाँव-घर मुझको बुलाते हैं..

(मौलिक व अप्रकाशित)

~

~

जयनित कुमार वर्मा

अररिया,बिहार

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2015 at 12:29pm

आदरणीय जयनित भाई , गज़ल अच्छी कही है , दिली बधाइयाँ आपको । नीचे कुछ सलाहें आयीं हैं , खयाल कीजियेगा । 
मतले के विषय मे आ. मनोज भाई जी से सहामत हूँ -- उला मे आपने तभी शब्द का उपयोग किया है तो सानी मे जब , जब ही ऐसा कुछ कहने से बात पूरी होती । जैसे --- हम तभी जाते हैं - जब बुलाते हैं । मुझे भी आपका मतला अधूरा लगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2015 at 12:11pm

अच्छा मतला  हुआ -----क्यूं को क्यूँ करलें 

न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,

न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..----शेर बहुत सुन्दर है बस तकाबुले रदीफ़ दोष से फ़ारिग कर लीजिये 

भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,--ऊब को उब नहीं लिख सकते 

थोड़े संशोधन पश्चात् ग़ज़ल निखर उठेगी शुभकामनायें 

-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 20, 2015 at 8:19pm

आदरणीय जयनित जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है बधाई 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 19, 2015 at 7:24pm

सुन्दर प्रयास हुआ है भाई जयनित जी बधाई!शुभकामनायें!

Comment by Samar kabeer on September 18, 2015 at 11:45pm
जनाब जयनित कुमार जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by मनोज अहसास on September 18, 2015 at 4:17pm
छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..
किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..

दोनों मिसरों में आपने सवाल ही पूछ लिए है आदरणीय
मेरे विचार से शेर में बात पूरी नहीं हो पाई
उला की बात का जवाब सानी में निपट जाना चाहिए
बाकि मैं भी सीख रहा हूँ इस बात को गुणीजन बता पायेगे


सादर
Comment by Shyam Narain Verma on September 18, 2015 at 12:49pm
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
Comment by Ravi Shukla on September 17, 2015 at 1:59pm
आदरणीय जयनित जी सुरीले अरकान पर कही आपकी ग़ज़ल के लिए दाद क़ुबूल करें । पर यही बह्र ग़ज़ल से पहले लिख दे तो मंच का अनुशासन बना रहेगा ।
तीसरे शेर में फ़िदा इन्ही अदाओ में ...इन्ही लफ्ज़ फिट नही हो रहा देख लीजियेगा
चौथे शेर में आंचलिक लफ्ज़ की खुशबू मिल रही है जयनित जी सुन्दर
आखरी शेर क ऊला ऐसा प्रतीत होता है जल्दी में किया गया प्रयास है जितना सुन्दर भाव है उतना समय ऊला के शिल्प को मिलना चाहिए ।
बाकी गुणीजन बताएं ।
सुन्दर ग़ज़ल और उसके कथ्य के लिए बधाई स्वीकार करें । सादर

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