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जयनित कुमार मेहता's Blog (74)

इक वह्म ऐतबार से आगे की चीज़ है (ग़ज़ल)

 221  2121  1221  212

ख़ुशबू, चमन, बहार से आगे की चीज़ है।

जो ज़िंदगी है, प्यार से आगे की चीज़ है।

जारी है एक जंग जो ग़म और ख़ुशी के बीच,

यह जंग जीत-हार से आगे की चीज़ है।

अक्सर उफ़ुक़ को देख के आता है ये ख़याल,

कुछ है जो इस हिसार से आगे की चीज़ है।

कैसे बताऊं किस पे टिकी है मेरी निगाह,

मंज़िल से, रहगुज़ार से आगे की चीज़ है।

हद्द-ए-निगाह से भी परे है कोई वजूद,

इक वह्म ऐतबार से आगे की चीज़…

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Added by जयनित कुमार मेहता on September 15, 2022 at 10:30am — 7 Comments

साज-श्रृंगार व्यर्थ है तेरा (ग़ज़ल)

2122   1212   22

जितना बढ़ते गए गगन की ओर
उतना उन्मुख हुए पतन की ओर

साज-श्रृंगार व्यर्थ है तेरा
दृष्टि मेरी है तेरे मन की ओर

फल परिश्रम का तब मधुर होगा
देखना छोड़िए थकन की ओर

मन को वैराग्य चाहिए, लेकिन
तन खिंचा जाता है भुवन की ओर

"जय" भी एकांतवास-प्रेमी है
इसलिए आ गया सुख़न की ओर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on September 4, 2022 at 1:25am — 7 Comments

निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से (ग़ज़ल)

221   2121  1221  212

क़ीमत ज़बान की है जहाँ बढ़के जान से

है वास्ता हमारा उसी ख़ानदान से

चढ़ना है गर शिखर पे, रखो पाँव ध्यान से

खाई में जा गिरोगे जो फिसले ढलान से

पल - पल झुलस रही है ज़मीं तापमान से

मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से

काली घटाएँ रास्ता रोकेंगी कब तलक?

निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से

ये दौलतों के ढेर मुबारक तुम्हीं को हों

हम जी रहे हैं अपनी फ़क़ीरी में शान से

क्या-क्या न हमसे छीन…

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Added by जयनित कुमार मेहता on August 25, 2018 at 11:03am — 8 Comments

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में (ग़ज़ल)

2122 1212 22



सब हैं मसरूफ़ अब उड़ानों में

देखिये भीड़ आसमानों में



प्यार? ईमान? दोस्ती? जी हाँ

सब कुछ उपलब्ध है दुकानों में



भुखमरी,बालश्रम,अशिक्षा..सब

मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में



पत्थरों से उन्हीं की यारी है

जो हैं शीशे-जड़े मकानों में



सच्चे हीरे की है तलाश अगर

जा! भटक कोयले की खानों में



बच्चे लड़-भिड़ के खेलने भी लगे

गुफ़्तगू बंद है सयानों में



फ़र्श से अर्श पर मैं जा पहुँचा

कितनी ताक़त है देखो… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 26, 2017 at 8:06pm — 14 Comments

आदमी मैं कभी बड़ा न हुआ (ग़ज़ल)

2122 1212 22



दर्द से जिसका राब्ता न हुआ

ज़ीस्त में उसकी कुछ नया न हुआ



हाल-ए-दिल उसने भी नहीं पूछा

और मेरा भी हौसला न हुआ



आरज़ू थी बहुत, मनाऊँ उसे

उफ़! मगर वो कभी ख़फ़ा न हुआ



तब तलक ख़ुद से मिल नहीं पाया

जब तलक ख़ुद से गुमशुदा न हुआ



सिर्फ़ इक पल की थी वो क़ैद-ए-नज़र

जाने क्यों उम्र-भर रिहा न हुआ



मुझसे छूटी नहीं ख़ुलूस-ओ-वफ़ा

आदमी मैं कभी बड़ा न हुआ



अपनी ख़ुशबू ख़ला में छोड़ के "जय"

दूर होकर भी वो जुदा… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on September 2, 2017 at 10:36pm — 10 Comments

शायरी चीज़ ही ऐसी है यार (ग़ज़ल)

2122 1122 22



हर घड़ी? चीज़ ही ऐसी है यार..!

शायरी चीज़ ही ऐसी है यार..!



तिश्नगी और भड़क जाती है,

उफ़! नदी चीज़ ही ऐसी है यार..!



कोई हँसता है, कोई रोता है

ज़िन्दगी चीज़ ही ऐसी है यार..!



चाँद का नूर भी फीका पड़ जाए

सादगी चीज़ ही ऐसी है यार..!



लो! हुआ मैं भी अब आदम से मशीन

नौकरी चीज़ ही ऐसी है यार..!



साथ अश्क़ों के गुज़रती है उम्र

आशिक़ी चीज़ ही ऐसी है यार..!



सारा दरिया पी के भी बाक़ी है

तिश्नगी चीज़ ही… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on June 30, 2017 at 11:38pm — 1 Comment

पारसाई ही मेरी दौलत है (ग़ज़ल)

2122 1212 22

जो ये लम्हा उदास है तो है
वो कहीं आस-पास है तो है

पैरहन जिस्म पर हज़ारों हैं
रूह गर बेलिबास है तो है

तीरगी हिज्र की है आंखों में
दिल में लेकिन उजास है तो है

पारसाई ही मेरी दौलत है
छल-कपट तेरे पास है तो है

क्यों न मिट जाए ग़म की कड़ुवाहट
आंसुओं में मिठास है तो है

इश्क़ में कोई मोज़िजा होगा
दिल को अब भी ये आस है तो है

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on June 25, 2017 at 3:28pm — 6 Comments

रेत पर फूल खिलाने आये (ग़ज़ल)

2122 1122 22



रेत पर फूल खिलाने आये

दश्त में कितने दीवाने आये



मिल गया राह में बचपन का यार

याद फिर गुज़रे ज़माने आये



धूप के पंख निकल आये जब

कुछ शजर जाल बिछाने आये



एक दिन बेखुदी जो ले डूबी

तब मेरे होश ठिकाने आये



वक़्त-बेवक्त भड़क कर आँसू

ग़म की सरकार गिराने आये



नाम लिक्खा था किसी का उनपर

किसी के हिस्से में दाने आये



दिल का दरवाज़ा खुला ही रक्खो

किस घड़ी कौन न जाने आये



आया है हिज्र का… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on May 15, 2017 at 9:55pm — 15 Comments

नज़र में कोई सूरत है? नहीं तो (ग़ज़ल)

1222 1222 122



मुहब्बत की ज़रुरत है? नहीं तो

ये ग़म क्या रस्म-ए-उल्फ़त है? नहीं तो



तेरी इसपर हुक़ूमत है? नहीं तो

ये दिल तेरी रियासत है? नहीं तो



ये दुनिया ख़ूबसूरत है? नहीं तो

किसी में आदमीयत है? नहीं तो



कोई मंज़र नहीं जँचता है गोया

नज़र में कोई सूरत है? नहीं तो



किसी दिन चाँद उतरे मेरे छत पर

उसे क्या इतनी फुरसत है? नहीं तो



मुहब्बत से ही इतना कुछ मिला है

कुछ और पाने की चाहत है? नहीं तो



कि मर-मर के… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on May 1, 2017 at 3:48pm — 16 Comments

हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं (ग़ज़ल)

2122 1122 1122 22



संग जितने सहें उतना ही सँवर जाते हैं

हम वो आईने नहीं हैं जो बिखर जाते हैं



शाम ढलते ही निगाहों से गुज़र जाते हैं

सारे मंज़र जो कभी दिल में ठहर जाते हैं



देखता मैं भी उधर जा के, जिधर जाते हैं

रोज़-के-रोज़ कहाँ शम्स-ओ-क़मर जाते हैं



सहरा-ए-इश्क़ में हो जाता है दरिया का भरम

इसी ग़फ़लत में कई लोग उधर जाते हैं



हिज्र तो ज़रिया है जलने का चराग़-ए-उम्मीद

हम तो बस वस्ल का ही सोच के डर जाते हैं



जब पहुँचना ही… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on April 19, 2017 at 5:49pm — 8 Comments

हमने सांसें भी गिरवी रख दी हैं (ग़ज़ल)

2122 1212 22



मुझको सच कहने की बीमारी है

इसलिए तो ये संगबारी है



अपने हिस्से में मह्ज़ ख़्वाब हैं,बस!

नींद भी, रात भी तुम्हारी है



एक अरसे की बेक़रारी पर

वस्ल का एक पल ही भारी है



चीरती जाती है मिरे दिल को

याद तेरी है या कि आरी है?



हमने साँसें भी गिरवी रख दी हैं

अब तो ये ज़िन्दगी उधारी है



सब तो वाकिफ़ हैं आखिरी सच से

किसलिए फिर ये मारा-मारी है?



नींद का कुछ अता-पता तो नहीं

रात है, ख़्वाब हैं,… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on March 17, 2017 at 4:51pm — 5 Comments

अभी शे'र हमने सुनाया कहाँ है (ग़ज़ल)

122   122   122   122

है हर सू फ़क़त धूप,साया कहाँ है?

ये आख़िर मुझे इश्क़ लाया कहाँ है!

अमीरी को अपनी दिखाया कहाँ है?

तुम्हें शह्र-ए-दिल ये घुमाया कहाँ है?

अभी सहरा में एक दरिया बहेगा

अभी क़ह्र अश्क़ों ने ढाया कहाँ है?

अभी देखिएगा अँधेरों की हालत

उफ़ुक़ पर अभी शम्स आया कहाँ…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on March 8, 2017 at 3:30pm — 6 Comments

गुलाब ऐसे ही थोड़ी गुलाब होता है (ग़ज़ल)

1212 1122 1212 22



क़दम-क़दम पे नुमाया सराब होता है

नज़र में दिखता है फिर चूर ख़्वाब होता है



नयी उमर में निगाहों में आब होता है

भड़क उठे जो यही इंक़िलाब होता है



दिलों की गुफ़्तगू भी क्या क़माल होती है

नज़र-नज़र में सवाल-ओ-जवाब होता है



अगर हो रब्त दिलों में तो दूरियां कैसी

ज़मीं से दूर बहुत आफ़ताब होता है



जो काटनी हों कभी हिज्र की सियाह शबें

हर इक ख़याल तेरा माहताब होता है



वो लोग चेहरों को पढ़ना सिखा रहे हम को

बजाय… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 22, 2017 at 3:38pm — 3 Comments

कोई इस तरह न तोड़े सपने (ग़ज़ल)

2122 1122 22



उम्र-भर चुभते हैं बिखरे सपने

कोई इस तरह न तोड़े सपने



टूट जाती है तभी नींद मेरी

जब कभी आते हैं अच्छे सपने



पूरे होने की कोई शर्त नहीं?

पूरे होते नहीं ऐसे सपने



हम हकीकत में यकीं रखते है

हों मुबारक़ तुझे तेरे सपने



वस्ल का वक़्त है नज़दीक बहुत

सुब्ह आते है अब उसके सपने



नींद अब मुझसे ख़फ़ा है, यानी

उसको रास आ गए मेरे सपने



अपनी क़िस्मत में फ़क़त प्यास ही थी

पर थे आँखों में नदी के… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 12, 2017 at 11:55am — 12 Comments

कल भी था और आज भी है (ग़ज़ल)

22 22 22 22 22 22 22 2



इन बन्ज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है

प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है



कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक

बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है



उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर

उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है



अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं

बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है



दैर-ओ-हरम,दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 7, 2017 at 11:30pm — 16 Comments

मौसम-ए-हिज्र ने इक फूल खिलाया है अभी (ग़ज़ल)

2122 1122 1122 22



सिवा उसके कोई मंज़र नहीं दिखता है अभी

गोया आँखों में वही नक़्श ही ठहरा है अभी



मौसम-ए-हिज्र ने इक फूल खिलाया है अभी।

बाद मुद्दत के उसे ख़्वाब में देखा है अभी



शब गुज़र भी चुकी महताब भी घर अपने चला

पर मेरी शम्अ-ए-उम्मीद को जलना है अभी



जानता हूँ कि कोई लहर मिटा ही देगी

आदतन नाम वो फिर रेत पे लिक्खा है अभी



मैं कलंदर हूँ, मुझे भूल से मुफ़लिस न समझ

कि मेरी जेब में ईमान का सिक्का है अभी



चाहते भी हैं… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 3, 2017 at 8:56pm — 5 Comments

रेत पर कोई हुनर होने को है (ग़ज़ल)

2122 2122 212

उसका हमला रात भर होने को है
कब तलक जागूँ? सहर होने को है

भीड़ सारी उस तरफ जुटने लगी
मोजिज़ा कोई जिधर होने को है

लौ चिराग़ों की हवा ने तेज़ की
ख़ाक लेकिन मेरा घर होने को है

मिल गया इक ख़ूबसूरत हमसफ़र
अब तो सहरा भी डगर होने को है

आधुनिकता के नशे में डूब कर
हर बशर अब जानवर होने को है

लहलहाने को है फ़स्ल अश्क़ों की "जय"
रेत पर कोई हुनर होने को है

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on January 21, 2017 at 7:04pm — 13 Comments

मेरे कंधे पे अपना सर रक्खो (ग़ज़ल)

2122 1212 22



पूरे करने का जब हुनर रक्खो

ख़्वाब आँखों में तो ही भर रक्खो



इक नज़र ख़ुद पे डाल लो पहले

बाद में दुनिया पर नज़र रक्खो



बच्चे हैं, बचपना दिखाएँगे

चाहे कितना भी डाँटकर रक्खो



चैन की नींद चाहिए जो तुम्हें

ख्वाहिशें अपनी मुख़्तसर रक्खो



मेरा ईमान ही ख़ुदा है मेरा

अपनी दीनारें अपने घर रक्खो



आओ कुछ दर्द बाँट लूँ तुमसे

मेरे कंधे पे अपना सर रक्खो



तीरगी है जो दिल की बस्ती में

एक जलता दिया… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on January 18, 2017 at 6:56am — 7 Comments

मंजिल की चाह ने हमें रस्ते पे ला दिया (ग़ज़ल)

221 2121 1221 212



किसने मेरी उदासी पे ये क़ह्र ढा दिया

इक पल को मेरे लब पे तबस्सुम सजा दिया



तन्हाइयां, उदासियां, हैरत में पड़ गयीं

मुश्किल घड़ी जब आई तो मैं मुस्कुरा दिया



यूं सोचने पे रस्ते भी दुश्वार लगते थे

चलने लगे, पहाड़ों भी ने रास्ता दिया



हद से ज़ियादा बढ़ने लगा चाँद का ग़रूर

क़ुदरत को ग़ुस्सा आया तो धब्बा लगा दिया



मुद्दत हुई अंधेरों से टकरा रहा है वो

किसका है जाने मुन्तज़िर इक काँपता दिया



घर से निकल के आज ये… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on December 16, 2016 at 6:47am — 8 Comments

मुसाफ़िर थोड़े हूँ, मैं रास्ता हूँ (ग़ज़ल)

1222 1222 122



विरह की ठंड से जब काँपता हूँ।

तेरी यादों की चादर ओढ़ता हूँ।



पहुंचना ही नहीं मुझको कहीं पर

मुसाफ़िर थोड़े हूँ, मैं रास्ता हूँ।



न जाने कौन मुझको मिल गया है

कई दिन से मैं ख़ुद से लापता हूँ



बस इक उम्मीद का आलम है ये, मैं

हर आहट पर उचक कर देखता हूँ।



हुआ है ख़ाक कब का जिस्म मेरा

मैं अब तक उसमें दिल को ढूंढता हूँ।



उफनता है तेरी यादों का दरिया

मैं रफ़्ता-रफ़्ता उसमें डूबता हूँ।



(मौलिक व… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on December 7, 2016 at 5:08pm — 8 Comments

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