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नींद टूटी, ख़्वाब टूटे, मैं ग़ज़ल कहने लगा
रात, दिन, लम्हात बदले, मैं ग़ज़ल कहने लगा

अक्स उसका दिल में उतरा,जैसे कोई शाइरी,
जागते, सोते, ठहरते मैं ग़ज़ल कहने लगा।

अपने दिल का हाल मुझको उन से कहना था,मगर
सामने आकर वो बैठे,मैं ग़ज़ल कहने लगा।

उनके आने से फ़िज़ा में जश्न का माहौल है,
छेड़ दी सरगम घटा ने,मैं ग़ज़ल कहने लगा।

तज्रिबे इतने दिए थे ज़ीस्त ने मेरी..मुझे,
तज्रिबों से ले के मिसरे, मैं ग़ज़ल कहने लगा।

मुफलिसों की अंजुमन में झाँककर देखा तो, "जय"
काफिये बिखरे पड़े थे, मैं ग़ज़ल कहने लगा।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on July 15, 2016 at 6:49am
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल जयनित भाई, हार्दिक बधाई स्वीकार करें!

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Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 7:55pm

मतले से मकते तक बेहतरीन ग़ज़ल वाह्ह्ह्ह 

दिली दाद हाजिर है जयनित जी,   

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 14, 2016 at 2:01pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय जयनित जी, दाद कुबूल कीजिए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 14, 2016 at 11:38am

आदरणीय जयनित भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें , हरेक शेर उम्दा कहे हैं ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 14, 2016 at 11:04am
भाई जयनित जी कमाल की इस रचना के लिय ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर
Comment by Samar kabeer on July 13, 2016 at 6:26pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,बहुत खूबसूरत अहसासात से सजी इस ग़ज़ल के लिये, दिल से बधाई स्वीकार करें ।
पांचवे शैर में सही शब्द है "तज्रबे" ।

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