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"ममता, दोस्ती और मुहब्बत" - गीतिका -[ 3] / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

[आधार छंद : 'विधाता']
1222 1222 1222 1222


कभी अपने मुसीबत में, ज़रा भी काम आये हैं,
जिन्हें समझा नहीं था दोस्त वे नज़दीक लाये हैं।

जिसे माना, जिसे पूजा, उसे घर से भगा कर के,
बुढ़ापे में, जताकर स्वार्थ, ममता को भुलाये हैं।

तुम्हारे पास दिल रख तो दिया गिरवी भरोसे पर,
पता मुझको चला तुमने, हज़ारों दिल दुखाये हैं।

कभी वे फोन पर बातें करेंगी, स्वर बदलकर के,
कभी वे नेट पर चेटिंग, झिलाकर के बुलाये हैं।

न जाने क्यों ,उन्हें आता, मज़ा शर्मा लजाकर के,
हमारी जान पर आती, रिझाकर के फँसाये हैं।

कमी मुझमें नहीं कोई, कमी तुझ में नहीं कोई,
ज़माने का चलन दोषी, मुहब्बत को डराये हैं ।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 3:29am
मेरी इस रचना पर समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहब, आदरणीय सतविंदर कुमार जी, आदरणीय अजय कुमार शर्मा जी, आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब, और आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 3:24am
मेरी इस रचना पर समय देकर प्रोत्साहित करने व मार्गदर्शित करने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीय समर कबीर साहब, आदरणीय सतविंदर कुमार जी, आदरणीय अजय कुमार शर्मा जी, आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब व आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:38am

आदरणीय शहज़ाद भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिली मुबारक बाद आपको । बस - जा कर के , खा कर के इसे लेखन मे सही नही माना जाता , बोल चाल तक सही हैं , खयाल कीजियेगा ॥ वैसे मिथिलेश भाई जी ने भी याद दिलाया है ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 2:15pm

विधाता छंद में लिख्खी ग़ज़ल, शहजादजी बढ़िया

बधाई लें बहुत हमको हज़ज़ के रुक्न भाये हैं.

ग़ज़ल के तीन मिसरों में लिखा है आपने 'कर के' 

ज़रा सा ध्यान हो इन पर, सभी फिर खूब छाये हैं 

Comment by Ajay Kumar Sharma on October 27, 2015 at 2:16pm

बहुत सुन्दर उस्मानी साहब। उत्तम रचना।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 27, 2015 at 6:23am

//kami mujhme nahi koi ,kqmi tujhme nhi koi

zamane ka chlan doshi,muhbbt ko draye hain// umda lekhan aadrniy sheikh sahb

Comment by Samar kabeer on October 26, 2015 at 11:42pm
जनाब शहज़ाद उस्मानी साहिब,आदाब,आरंभिका से लेकर अंतिका तक आपकी गीतिका पसंद आई,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2015 at 7:43pm
अभी तो सीखना लिखना,हमारा हौसला यूं सब बढ़ाये हैं ! हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया Kanta Roy जी व हमारी नयी सक्रिय रचनाकार आदरणीया Rahila जी ,मेरी इस कोशिश पर अपनी त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए ।
Comment by kanta roy on October 26, 2015 at 5:23pm

कमी मुझमें नहीं कोई, कमी तुझ में नहीं कोई,
ज़माने का चलन दोषी, मुहब्बत को डराये हैं ।---वाह ! वाह ! क्या खूब ये अंदाज़ आपने आज हमको दिखाए है। बधाई आपको की आपने बेहद शानदार ग़ज़ल की आमद की है। बधाई कबूल फरमाइए आदरणीय शेख शहज़ाद जी। .

Comment by Rahila on October 26, 2015 at 3:57pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई आद.उस्मानी जी । खासकर "तुम्हारे पास दिल.. .दुखाये है । बहुत गजब लगी । हार्दिक बधाई आपको ।

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