ममता का सागर,प्यार का वरदान हैं माँ,
जिसका सब्र और समर्पण होता हैं अनन्त,
सौभाग्य उसका,बेटा-बेटी की जन्मदात्री कहलाना,
माँ बनते ही,सुखद भविष्य का बुनती वो सपना,
इसी 'उधेड़बुन'में,कब बाल पक गये,
लरजते हाथ,झुकी कमर.सहारा तलाशती बूढ़ी…
ContinueAdded by babitagupta on May 13, 2018 at 1:00pm — 5 Comments
कुदरत की सबसे बडी नेमत है हंसी,
ईश्वरीय प्रदत्त वरदान है हंसी,
मानव में समभाव रखती हैं हंसी,
जिन्दगी को पूरा स्वाद देती हैं हंसी,
बिना माल के मालामाल करने वाली पूंजी है हास्य,
साहित्य के नव रसो में एक रस होता हैं हास्य,
मायूसी छाई जीवन में जादू सा काम करती हैं हंसी,
तेज भागती दुनियां में मेडिटेशन का काम करती हैं हंसी,
नीरसता, मायूसी हटा, मन मस्तिष्क को दुरुस्त करती हैं हंसी,
पलों को यादगार बना, जीने की एक नई दिशा देती हैं…
ContinueAdded by babitagupta on May 6, 2018 at 5:30pm — 4 Comments
एक एक कर काटे डाली , ठूंठ खड़ा मन करे विचार | |
बीत गए दिन हरियाली के , निर्जन बना पेड़ फलदार | |
दिन भर चहल पहल रहती थी , जब होता था छायादार | |
पास नहीं अब आये कोई , सूखा तब से है लाचार | |
भरा रहा जब फल फूलों से , लोग आते तब सुबह शाम | |
कोई खाये मीठे फल को , कोई पौध लगा ले दाम | |
रंग… |
Added by Shyam Narain Verma on May 4, 2018 at 2:30pm — 8 Comments
कच्ची उम्र थी,कच्चा रास्ता,
पर पक्की दोस्ती थी,पक्के हम,
उम्मीदों का,सपनों का कारवां साथ लेकर चलते,
स्वयं पर भरोसा कर,कदम आगे बढाते,
कर्म भूमि हो या जन्म भूमि,हमारी पाठशाला होती,
काल,क्या??किसी व्यतीत क्षणों का पुलिंदा मात्र…
ContinueAdded by babitagupta on May 4, 2018 at 1:02pm — 9 Comments
एक बार फिर कंधे पर,
लैपटॉप बैग लटकाये,
वह अलस्सुब्ह निकल पड़ा.
रात को देर से आने पर,
हमेशा की तरह
नींद पूरी नहीं हुई थी,
जलती हुई आँखों,
और ऐठन से भरे शरीर,
को घसीटता हुआ वह,
जल्दी जल्दी बस स्टॉप की तरफ
भागने की कोशिश कर रहा था.
कल रात की बॉस की डांट,
उसे लाख चाहने के बाद भी,
भुलाते नहीं बन रही थी.
कहाँ सोचा था उसने पढ़ते समय,
कि यह हाल होगा नौकरी में.
कहाँ वह सोचता था कि उसे,
मजदूरी नहीं करनी…
Added by विनय कुमार on May 1, 2018 at 4:30pm — 2 Comments
चिथड़े कपड़े,टूटी चप्पल,पेट में एक निवाला नहीं,
बीबी-बच्चों की भूख की आग मिटाने की खातिर,
तपती दोपहरी में,तर-वतर पसीने से ,कोल्हू के बैल की तरह जुटता,
खून-पसीने से भूमि सिंचित कर,माटी को स्वर्ण बनाता,
कद काठी उसकी मजबूत,मेहनत उसकी वैसाखी,…
ContinueAdded by babitagupta on May 1, 2018 at 1:30pm — 4 Comments
घर की सुखमयी ,वैभवता की ईटें सवारती,
धरा-सी उदारशील,घर की धुरी,
रिश्तों को सीप में छिपे मोती की तरह सहेजती,
मुट्ठी भर सुख सुविधाओं में ,तिल-तिल कर नष्ट करती,
स्त्री पैदा नही होती,बना दी जाती,
ममतामयी सजीव मूर्ति,कब कठपुतली बन…
ContinueAdded by babitagupta on April 25, 2018 at 6:00pm — 4 Comments
शांत चेहरे पर होती अपनी एक कहानी,
पर दिल के अंदर होते जज्बातों के तूफान,
अंदर ही अंदर बुझे सपनों के पंख उडने को फडफडाते,
पनीली ऑंखों से अनगिनत सपने झांकते
जीवन का हर लम्हा तितर वितर क्यों होता,
जीवन का अर्थ कुछ समझ नहीं आता,
लेकिन इस भाव हीन दुनियां में सोचती,
खुद को साबित करने को उतावली,
पूछती अपने आप से,
सपने तो कई हैं, कौन सा करू पूरा,
आज बहुत से सवाल दिमाग को झकझोरते,
खुद से सवाल कर जवाब…
ContinueAdded by babitagupta on April 23, 2018 at 3:30pm — 5 Comments
"लोकतंत्र ख़तरे में है!
कहां
इस राष्ट्र में
या
उस मुल्क में!
या
उन सभी देशों में
जहां वह किसी तरह है!
या जो कि
कठपुतली बन गया है
तथाकथित विकसितों के मायाजाल में,
तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में! या
ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!
धरातल, स्तंभों से दूर हो कर
खो सा गया है
कहीं आसमान में!
दिवास्वप्नों की आंधियों में,
अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!
"इंसानियत ख़तरे में है!
कहां
इस मुल्क में
या
उस राष्ट्र…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 2:35pm — 14 Comments
क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से'
तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,
तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी,
परिवार की गाडी चलाने वाली तू,
फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू,
क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका,
क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा,
कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता,
तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती,
हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे,
जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की,
या फिर…
ContinueAdded by babitagupta on April 19, 2018 at 8:31pm — 2 Comments
मानव से इतर
तीतर-बीतर
कौए-कबूतर
शेर-चूहे
सपना-परिकल्पना
कछुआ-खरग़ोश
होश-बेहोश
जड़-चेतन, मूर्त-अमूर्त
भूत प्रेत-एलिअन
जिनके
सजीव-निर्जीव पात्र
मानवीय आचरण में
सज्जन-दुर्जन
मानव-संवाद
तंज/कटाक्ष
यथार्थ सी कल्पना
प्रतीकात्मक
बिम्बात्मक
बोधात्मक
सार्थक सर्जना
व्यंजना-रंजना
कल्पना-लोक-भ्रमण
सार्थक
मानवेतर
कथा या हो लघुकथा सृजन!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 28, 2018 at 11:12pm — 9 Comments
बह्र ,2122-2122-2122
फिर मैं बचपन दोहराना चाहता हूँ।।
ता -उमर मैं मुस्कुराना चाहता हूँ ।।
जिसमें पाटी कलम के संग दवाइत।
मैं वो फिर लम्हा पुराना चाहता हूँ ।।
कोयलों की कूह के संग कूह कर के ।
मौसमी इक गीत गाना चाहता हूँ ।।
टाटपट्टी ,चाक डस्टर, और कब्बडी।
दाखिला कक्षा में पाना चाहता हूँ।।
ए बी सी डी, का ख् गा और वर्ण आक्षर।
खिलखिलाकर गुनगुनाना चाहता हूँ ।।
आमोद बिन्दौरी / मौलिक /अप्रकाशित
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 24, 2018 at 11:23am — 5 Comments
क्या फरक पड़ता है ,
कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने
आपको और आपकी
किसी भी बात को नहीं समझा।
आपको , आप जैसे लोगों ने तो
समझा और खूब समझा।
आपकी नैय्या उनसे और
उनकी नैय्या आपसे
पार लग ही रही है ,
आगे भी लग जाएगी ।
- मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on March 23, 2018 at 5:41am — 7 Comments
आखिरी मुलाकात
आखिरी लम्हा
आखिरी मुलाकात का
अथाह प्यास
जमी हुई आवाज़
उबलते अहसास
और दोनों चुप्प !
आतूूर सूरज
पर्दा गिराने को
मंशा थी खेल
और बढ़ाने को
आखिरी दियासलाई
अँधेरा था घुप्प !
सुन्न थे पाँव
कानफोड़ू ताने
दुधिया उदासी पे
लांछन मुस्काने
आ गया सामने
जो रहा छुप्प |
वक्त रुका नहीं
आँसू ढहे नहीं
पत्थर बहा…
ContinueAdded by somesh kumar on March 14, 2018 at 10:33pm — 6 Comments
जिन्दा इक सवाल है ।
सबका एक ख्याल है ।।
कुछ मंदिर को दो ,
कुछ मस्जिद को दो ..
सब को जरूरत है खुशियों की
ईश्वर भी निढाल है
जिन्दा एक सवाल है
रोटी , कपड़ा , मकान
जरुरत है हर इंसान
वो बंगलों में रख दो
वो झोपड़े में रख दो
कंफ्यूशन , है बवाल है
जिन्दा एक सवाल है।
कमरा बना नहीं पाते
की बच्चे सुरक्षित हों !
मंदिर बनेगा..मस्जिद बनेगी
जमीनें आरक्षित हों ???
कौंधता ,…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on March 10, 2018 at 11:05am — 1 Comment
प्रवासी पीड़ा
शहर पराया गाँव भी छूटा
चाँदी के चंद टुकड़ों ने
हमको लूटा-हमको लूटा-हमको लूटा |
भूख खड़ी थी जब चौखट पे
कदम हमारे निकल पड़े थे
मिल गई रोटी शहर में आकर
पर अपनों का अपनेपन का
हो गया टोटा-हो गया टोटा-हो गया टोटा |
माल कमाया सबने देखा
रात जगे को किसने देखा
मेहमां-गाँव से ना उनको रोका
एक कमरे की ना मुश्किल समझी
दिल का हमको
कह दिया छोटा-कह दिया छोटा-कह दिया छोटा…
ContinueAdded by somesh kumar on March 8, 2018 at 6:07pm — 2 Comments
दो जिस्मों के मिलने भर से
दो जिस्मों के मिलने भर से
प्यार मुकर्रर होता तो
टूटे दिल के किस्सों का
दुनियाँ में बाज़ार न होता
सागर की बाँहों में जाने
कितनी नदियाँ खो जाती हैं
एक मिलन के पल की खातिर
सदियाँ तन्हा हो जाती हैं
तस्वीरें जो भर सकती
इस घर के खालीपन को
उसके आने की खुशबू से
दिल इतना गुलज़ार ना होता |
दो जिस्मों के मिलने भर से---
बाँहों में कस लेना…
ContinueAdded by somesh kumar on February 26, 2018 at 12:41pm — 6 Comments
पर मोहब्बत---
वह आदमी जो अभी-अभी
मेरे जिस्म से खेल कर
बेपरवाह उघड़ के सोया है
और जिसके कर्कश खर्राटे
कानों में गर्म शीशे से चुभते है
और जो नींद में भी अक्सर
मेरी छातियों से खेलता है
सिर्फ मेरी बात करता है
मैं उससे नफ़रत तो नहीं करती
पर मोहब्बत ----------------
मेरी तकलीफ़ उसे बर्दाश्त नहीं
एक खाँसी भी उसकी साँस टाँग देती है
मेरे आँसू सलामत रहें इसलिए
वो प्याज काटने लगा…
ContinueAdded by somesh kumar on February 24, 2018 at 10:31pm — 5 Comments
उस औरत की बगल में लेट कर
सोचता हूँ तुम्हारे बारे में अक्सर
रोज जिंदगी का एक पेज भरा जाता है
दिमाग अधूरे पेज़ पर छटपटाता है
सोचता हूँ अगर वह औरत तुम होती
तो कहानी क्या इतनी भर होती !
या तब भी अटका होता किसी अधूरे पन्ने पर
भटक रहा होता पूरी कहानी की तलाश में |
सोचता हूँ इस कहानी के अंत के बारे में
सोचता हूँ उस अनन्त के बारे में
सोचता हूँ प्यार अगर अधूरेपन की तलाश है
तो ये कहानी कभी पूरी ना हो !
कई बार एक…
ContinueAdded by somesh kumar on February 23, 2018 at 9:30am — 4 Comments
आप सही हैं,
वह भी सही है ,
हर एक सही है ,
फिर भी कुछ भी
सही नहीं है।
कुछ गिने चुने
लोग बहुत खुश हैं ,
यह भी सही नहीं है।
सच जो भी है ,
सब जानते हैं ,
बस मानते नहीं ,
यह भी सही नहीं है।
ऊँट सामने है ,
देखते नहीं,
हड़िया में ढूँढ़ते है ,
यह भी सही है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on February 21, 2018 at 8:40am — 13 Comments
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