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All Blog Posts Tagged 'कविता' (987)

'एक फरियाद - माँ की'

ममता का सागर,प्यार का वरदान हैं माँ,

जिसका सब्र और समर्पण होता हैं अनन्त,

सौभाग्य उसका,बेटा-बेटी की जन्मदात्री कहलाना,

माँ बनते ही,सुखद भविष्य का बुनती वो सपना,

इसी 'उधेड़बुन'में,कब बाल पक गये,

लरजते हाथ,झुकी कमर.सहारा तलाशती बूढ़ी…

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Added by babitagupta on May 13, 2018 at 1:00pm — 5 Comments

हास्य, जीवन की एक पूंजी. .....(कविता, अंतर्राष्ट्रीय हास्य दिवस पर)

कुदरत की सबसे बडी नेमत है हंसी, 

ईश्वरीय प्रदत्त वरदान है हंसी, 

मानव में समभाव रखती हैं हंसी, 

जिन्दगी को पूरा स्वाद देती हैं हंसी, 

बिना माल के मालामाल करने वाली पूंजी है हास्य, 

साहित्य के नव रसो में एक रस  होता हैं हास्य,

मायूसी छाई जीवन में जादू सा काम करती हैं हंसी,

तेज भागती दुनियां में मेडिटेशन का काम करती हैं हंसी, 

नीरसता, मायूसी हटा, मन मस्तिष्क को दुरुस्त करती हैं हंसी, 

पलों को यादगार बना, जीने की एक नई दिशा देती हैं…

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Added by babitagupta on May 6, 2018 at 5:30pm — 4 Comments

काल चले ऐसी ही चाल |

एक  एक  कर  काटे   डाली  , ठूंठ खड़ा  मन  करे  विचार |
बीत  गए  दिन   हरियाली  के  ,  निर्जन  बना  पेड़ फलदार |
दिन भर  चहल पहल रहती थी ,  जब  होता था    छायादार | 
पास   नहीं   अब    आये  कोई , सूखा   तब   से  है  लाचार |
भरा  रहा जब  फल फूलों  से ,  लोग  आते तब  सुबह शाम |
कोई  खाये   मीठे  फल को  ,  कोई   पौध   लगा   ले दाम  | 
रंग…
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Added by Shyam Narain Verma on May 4, 2018 at 2:30pm — 8 Comments

कहाँ खो गया??????[कविता]

कच्ची उम्र थी,कच्चा रास्ता,

पर पक्की दोस्ती थी,पक्के हम,

उम्मीदों का,सपनों का कारवां साथ लेकर चलते,

स्वयं पर भरोसा कर,कदम आगे बढाते,

कर्म भूमि हो या जन्म भूमि,हमारी पाठशाला होती,

काल,क्या??किसी व्यतीत क्षणों का पुलिंदा मात्र…

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Added by babitagupta on May 4, 2018 at 1:02pm — 9 Comments

मजदूर- कविता

एक बार फिर कंधे पर,

लैपटॉप बैग लटकाये,

वह अलस्सुब्ह निकल पड़ा.

रात को देर से आने पर,

हमेशा की तरह

नींद पूरी नहीं हुई थी,

जलती हुई आँखों,

और ऐठन से भरे शरीर,

को घसीटता हुआ वह,

जल्दी जल्दी बस स्टॉप की तरफ

भागने की कोशिश कर रहा था.

कल रात की बॉस की डांट,

उसे लाख चाहने के बाद भी,

भुलाते नहीं बन रही थी.

कहाँ सोचा था उसने पढ़ते समय,

कि यह हाल होगा नौकरी में.

कहाँ वह सोचता था कि उसे,

मजदूरी नहीं करनी…

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Added by विनय कुमार on May 1, 2018 at 4:30pm — 2 Comments

मजदूर दिवस [कविता]

चिथड़े कपड़े,टूटी चप्पल,पेट में एक निवाला नहीं,

बीबी-बच्चों की भूख की आग मिटाने की खातिर,

तपती दोपहरी में,तर-वतर पसीने से ,कोल्हू के बैल की तरह जुटता,

खून-पसीने से भूमि सिंचित कर,माटी को स्वर्ण बनाता,

कद काठी उसकी मजबूत,मेहनत उसकी वैसाखी,…

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Added by babitagupta on May 1, 2018 at 1:30pm — 4 Comments

नारी अंतर्मन [कविता]

घर की सुखमयी ,वैभवता की ईटें सवारती,

धरा-सी उदारशील,घर की धुरी,

रिश्तों को सीप में छिपे मोती की तरह सहेजती,

मुट्ठी भर सुख सुविधाओं में ,तिल-तिल कर नष्ट करती,

स्त्री पैदा नही होती,बना दी जाती,

ममतामयी सजीव मूर्ति,कब कठपुतली बन…

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Added by babitagupta on April 25, 2018 at 6:00pm — 4 Comments

शांत चेहरे की अपनी होती एक कहानी............

शांत चेहरे पर होती अपनी एक कहानी, 

पर दिल के अंदर होते जज्बातों के तूफान, 

अंदर ही अंदर बुझे सपनों के पंख उडने को फडफडाते, 

पनीली ऑंखों से अनगिनत सपने झांकते 

जीवन का हर लम्हा तितर वितर क्यों होता, 

जीवन का अर्थ कुछ समझ नहीं आता, 

लेकिन इस भाव हीन दुनियां में सोचती, 

खुद को साबित करने को उतावली, 

पूछती अपने आप से, 

सपने तो कई हैं, कौन सा करू पूरा, 

आज बहुत से सवाल दिमाग को झकझोरते, 

खुद से सवाल कर जवाब…

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Added by babitagupta on April 23, 2018 at 3:30pm — 5 Comments

विचार-मंथन के सागर में (अतुकान्त कविता)

"लोकतंत्र ख़तरे में है!

कहां

इस राष्ट्र में

या

उस मुल्क में!

या

उन सभी देशों में

जहां वह किसी तरह है!

या जो कि

कठपुतली बन गया है

तथाकथित विकसितों के मायाजाल में,

तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में! या

ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!

धरातल, स्तंभों से दूर हो कर

खो सा गया है

कहीं आसमान में!

दिवास्वप्नों की आंधियों में,

अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!



"इंसानियत ख़तरे में है!

कहां

इस मुल्क में

या

उस राष्ट्र…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 2:35pm — 14 Comments

सामाजिक सरोकार

            क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से' 

तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,

तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी, 

परिवार की गाडी चलाने वाली तू, 

फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू, 

क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका, 

क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा, 

कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता, 

तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती, 

हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे, 

जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की, 

या फिर…

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Added by babitagupta on April 19, 2018 at 8:31pm — 2 Comments

मानवेतर कथा/लघुकथा (अतुकान्त कविता)

मानव से इतर
तीतर-बीतर
कौए-कबूतर
शेर-चूहे
सपना-परिकल्पना
कछुआ-खरग़ोश
होश-बेहोश
जड़-चेतन, मूर्त-अमूर्त
भूत प्रेत-एलिअन
जिनके
सजीव-निर्जीव पात्र
मानवीय आचरण में
सज्जन-दुर्जन
मानव-संवाद
तंज/कटाक्ष
यथार्थ सी कल्पना
प्रतीकात्मक
बिम्बात्मक
बोधात्मक
सार्थक सर्जना
व्यंजना-रंजना
कल्पना-लोक-भ्रमण
सार्थक
मानवेतर
कथा या हो लघुकथा सृजन!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 28, 2018 at 11:12pm — 9 Comments

फिर मैं बचपन दोहराना चाहता हूँ

बह्र ,2122-2122-2122

फिर मैं बचपन दोहराना चाहता हूँ।।
ता -उमर मैं मुस्कुराना चाहता हूँ ।।

जिसमें पाटी कलम के संग दवाइत।
मैं वो फिर लम्हा पुराना चाहता हूँ ।।

कोयलों की कूह के संग कूह कर के ।
मौसमी इक गीत गाना चाहता हूँ ।।

टाटपट्टी ,चाक डस्टर, और कब्बडी।
दाखिला कक्षा में पाना चाहता हूँ।।

ए बी सी डी, का ख् गा और वर्ण आक्षर।
खिलखिलाकर गुनगुनाना चाहता हूँ ।।

आमोद बिन्दौरी / मौलिक /अप्रकाशित

Added by amod shrivastav (bindouri) on March 24, 2018 at 11:23am — 5 Comments

कोई फरक नहीं पड़ता — डॉo विजय शंकर

क्या फरक पड़ता है ,
कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने
आपको और आपकी
किसी भी बात को नहीं समझा।
आपको , आप जैसे लोगों ने तो
समझा और खूब समझा।
आपकी नैय्या उनसे और
उनकी नैय्या आपसे
पार लग ही रही है ,
आगे भी लग जाएगी ।

- मौलिक एवं अप्रकाशित
 

Added by Dr. Vijai Shanker on March 23, 2018 at 5:41am — 7 Comments

आखिरी मुलाकात(कविता )

आखिरी मुलाकात

आखिरी लम्हा

आखिरी मुलाकात का

अथाह प्यास

जमी हुई आवाज़

उबलते अहसास

और दोनों चुप्प !

आतूूर सूरज

पर्दा गिराने को

मंशा थी खेल

और बढ़ाने को

आखिरी दियासलाई

अँधेरा था घुप्प !

सुन्न थे पाँव

कानफोड़ू ताने

दुधिया उदासी पे

लांछन मुस्काने

आ गया सामने

 जो रहा छुप्प |

वक्त रुका नहीं

आँसू ढहे नहीं

पत्थर बहा…

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Added by somesh kumar on March 14, 2018 at 10:33pm — 6 Comments

जिन्दा एक सवाल है (कविता )

जिन्दा इक सवाल है ।

सबका एक ख्याल है ।।

कुछ मंदिर को दो ,

कुछ मस्जिद को दो ..

सब को जरूरत है खुशियों की

ईश्वर भी निढाल है

जिन्दा एक सवाल है

रोटी , कपड़ा , मकान

जरुरत है हर इंसान

वो बंगलों में रख दो

वो झोपड़े में रख दो

कंफ्यूशन , है बवाल है

जिन्दा एक सवाल है।

कमरा बना नहीं पाते

की बच्चे सुरक्षित हों !

मंदिर बनेगा..मस्जिद बनेगी

जमीनें आरक्षित हों ???

कौंधता ,…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on March 10, 2018 at 11:05am — 1 Comment

प्रवासी पीड़ा(कविता )

प्रवासी पीड़ा

शहर पराया गाँव भी छूटा

चाँदी के चंद टुकड़ों ने

हमको लूटा-हमको लूटा-हमको लूटा |

भूख खड़ी थी जब चौखट पे

कदम हमारे निकल पड़े थे

मिल गई रोटी शहर में आकर

पर अपनों का अपनेपन का

हो गया टोटा-हो गया टोटा-हो गया टोटा |

माल कमाया सबने देखा

रात जगे को किसने देखा

मेहमां-गाँव से ना उनको रोका

एक कमरे की ना मुश्किल समझी

दिल का हमको 

कह दिया छोटा-कह दिया छोटा-कह दिया छोटा…

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Added by somesh kumar on March 8, 2018 at 6:07pm — 2 Comments

दो जिस्मों के मिलने भर से

दो जिस्मों के मिलने भर से

दो जिस्मों के मिलने भर से

प्यार मुकर्रर होता तो

टूटे दिल के किस्सों का

दुनियाँ में बाज़ार न होता

सागर की बाँहों में जाने

कितनी नदियाँ खो जाती हैं

एक मिलन के पल की खातिर

सदियाँ तन्हा हो जाती हैं

तस्वीरें जो भर सकती

इस घर के खालीपन को

उसके आने की खुशबू से

दिल इतना गुलज़ार ना होता |

 

दो जिस्मों के मिलने भर से---

 

बाँहों में कस लेना…

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Added by somesh kumar on February 26, 2018 at 12:41pm — 6 Comments

पर मोहब्बत

पर मोहब्बत---

वह आदमी जो अभी-अभी

मेरे जिस्म से खेल कर

बेपरवाह उघड़ के सोया है

और जिसके कर्कश खर्राटे

कानों में गर्म शीशे से चुभते है

और जो नींद में भी अक्सर

मेरी छातियों से खेलता है

सिर्फ मेरी बात करता है

मैं उससे नफ़रत तो नहीं करती

पर मोहब्बत ----------------

 

मेरी तकलीफ़ उसे बर्दाश्त नहीं

एक खाँसी भी उसकी साँस टाँग देती है

मेरे आँसू सलामत रहें इसलिए

वो प्याज काटने लगा…

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Added by somesh kumar on February 24, 2018 at 10:31pm — 5 Comments

सोचता हूँ (ख्याल )

उस औरत की बगल में लेट कर

सोचता हूँ तुम्हारे बारे में अक्सर

रोज जिंदगी का एक पेज भरा जाता है

दिमाग अधूरे पेज़ पर छटपटाता है  

सोचता हूँ अगर वह औरत तुम होती

तो कहानी क्या इतनी भर होती !

या तब भी अटका होता किसी अधूरे पन्ने पर

भटक रहा होता पूरी कहानी की तलाश में |

सोचता हूँ इस कहानी के अंत के बारे में

सोचता हूँ उस अनन्त के बारे में

सोचता हूँ प्यार अगर अधूरेपन की तलाश है

तो ये कहानी कभी पूरी ना हो !

कई बार एक…

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Added by somesh kumar on February 23, 2018 at 9:30am — 4 Comments

सब सही पर कुछ भी सही नहीं है - डॉo विजय शंकर

आप सही हैं,
वह भी सही है ,
हर एक सही है ,
फिर भी कुछ भी
सही नहीं है।
कुछ गिने चुने
लोग बहुत खुश हैं ,
यह भी सही नहीं है।
सच जो भी है ,
सब जानते हैं ,
बस मानते नहीं ,
यह भी सही नहीं है।
ऊँट सामने है ,
देखते नहीं,
हड़िया में ढूँढ़ते है ,
यह भी सही है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on February 21, 2018 at 8:40am — 13 Comments

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