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दोहा मुक्तिका: पल पल हो मधुमास... --संजीव 'सलिल'

दोहा मुक्तिका:

पल पल हो मधुमास...

संजीव 'सलिल'

*

आसमान में मेघ ने, फैला रखी कपास.

कहीं-कहीं श्यामल छटा, झलके कहीं उजास..

*

श्याम छटा घन श्याम में, घनश्यामी आभास.

वह नटखट छलिया छिपे, तुरत मिले आ पास..

*

सुमन-सुमन में 'सलिल' को, उसकी मिली सुवास.

जिसे न पाया कभी भी, किंचित कभी उदास..

*

उसकी मृदु मुस्कान से, प्रेरित सफल प्रयास.

कर्म-धर्म का मर्म दे, अधर-अधर को हास.

*

पूछ रहा मन मौन वह, क्यों करता परिहास.

क्यों दे पीड़ा उन्हीं को,…

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Added by sanjiv verma 'salil' on June 6, 2012 at 9:40am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पर्यावरण



कविताओं में बाँचिये , शीतल मंद समीर

शब्दों में ही बह रहा , निर्मल निर्झर नीर

निर्मल निर्झर नीर,हरा वसुधा का आँचल…

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Added by अरुण कुमार निगम on June 6, 2012 at 12:30am — 12 Comments

ये मदिरा है बहुत नशीली बाबाजी

तेज़ हवा और एक ही तीली बाबाजी

फिर भी हमने  बीड़ी पी ली बाबाजी



घर की सादी छोड़ के बाहर मत ढूंढो

रंग-रंगीली, छैल-छबीली बाबाजी…

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Added by Albela Khatri on June 5, 2012 at 8:00pm — 13 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
५-जून ( विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में)

५-जून ( विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में)

****************************************************
पर्यावरणिक तंत्र है, सात सुरों का राग.
भू, अम्बर, जल तत्व सब, अन्तः गर्भित भाग.
****************************************************
भूधर,जलधर, वायुधर,सब की बदली चाल.
जड़ चेतन सब कांपते, हो दूषित बदहाल.
****************************************************
क्षत विक्षत जल 'औ' धरा , बदल…
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Added by Dr.Prachi Singh on June 5, 2012 at 6:30pm — 12 Comments

जब भी जिंदगी को सोचता हूँ

भंगुरता सी प्रतीत हो रही

जब भी जिंदगी को सोचता हूँ

रोज की जद्दोजहद में फंसा मैं

मस्तिष्क पटल को नोचता हूँ

उतार चढ़ाव से उतना नहीं परेशान

लेकिन कुछ छूट रहा सा लग रहा है

डग लम्बे भर रहा लेकिन

मंजिल और दूर सी लग रही है

बहुत हिम्मत करके कभी कभी

आँगन में नए पौधे लगाता हूँ

बिखरे हुए सपनो को सामने करके

नयी दिशा को पग बढ़ाता हूँ

लेकिन परिवार और समाज में बंधा

मुल्ला की…

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Added by AJAY KANT on June 5, 2012 at 5:30pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बदनामियों की गठरी



//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती…

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Added by rajesh kumari on June 5, 2012 at 2:30pm — 14 Comments

२ मुक्तक

''''''''''''''''''''''''''''''''२ मुक्तक '''''''''''''''''''''''''''''''''''



१.

नित बातों से रस बहता है, जैसे तुम मधु हो मधुवन की

मैं देखूं मुख इक टक तेरा ,खिलती सी कली हो उपवन की

ते तन तेरा ये मन तेरा, दूरी मत देना इक पल की

तुम से ही चलती हैं साँसें, इक तुम ही जरुरत…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2012 at 1:44pm — 5 Comments

मै विद्रोह कराऊँगा

आज बनूँगा मै विद्रोही, अब विद्रोह कराऊँगा|

जो सबके ही समझ में आये, ऐसे गीत सुनाऊँगा||

बहुत हो गया अब न रुकूँगा, मै रोके इन चट्टानों के,

बहुत बुझ चुका अब न बुझूँगा मै पड़कर इन तूफानों मे।

कर के हलाहल-पान आज मै होके अमर दिखा दूँगा,

और बुलबुलों को बाजों से लड़ना आज सिखा…

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Added by आशीष यादव on June 5, 2012 at 8:00am — 19 Comments

मुक्तिका: मुस्कुराते रहो... संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
मुस्कुराते रहो...
संजीव 'सलिल'
*
मुस्कुराते रहो, खिलखिलाते रहो
स्वर्ग नित इस धरा पर बसाते रहो..
*
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..  
*
बाग़ से बागियों से न दूरी रहे.
फूल बलिदान के नव खिलाते रहो..
*
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
*
नफरतें दूर कर प्यार के, इश्क के
गीत, गज़लें 'सलिल' गुनगुनाते रहो..
***

Added by sanjiv verma 'salil' on June 5, 2012 at 7:34am — 9 Comments

लोग कह उठें शाबा शाबा बाबाजी

दहशत-वहशत, ख़ूनखराबा  बाबाजी

गुंडई  ने है  अमन को चाबा बाबाजी

 

काम से ज़्यादा संसद में अब होता है

हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा  बाबाजी



मैक्डोनाल्ड में…

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Added by Albela Khatri on June 4, 2012 at 11:30pm — 25 Comments

खुश्बू से तेरी जब कभी मैं रू-ब-रू हुआ

"""गिरधर ओ मेरे श्याम तुमसे कायनात है

ये सब है तेरा ही करम तुमसे हयात है""""



खुश्बू से तेरी जब कभी मैं रू-ब-रू हुआ

दामन-ए-हिरस-ओ-हबस बे आबरू हुआ



किस्से मैं तेरे सुन रहा हूँ एहतिराम से

पाना है तुझे अब मेरी तू जुस्तजू हुआ



रहमत की नज़र हर्फों में कैसे बयाँ करूँ

आँखों को भिगो कर हमेशा बावजू हुआ



जादू सा तेरा ये करम मैं किस तरह कहूँ

ख्वाबों में दिखा जो वही तो हू-ब-हू…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 10:30pm — 6 Comments

दो कुण्डलियाँ......

दो कुण्डलियाँ......
१-डॉलर  के कॉलर!

डॉलर  के कॉलर खड़े,रूपया है कमजोर.

महंगाई की डोर  का,दिखे ओर ना छोर.
दिखे ओर ना  छोर ,पकड़ कर कैसे रोकें.
आम-आदमी यहाँ,खा रहा पल-पल धोखे.
'कहता है अविनाश' ,हाल है बद से बदतर!
कितने होंगे कड़क,और डॉलर के कॉलर?
-----------------------------------------
२-बढे कलंकित कर्म!!!
---------------------------------------------

ऐसे…
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Added by AVINASH S BAGDE on June 4, 2012 at 7:30pm — 10 Comments

तीक्ष्ण और पवित्र बुद्धि

तीक्ष्ण और पवित्र बुद्धि 

तीक्ष्ण बुद्धि है कारगर, संसारी कांवे-दावे* में
क्षीण हो जाती है यह, सांसारिक भटकाव में |…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 4, 2012 at 7:16pm — 7 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हमेशा के लिए...

थम गया है वक़्त ..
जम गए हैं कदम ..
पसरा है सनसनाता सन्नाटा ..
अपना घर आँगन 
जो महकता था 
फूलों की बगिया सा,
गुलमोहर के पेड़ से 
झड़ते थे जहाँ आशीषों के फूल ..
अब है वीरान  खंडहर सा..
नहीं लौट रहे
स्नानकर, वापिस
अपने वीराने आशियाने की ओर
भारी कदम..
आँखों की बदरी में
पिघल रहे हैं गुज़रे लम्हें ,
जो…
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Added by Dr.Prachi Singh on June 4, 2012 at 12:30pm — 23 Comments

माथा सूरज सा दमके, आँखें लगती मधुशाला ||

इन नैनों की खिड़की से, देखा इक योवन आला |

पग पग चल कर आई है , जैसे कोई सुरबाला ||

पुष्पलता सम तन तेरा, मुख चंदा सा उजियाला |

माथा सूरज सा दमके, आँखें लगती मधुशाला ||



निर्झर चाहत का जल हो, तुम हो अमृत सी हाला |

पीकर मन नहिं भरता है, फिर भर लेता हूँ प्याला ||

झूमूं गलियों गलियों में, जपता हूँ तेरी माला |

कोई पागल कहता है , कोई कहता मतवाला ||



सपनों की तुम रानी हो, मन है तेरा सुविशाला…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 12:30pm — 6 Comments

परिवर्तन

अग्नि प्रज्वलित हुई धरा पर

परिवर्तन एक गढ़ने को

चला काफिला जनतंत्री का

अब नव चिंतन करने को

नकली रूपया नकली वस्तु

खेल हो रहा ठगने को

महंगाई है खून चूसती

बढ़ रही पिसाचिन मरने को…

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Added by UMASHANKER MISHRA on June 4, 2012 at 11:30am — 17 Comments

मानव न बन सका मनुज

यह कविता मेरे पापा की लिखी हुई है और मै इसे उनकी सहमती से पोस्ट कर रही हूँ |

मै ही तो एक नही हूं ऐसा,
मुझ से पहले भी लोग बड़े थे :
जिन को तो था संसार बदलना ,
अंधेरों में जो लोग खड़े थे :
उन लोगों में मेरी क्या गिनती ,
मुझ से तो वे सब बहुत बड़े थे :
खा कर भी हत्यारे की गोली ,
गांधी जी कितने मौन पड़े थे :
और अहिंसा हिंसा ने खाई ,
था नफरत ने ही प्यार मिटाया :
प्यार…
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Added by Rekha Joshi on June 4, 2012 at 11:14am — 14 Comments

मेरा अंतर्विरोध

मेरा अंतर्विरोध ,

लिबलिबी उत्तेजित ट्रिगर दबी पिस्तौल है !

जब भी जमने लगता है प्रशस्तर ,

अहसासात की रूमानियत और इंसानियत पर,

तत्क्षण वँही ठोक देता है धांय-धांय,

ढेर कर देता है सारा व्रफुरपन मेरा अंतर्विरोध !

बदन के कुएं में जब भरने लगता है झूठ

सारी काली कमाई गंदे खून की चूस लेता है मेरा अंतर्विरोध !

भर देता है जाकर कान आईने के मेरा अंतर्विरोध ,

फिर घुसकर आईने में तडातड झापट रसीद करता है चेहरे पर ,

जैसे मल्लयुद्ध कोई,यूँ धोबी पछाड़ लगा पटक…

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Added by chandan rai on June 4, 2012 at 10:26am — 18 Comments

हे अभी.

हे अभी.

आपकी बहुत याद आ रही है दिल बार-बार सोच रहा है क्या करूँ .आपके बारे में तरह -तरह के ख्याल दिल में आ रहे है ! सोचता हूँ की येसा कैसे हो सकता है की जो इंसान एक दुसरे के देखे बगैर उसे कभी चैन नहीं पड़ता था,बगैर बाते किये खाने का एक निवाला नहीं लेता था आज ओ इस तरह भूला कैसे दिया ,आखिर उसका दिल भी तो भगवान् ने ही बनाया होगा !

हे अभी.

जो बीत गया ओ कल और जो आज चल रहा है ऐ तो आप अपनी ख़ुशी के खातिर अपनी सुख सुबिधाओ के लिए आप जी रहे हो ! आप ने अपने प्यार और वफा को तो आप अपने पैरो…

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Added by Sanjay Rajendraprasad Yadav on June 4, 2012 at 10:25am — 1 Comment

प्रवंचनाएं

 

सांसे जब तक चलती हैं

तब तक चलता है

सुख- दुःख का एहसास 

मान -अपमान की पीडाएं 

उंच -नीच , जात -पात  का भेद

सम्पन्नता -विपन्नता का आंकलन

नहीं मिलने मिलाने के उलाहने

प्रतियोगिता की अंधी दौड़

एक दुसरे को मिटा डालने का षड़यंत्र

सांसे जब तक टूटती हैं

उस क्षण को

ग्लानी से भरता है मन

और छोड़ देता है तन को

बची रह जाती है

उसकी कुछ यादें

अंततः कुछ भी नहीं बचता शेष

और फिर से शुरू हो…

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Added by MAHIMA SHREE on June 3, 2012 at 9:46pm — 26 Comments

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