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मुझे आजादी चाहिए

(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)



मैं अपने ही घर में कैद हूँ

मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए

रोती बिलखती सर पटकती रही मैं

अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए

जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर

न मेरी राह में कांटे उगाइये   

मैं अपने ही घर में कैद हूँ

मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए

पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं

मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा…

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Added by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on July 20, 2012 at 5:00pm — 5 Comments

पानी था या हवा था

पानी था, या हवा था,

वो किस दिल, की दुआ था,



ठंडा मौसम, कड़ी लू

वो गम था, या दवा था,

 

लगता था, वो खुदा पर,

किस्मत था, या जुआ था,

 

बेवजह…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 20, 2012 at 11:37am — 19 Comments

जिनके सर पर बाल नहीं है बाबाजी

सुर है लेकिन ताल नहीं है बाबाजी

पॉकेट  है पर माल नहीं है बाबाजी



क्योंकर कोई चूमे हमको सावन में

अपने चिकने गाल नहीं है बाबाजी



दर्पण से उनको नफ़रत हो जाती है…

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Added by Albela Khatri on July 20, 2012 at 12:00am — 32 Comments

गीत: साँसों की खिड़की पर... संजीव 'सलिल'

गीत:



साँसों की खिड़की पर...



संजीव 'सलिल'

*

साँसों की खिड़की पर बैठी, अलस्सुबह की किरण सरीखी 
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...
 

सत्य जानकर नहीं मानता, उहापोह में मन जी लेता

अमिय चाहता नहीं मिले तो, खूं के आँसू ही पी लेता..

अलकापुरी न जा पायेगा, मेघदूत यह ज्ञात किन्तु नित-

भेजे पाती अमर प्रेम की, उफ़ न करे लब भी सी लेता..

सुधियों के दर्पण में देखा चाह चदरिया बिछी धुली है...

आसों की…

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Added by sanjiv verma 'salil' on July 19, 2012 at 9:00pm — 8 Comments

उम्मीदों का कोना

लहू से लतपथ,  उम्मीदों का कोना है,

कि मैं घडी भर हूँ जागा, उम्र भर सोना है,



मिला लुटा हर लम्हा, जीवन का तिनका सा,

लबों पे रख कर लफ़्ज़ों को, जी भर रोना है,



छुड़ा के दामन अब वो दोस्त, अपना बदला,

मिला के आँखों का गम, सारा आलम धोना है,…



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Added by अरुन 'अनन्त' on July 19, 2012 at 6:15pm — 10 Comments

कहानी : मठ और गढ़

सौ साल बाद एक पैसे का सिक्का गढ्ढे से बाहर निकला। एक ऊँची इमारत बनाने के लिए खुदाई चल रही थी। एक मजदूर के फावड़े से टकराकर मिट्टी के साथ उछला और जाकर सड़क के किनारे गिरा। वर्षों बाद उसने खुली हवा में साँस ली और अपने आस पास नजर घुमाई तो उसे कई निर्माणाधीन इमारतें दिखाई पड़ीं। थोड़ी देर खुली हवा में साँस लेने के बाद धीरे धीरे उसकी चेतना लौटने लगी। उसे याद आने लगा कि कैसे वो एक सेठ की थैली से निकलकर गढ्ढे में गिर गया था। सेठ ने उसे निकालने की कोशिश की मगर अंत में थक हारकर सेठ ने उसे गढ्ढे में ही…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 19, 2012 at 5:56pm — 18 Comments

रिश्तों में आ गई सिलवट

बातों ने ली ऐसी करवट
रिश्तों में आ गई सिलवट

बदला ज़रा - जरा मैं जब
सूरत से था हटा घूँघट

पानी बहा नदी का तब
बखेरी जे वो सुखा कर लट,

कलेजा निकाल कर लाया,
वो रख गयी जुबां पर हट,

आँचल हवा से उड़ता है,
जीवन न अब रहा है कट

Added by अरुन 'अनन्त' on July 19, 2012 at 5:30pm — 3 Comments

गज़ल - आदमी जो बेतुका है

वो अगर  मुझसे खफा है

हक है उसको क्या बुरा है

 

घोंसले  के साथ  जुडकर

एक  तिनका  जी  रहा है

 

जो अपरिचित  है नदी से

बाढ़   पर  वो  बोलता  है

 

है   यकीं   चारागरी   पर

हो  जहर  तो  भी  दवा है

 

देख  कर  मुँह  फेर लेना

कुछ  पुराना   आशना  है

 

टूट  ही  जाना  है  उसको

सच  दिखाता  आइना  है

 

जी  रहा   तुकबंदियों  को 

आदमी   जो   बेतुका  …

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Added by Arun Sri on July 19, 2012 at 11:55am — 29 Comments

श्रद्धाजलि -

श्रद्धाजलि -

(दीवाना रूप मस्ताना प्यार जिसका )
 
बसर करता रहा जो  जिंदगी-
अपनी अदा से,
लुटाता रहा प्यार जो,
अपनी नजर से,
चाहता रहा प्यार जिसका-…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 19, 2012 at 9:30am — 4 Comments

तीन कह-मुकरियाँ

तीन कह-मुकरियाँ

(एक अभिनव प्रयोग)

 

खुसरो की बेटी कहलाये

भारतेंदु संग रास रचाये

कविजन सारे जिसके प्रहरी

क्या वह कविता? नहिं कह-मुकरी!

 

बांच जिसे जियरा हरषाये

सोलह मात्रा छंद सुहाये

पुलकित नयना बरसे बदरी

क्या चौपाई ? नहिं कह-मुकरी!

 

चैन चुराये दिल को भाये 

चिर-आनंदित जो…

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Added by Er. Ambarish Srivastava on July 19, 2012 at 1:00am — 23 Comments

परमपिता के श्रीचरणों में, महफ़िल सजे तिहारी

हमारे प्यारे काका राजेश खन्ना के देहावसान पर  अलबेला खत्री की शब्दांजलि

छन्न पकैया - छन्न पकैया, कहाँ चले तुम काका

छोड़ के अपना देश आपने रुख ये किया कहाँ का



छन्न पकैया - छन्न पकैया,  मुमताज़ रो पड़ेगी

दो दो हीरो एक साथ गये, दुःखड़ा किसे कहेगी…



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Added by Albela Khatri on July 19, 2012 at 12:40am — 18 Comments

दिल तुझसे ज़रा खफा है

आदरणीय गुरुजनों, मित्रों  आज मैंने ग़ज़ल लिखने का प्रयास ओ.बी.ओ. के द्वारा सिखाये गए नियमों का पालन करते हुए किया. कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें, मैं सदा आभारी रहूँगा.

खास कर पूज्य योगराज जी, की टिपण्णी का इंतज़ार रहेगा.

नाराज हूँ मैं, दिल तुझसे ज़रा खफा है,

मासूम भोली, सूरत ने दिया दगा है



खंज़र ये आँखों का, दिल में उतार डाला  

हमेशा के लिए मुस्किल, जख्म मुझे मिला है,



डर डर के जिंदगी को, जीने से मौत बेहतर,

कैसा ये दर्द दिलबर, सीने में भर…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 18, 2012 at 5:34pm — 12 Comments

कहानी (दुआओं का असर)

कहानी
 
दुआओं का असर…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on July 18, 2012 at 5:06pm — 7 Comments

कविता : दुनिया को कहकर अलविदा,रुखसत हो गये काका.

आज सबकी आँखे नम हुई,गमगीन हुआ ठहाका.
अपने सारे चाहने वालों को देकर जोर का धक्का.
                दुनिया को कहकर अलविदा,रुखसत हो गये काका.
अब नहीं रहे हमारे बिच,हमारे पहले सुपर-स्टार.
पर जीवित रहेगा ह्रदय में, उनका सदा किरदार. 
                 सदा बहार नगमे उनकी याद सदा…
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Added by Noorain Ansari on July 18, 2012 at 4:52pm — 5 Comments

मुझे इश्क हुआ है उसी से, उसी से

जिसे देख के नाचूँ झूमूँ गाऊं ख़ुशी से

मुझे इश्क हुआ है उसी से, उसी से



मेरी रूह वही है, मेरा जिस्म वही है

मेरी आह  वही है, मेरी राह वही है

मेरा रोग वही है, औ दवा भी वही है

मेरा साया पीछे छूटे भला कैसे मुझी से

मुझे इश्क हुआ है उसी से, उसी से



जिसे देख के नाचूँ झूमूँ गाऊं ख़ुशी से

मुझे इश्क हुआ है उसी से, उसी से



मेरी यार वही है , दिलदार भी वही है

वो ही सावन है , औ फुहार भी वही है

वो ही…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 18, 2012 at 1:00pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
फौजी वर्दी

सुगंध सुहानी आयेंगी  इस मोड़ के बाद 

यादें गाँव की लाएंगी  इस मोड़ के बाद 

जिस नीम पे झूला करता था बचपन मेरा 

वही डालियाँ बुलाएंगी इस मोड़ के बाद 

अब तक बसी हैं फसलें जो मेरी नज़रों में

देखो अभी लहरायेंगी इस मोड़ के बाद 

बिछुड़ गई थी दोस्ती जीवन की राहों में 

वो झप्पियाँ बरसाएंगी इस मोड़ के बाद 

नखरों से खाते थे जिन हाथों से निवाले 

वो अंगुलियाँ तरसायेंगी इस मोड़ के बाद 

मचल रही होंगी…

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Added by rajesh kumari on July 18, 2012 at 9:05am — 8 Comments

जो लिक्खेंगे ज़माने से कभी हट कर न लिक्खेंगे....

तुम्हारी हक़ बयानी को कभी डर कर न लिक्खेंगे ...

कि आईने को हरगिज़ हम कभी पत्थर न लिक्खेंगे...



रहे इश्को वफ़ा में ये तो सब होता ही रहता है..

तुम्हारी आज़माइश को कभी ठोकर न लिक्खेंगे....



भरोसा क्या कहीं भी ज़ख्म दे सकता है हस्ती को........

हम अपने दुश्मने जां को कभी दिलबर न लिक्खेंगे.....



तू क़ैदी घर का है, हम तो मुसाफिर दस्तो सहरा के....

कहाँ हम और कहाँ तू हम तुझे हमसर न लिक्खेंगे.....



उड़ानों से हदें होती है कायम हर परिंदे कि…

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Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on July 18, 2012 at 9:00am — 6 Comments

भूखे को तो चंदा में रोटी दीखे;

रोती रोटी  क्यों रो रही ,कर लो बात ,

रोटी रोटी क्यों हो रही ,कर लो बात;'



तरकारी के भाव चले विन्ध्याचल को

तन्हा रोटी यों रो रही ,कर लो बात .



धान ज्वारी मक्का बासमती पेटेंट ;

नयनन जल रोटी ले रो रही कर लो बात.



भूखे को तो चंदा में रोटी दीखे;

चंदा रोटी एक हो रही ? कर लो बात .



रात को खा के सोए सुबह पेट ;

रोटी रोटी देख हो रही कर लो बात .



तीरों तलवारों से न टूटे छल बल से ;

टूटे भूखे पेट वो…

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Added by DEEP ZIRVI on July 17, 2012 at 5:30pm — 1 Comment

माँ की व्यथा (लघुकथा)

एक अलसाई सी सुबह थी, सब काम निबटा कर बस बैठी ही थी मैं मौसम का मिजाज लेने। कुछ अजीब मौसम था आज का, हल्की हल्की बारिश थी जैसे आसमान रो रहा हो हमेशा की तरह आज न जाने क्यो मन खुश नहीं था बारिश को देखकर, तभी मोबाइल की घंटी बजी, दीदी का फोन था ‘माँ नहीं रही’। सुनकर कलेजा मुह को आने को था दिल धक्क, धड़कने रुकने को बेचैन, कभी कभी हम ज़ीने को कितने मजबूर हो जाते है जबकि ज़ीने की सब इच्छाएँ मर जाती है। मेरी माँ मेरी दोस्त मेरी गुरु एक पल में मेरे कितने ही रिश्ते खतम हो गए और मैं ज़िंदा उसके बगैर…

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Added by Vasudha Nigam on July 17, 2012 at 3:30pm — 12 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २४

रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट…

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Added by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 3:08pm — 4 Comments

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