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वर्षा के दो रूप (मदन छंद या रूपमाला पर मेरा पहला प्रयास )

(हर पंक्ति में २४ मात्राएँ ,१४ पर यति अंत में गुरु लघु (पताका) २१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२१   संशोधित मदन छंद )

घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर  डाल|

भीगता आँचल धरा का  ,जिंदगी खुश हाल|   

प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार- 

राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||

 

हैं बरसते घन घुमड़ कर, दामिनी दहलाय|  

चरमराकर वृक्ष गिरते, पत्र फट फट जाय|  

इक परिंदा देख रोए, कित गया  घर  बार- 

गाँव सब डूबे गले तक,   त्राहिमाम पुकार||

     ******

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Comment by Ashok Kumar Raktale on July 25, 2012 at 11:22pm

राजेशकुमारी जी

                   सादर. वर्षा ऋतू पर सुन्दर छंद. बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 25, 2012 at 4:52pm

हार्दिक आभार डा .प्राची 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 25, 2012 at 2:48pm

बहुत खूबसूरत रूपमाला छंद आदरणीया राजेश कुमारी जी... हार्दिक बधाई

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 25, 2012 at 1:39pm

आपका स्वागत है आदरेया राजेश कुमारी जी !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 25, 2012 at 1:27pm

अम्बरीश जी आपके सुझाव सर आँखों पर सच में इन संशोधनों से गेयता निखर गई है 

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 25, 2012 at 1:25pm

भ्रात अरुण जी, यह कुछ भी तो कठिन नहीं! वरन बहुत आसान है ...यदि आप चाहें तो आप भी रूपमाला छंदों पर हाथ आजमा सकते हैं ! सस्नेह

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 25, 2012 at 1:19pm

धन्यवाद आदरेया राजेश कुमारी जी, आपने मेरे सुझाव का मान रखा! अभी भी इन छंदों में कुछ सुधार अपेक्षित है अतः इनमें शिल्प सम्बन्धी सुधार हेतु सुझाव प्रेषित है !

//घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर  डाल

भीगता आँचल धरा का  ,जिंदगी खुश हाल   

बुझ गई प्यास फसलों की ,कृषक के त्यौहार 

मेघ मल्हार सरिता सुन ,झंकृत ह्रदय तार ||//

 

घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर  डाल|

भीगता आँचल धरा का  ,जिंदगी खुश हाल|   

प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार- 

राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||

 

// उमड़ -घुमड़ कर घन बरसे ,दामिनी दहलाय  

चरमराकर गिर गए वृक्ष ,फट गए पत्र पाय 

इक परिंदा देख रोए ,   कित गया  घर  बार 

गाँव सब डूबे गले तक,    त्राहिमाम पुकार  ||//

 

हैं बरसते घन घुमड़ कर, दामिनी दहलाय|  

चरमराकर वृक्ष गिरते, पत्र फट फट जाय|  

इक परिंदा देख रोए, कित गया  घर  बार- 

गाँव सब डूबे गले तक,   त्राहिमाम पुकार||

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 25, 2012 at 12:10pm

हार्दिक आभार अरुण शर्मा  जी छंद सराहने के लिए  

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 25, 2012 at 11:44am

आदरेया मुझे भ्राताश्री अम्बरीश जी की तरह ज्ञान नहीं है, परन्तु मुझे पढ़ कर बहुत अच्छी लगी आपकी रचना. बधाई

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 25, 2012 at 9:22am

आपका हार्दिक स्वागत है ! शुभकामनाएं !

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