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August 2014 Blog Posts (156)

अंधे अंधा ठेलिया (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“अबे ये बकरी किसकी बंधी हुई है यहाँ ?”
“ज़मींदार साब, ये बदरू की बकरी है, खेत में घुस कर नुस्कान कर रई थी तो पकड़ लाये।“
“अच्छा किया, इन सालों को औकात भूल गई है अपनी।“
“सच कहा सरकार, ऊपर से सरकार ने इन लोगों का और भी दिमाग खराब कर रखा है।“
“तो चढायो आज हांडी पर इस ससुरी बकरिया को।“
“मगर सरकार बदरू तो जात का......”
“अबे मूरख आदमी, जात-पात तो इंसानों की होती है जानवरों की नहीं।”

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Ravi Prabhakar on August 6, 2014 at 11:00am — 13 Comments

हाइकु

मेरे शहर का मौसम !

============
बूँद बरखा 
हरियाला मौसम 
सजा के रखा 
****
आँख झपकी 
घनघोर घटायें 
बूँद टपकी 
****
झूमते पत्ते 
नाचते तरुवर 
घनों के छत्ते 
****
रसिक मन 
भीगने को आतुर 
तन -बदन 
========
@अविनाश बागडे 

Added by AVINASH S BAGDE on August 5, 2014 at 3:30pm — 19 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : बदलाव (गणेश जी बागी)

                                निगरानी टीम रघुआ को गिरफ्तार कर अपने साथ ले गई, दरअसल वो सब्जी बाज़ार मे अवैध बिजली वितरण का धंधा स्थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों की मिलीभगत से चला रहा था और प्रतिदिन प्रति बल्ब २० रुपये की वसूली सब्जी दुकानदारों से करता था.



                                लेकिन दूसरे ही दिन वो पुलिस हिरासत से वापस आ गया. कुछ विशेष नही बदला, सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगा, बस…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 5, 2014 at 3:09pm — 24 Comments

बहनो की राखी फौजी भाइयों के नाम

देश की सीमा पर बैठे उन देश के पहरेदारों को ।

बहनो ने राखी भेजी है भारत की आँख के तारों को ।

प्यार भेजतीं हैं तुमको अनमोल पर्व इस पावन का ।

तुम देश की रक्षा करते हो ये धागा रक्षा बंधन का ।

ये डोर रेशमी डोर नही के ताकत है बहन के भाई की ।

जो देश की सेवा हित उठती शोभा है उसी कलाई की ।

जहँ निडर सुरक्षित रह पायें तुमसे वो वतन मांगती हैं ।

इस राखी के बदले बहनें रक्षा का वचन मांगती हैं ।

इस देश की सारी बहनों को हे…

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Added by Neeraj Nishchal on August 5, 2014 at 11:30am — 1 Comment

अतुकांत कविता .....प्रवृत्ति.....

एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,

फिर क्यों लगता है -

-सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?

- सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?

आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ?



प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति !

फिर भी -

प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,

प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता !

थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?



होते हैं…

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Added by savitamishra on August 5, 2014 at 10:01am — 38 Comments

ग़ज़ल

अंधेरों को मिटाने का इरादा हम भी रखते हैं

कि हम जुगनू हैं थोडा सा उजाला हम भी रखते हैं

अगर मौका मिला हमको ज़माने को दिखा देंगे

हवा का रुख बदलने का कलेज़ा हम भी रखते हैं 

हमेशा खामियां ही मत दिखाओ आइना बन कर

सुनो अच्छाइयों का इक खज़ाना हम भी रखते हैं



महकती है फिजायें भी चहक़ते हैं परिंदे भी

कि अपने घर में छोटा सा बगीचा हम भी रखते…

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Added by Ajay Agyat on August 5, 2014 at 7:00am — 11 Comments

उन्मीदों से भी ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मिल गया है

उन्मीदों से भी ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मिल गया है

ख्वाहिशों का मेरी बे-नूर चेहरा खिल गया है

वो दौलतमंद है इक सिक्के की क़ीमत मालूम क्या उसको

कि इक सिक्के में  इस बच्चे का बस्ता सिल गया है

ना चप्पल पाव में न सर पे कोई टोपी भी थी उसके

सुबह इस ठंड में जो बच्चा मज़ूरी को निकल गया है

मुफ़लिसी से नहीं अपनी अमीरी से बहुत लाचार था

वो बदन नंगे जो चौराहे पे , बुत में ढल गया है

वो सवारी बैठाने से पहले ही , किराया बोल देता…

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Added by ajay sharma on August 4, 2014 at 10:30pm — 7 Comments

कठपुतली (प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा)

रंग बिरंगी पुतलियाँ, नयनन रही लुभाय

चित्त्तेरे भगवान् की, देखो महिमा गाय



पुतलियाँ निष्काम सदा, प्रेम से सराबोर

मानव फिर क्यों बन गया, कपटी लम्पट चोर



कठपुतलियाँ प्राण रहित, मानव में है जान

इनको नचाता मानव, मानव को भगवान



निरख निरख ये पुतलियाँ, मन है भाव विहोर

हाथों मेरे डोर है , मेरी प्रभु की ओर



रंग बिरंगी पुतलियाँ, मन को खूब लुभाय

नशा विहीन समाज हो , नाच नाच कह जाय



कठपुतले बन तो गये, पाकर तेरा रंग …

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 4, 2014 at 4:00pm — 10 Comments

वो शख़्स मुनाफिक़ लगता है...

दुश्मन से मिलकर रहता है,

बस मीठी बातें करता है,

वो शख़्स मुनाफिक़* लगता है।



माने तो दिलजोई करना,

रूठे तो मनमानी करना,

है लाज़िम झगड़ा भी करना।



मन में जो आये कह देना,

दिल में पर मैल नहीं रखना,

ये ही मोमिन# का है गहना।



छल, पाप, कपट, मक्कारी है,

माना हर सू बदकारी है,

पर नेकी सब से भारी…

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Added by इमरान खान on August 4, 2014 at 2:04pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी - - कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या

कभी  झेली  भी है शर्मिन्दगी क्या

***************************

 1222      1222       122

कभी खुद से शिकायत भी हुई क्या

कभी  झेली  भी है शर्मिन्दगी क्या

 

बहुत  बाहोश खोजे , मिल न पाये

मिला  देगी  हमें अब  बेखुदी क्या

 

ये क़िस्सा,  दर्द- आँसू  से बना है

समझ  लेगी  इसे आवारगी  क्या

 

अगर सीने में सादा दिल है ज़िन्दा

बनावट  बाहरी क्या, सादगी  क्या

 

ख़ुदा…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 1:30pm — 30 Comments

चोका

मेघ निबह

श्याम श्वेत निर्मोही

भ्रम फैलाये

उड़ती घटा छाये

सूर्य आछन्न

दुविधा में फंसाए

काम बढाए

अकस्मात बरखा

बाहर डाले

कपड़े निकालते

फिर डालते

गृहलक्ष्मी दुचित्ता

क्रोध बढ़ाए

उलझौआ पयोद

वक्त कीमती

दुरुपयोग होता

वक्त भागता

सुना था कभी कही

खुद पे बीती

खीझ दुघडिया पे

भुनभुनाती

काम है निपटाने

प्रावृट् बदरा

तुझे सूझे नौटंकी

घुंघट ओढ़

हुई तू तो बावरी|

तंग गृहणी

मेघ निरंग निस्तारा

भ्रान्ति…

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Added by savitamishra on August 4, 2014 at 12:21pm — 19 Comments

ताव नित देते रहे..

ताव नित देते रहे..

ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।

आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।

कालिदासों को वही विद्योत्मा कैसे मिले,

पंडितों के ज्ञान को वो दॉंव नित देते रहे।

शब्द मुखरित सोच कुंठित कर्म कौरव का वरे,

धर्म के उत्कर्ष में बस ताव नित देते रहे।

चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,

वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।

शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,

मन-विषय-विष वासना…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2014 at 8:20am — 6 Comments

नज़रिया

बड़ा ख़राब जमाना आ गया है , अब घर में विधर्मी नौकर रख लिया है , कौन खायेगा , पियेगा उसके घर । राधा ऊँचे स्वर में अपने पड़ोसन को बता रही थी ।

" अरे हमसे कहा होता , हमने दिला दिया होता नौकर , कोई कमी है इनकी " । पड़ोसन ने भी हाँ में हाँ मिलायी ।

शाम को बेटी से बात करते हुई राधा ने पूछा " अरे कोई काम वाली मिली की नहीं " ।

" हाँ माँ , मिल गयी है , बहुत सफाई से काम करती है फातिमा " ।

" देखना बेटा , संभाल के रखना , आज कल टिकते नहीं ये लोग , समझी "

मौलिक एवम…

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Added by विनय कुमार on August 4, 2014 at 2:30am — 16 Comments

जिन्‍दगी से प्‍यार

कभी तो प्‍यार हमको वो किया होता

वफा के नाम पे धोखा दिया होता

तड़पती रूह को भी चैन आ जाता

कफ़न उसने हमारा गर सिया होता

शिकायत जिन्‍दगी से हम नहीं करते

दवा बन दर्द वो मेरा लिया होता

न मैखाने कभी जाते भुलाने गम

हमारे अश्‍क उसने गर पिया होता

हमें तो जिन्‍दगी से प्‍यार हो जाता

अगर वो साथ दो पल बस जिया होता

मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी

Added by Akhand Gahmari on August 4, 2014 at 12:16am — 6 Comments

दोहे-रमेश चौहान

काम काम दिन रात है, पैसे की दरकार ।

और और की चाह में, हुये सोच बीमार ।।



रूपया ईश्वर है नही, पर सब टेके माथ ।

जीवन समझे धन्य हम, इनको पाकर साथ ।।



मंदिर मस्जिद देव से, करते हम फरियाद ।

अल्ला मेरे जेब भर, पसरा भौतिक वाद ।।



निर्धनता अभिशाप है, निश्चित समझे आप ।

कोष बड़ा संतोष है, मत कर तू संताप ।।



धरे हाथ पर हाथ तू, सपना मत तो देख ।

करो जगत में काम तुम, मिटे हाथ की रेख ।।



बात नही यह दोहरी,  है यही गूढ ज्ञान ।

धन…

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Added by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 10:00pm — 7 Comments

दर्द कुछ और नहीं --डा० विजय शंकर

पूछा किसी ने मुझसे

दर्द क्या है ,

कैसा है ये , इसका

एहसास कैसा है .



दर्द कुछ और नहीं

सिर्फ एक नाम तुम्हारा है

दर्द कुछ और नहीं

सिर्फ एहसास तुम्हारा है .



दर्द टूटने का नहीं है,

दर्द बिखर जाने का है

दर्द कुछ खोने का नहीं है ,

खुद के खो जाने का है .



दर्द उसे खोनेका नहीं

जो अपना था, खो गया .

बल्कि उसके खोने का है ,

जो अपना कभी था ही नहीं .



यूँ तो कुछ था नहीं

जो वो ले गया

एक उम्मीद… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2014 at 7:46pm — 10 Comments

त्रिभंगी छंद

ये रिमझिम सावन, अति मन भावन, करते पावन, रज कण को ।
हर मन को हरती, अपनी धरती, प्रमुदित करती, जन जन को ।
है कलकल करती, नदियां बहती, झर झर झरते, अब झरने ।
सब ताल तलैया, डूबे भैया, लोग लगे हैं, अब डरने ।।
-----------------------------------------------------------

मौलिक अप्रकाशित

Added by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 6:30pm — 10 Comments

मनन ...

डरी, सहमी सी लगती है

अंदर जो आवाज है

जिसे अन्तरात्मा कहते हैं

वो चुप है

इस निःशब्द वातावरण मे

वह चीख बनके

निकलेंगे कब ?

जिंदगी, आखिर ....

शुरू होगी कब ?

खुले मन से हँसी

आएगी कब ?

कब खिलखिलाकर

सच सच कहूँ तो

दाँत निपोर कर

आखिर हँसेंगे कब ?

बरसों से इस जाल मे बंधी

उसी राह पर चलते – चलते

आखिर हम बदलेंगे कब ?

थोड़ी आस,

थोड़ा विश्वास

धीरे धीरे पिघलता…

Continue

Added by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:30pm — 7 Comments

दोहा // प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //

बीच बाजारे हम खड़े , पाप पुण्य ले साथ

पुण्य डगर मैं बढ़ चलूँ , छोड़यो न प्रभु हाथ



पांडव बलहीन सदा, साथ न हो जब भीम

घर सूना कन्या बिना, अंगना बिना नीम



अंगना में लगाइये, तुलसी पौधा नीम

रोग रहित जीवन सदा, राखत दूर हकीम



व्यसन बुरे सब होत हैं, जानत हैं सब कोय

दूर रहें इनसे सदा , जीवन मंगल होय



दुर्दिन कछु दिन ही भले , मिलता जीवन ज्ञान

मित्र शत्रु और नारी की, हो जाती पहचान



बंधन ऐसा हो प्रभू , टूटे न कभी डोर…

Continue

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 3, 2014 at 5:00pm — 10 Comments

वही साखी पुरानी है...

गजल -  वही साखी पुरानी है...

1222, 1222, 1222, 1222

वही काठी, वही जज्बा, वही लाठी पुरानी है।

हसीं बुत मिल गया जिसमें वही मिट्टी पुरानी है।

अॅंधेरों को मिटाकर रोशनी के साथ जलता जो,

वही सूरज, वही चन्दा, वही भट्टी पुरानी है।

जगा कर देश को जिसने बढाया मान-मर्यादा,

वही पत्रक, वही पोथी, वही रद्दी पुरानी है।

दिला कर मंजिले पर्वत शिखर का कद किया बौना,

वही धागा कलाई का वही रस्सी पुरानी है।

जला कर दीप…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 3, 2014 at 2:14pm — 12 Comments

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