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June 2016 Blog Posts (172)

शॉर्ट कट्स से भूल-भुलैया तक (लघुकथा)

आज मौक़ा पाते ही बाबूजी ने अपने बेटे को समझाते हुए कहा- "देखो छोटे, या तो तुम्हारी पत्नी और तुम हमारी परम्परा के अनुसार चलो, या फिर अपने रहने की कोई और व्यवस्था कर लो!"

"क्यों बाबूजी, आपको हमसे क्या परेशानी होने लगी है?" छोटे ने हैरान हो कर पूछा।

"बेटे, परेशानी मुझे उतनी नहीं, जितनी बड़े को और उसके परिवार को है! उसे बिलकुल पसंद नहीं है घर पर भी फूहड़ पहनावा, बाज़ार का जंक और फास्ट फूड वग़ैरह और तुम्हारी पत्नी की बोलचाल! बच्चों से भी बात-बात पर 'यार' कहना, तू और तेरी कहकर बात करना!…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 9, 2016 at 4:00pm — 16 Comments

कविता - " तेरा-मेरा "

)

जन्नत से आगे इक जहान तेरा…

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Added by M Vijish kumar on June 9, 2016 at 10:30am — 6 Comments

वक्तव्य ... काव्य-यात्रा और जीवन-यात्रा में समन्वय

दर्द मेरी कविता में नहीं है ... दर्द मेरी कविता है।

दर्द के भाव में बहाव है, केवल बहाव, .. कोई तट नहीं है, कोई हाशिया नहीं है जो उसकी रुकावट बने।

 

पत्तों से बारिश की बूँदों को टपकते देख यह आलेख कुछ वैसे ही अचानक जन्मा जैसे मेरी प्रत्येक कविता का जन्म अचानक हुआ है। कोई खयाल, कोई भाव, कोई दर्द दिल को दहला देता है, और भीतर कहीं गहरे में कविता की पंक्तियाँ उतर आती हैं।

 

दर्द एक नहीं होता, और प्राय: अकेला नहीं आता। समय-असमय हम नए, “और” नए, दर्द झोली…

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Added by vijay nikore on June 9, 2016 at 9:49am — 3 Comments


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दोहा- ग़ज़ल (जिसकी जितनी चाह है, वो उतना गमगीन (गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22   22

बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन

जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन

फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन

खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन

क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात

कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन   

सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ

जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन

 

बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर

मगर विभीषण देश के , करें और…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 9, 2016 at 7:30am — 40 Comments

ना साथ ना विकास

सड़क के मुख्य मार्ग से २१ कि.मी. कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाती जीप चली जा रही थी।  जीप में पीछे बैठे कर्मचारी ने मुझसे कहा साहब २ कि.मी. बाद सुनारिया गांव है, वहाँ का एक किसान पिछले ६-७ साल से  नहीं मिल रहा है, जब देखो, तब झोपड़ी बंद मिलती है, आज मिल जाये, तो उसे निपटाना है,बहुत पुराना कर्ज बाकी है,मैंने कहा कितना बाकी है ? वो बोला  बाकी तो ५००० है, पर ७-८ साल का बाकी है। 

तभी जीप सुनारिया पहुँच गई , दो-तीन कर्मचारी तेजी से उतरे और झोपड़ी की तरफ लपके पर झोपड़ी बंद थी , दरवाजे…

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Added by Rajendra kumar dubey on June 8, 2016 at 8:00pm — 3 Comments

सवैया ......करुणाकर

(१) दुर्मिल सवैया  ....करुणाकर राम

करुणाकर राम प्रणाम तुम्हें, तुम दिव्य प्रभाकर के अरूणा.

अरुणाचल प्रज्ञ विदेह गुणी, शिव विष्णु सुरेश तुम्हीं वरुणा.

वरुणा क्षर - अक्षर प्राण लिये, चुनती शुभ कुम्भ अमी तरुणा.

तरुणा नद सिंधु मही दुखिया, प्रभु राम कृपालु करो करुणा.

(२) किरीट सवैया  ...अनुप्राणित वृक्ष

कल्प अकल्प विकल्प कहे तरु, पल्लव एक विशेष सहायक.

तुष्ट करें वन-बाग नमी -जल  विंदु समस्त विशेष…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 8, 2016 at 8:00pm — 8 Comments

दुरुपयोग

"हेलो,बहना क्या हाल है,ससुराल में सब ठीक है ना "

"क्या ठीक है भैया "

"अरे क्या हो गया,किसी नें कुछ कहा क्या ?

"अभी 2 सप्ताह ही हुए हैं आये और सभी खाना बनाने को कह रहे हैं "

"अच्छा,किसकी इतनी हिम्मत है,जो तुमसे खाना बनवायेगा "

"अरे,ये जो बुड्डी है ना वही,आप तो जानते हो भैया मुझे खाना बनाना......"

"रो,मत पगली,तू चिंता ना कर,ज्यादा बोलेंगे तो....तू जानती है ना "

"क्या भैया मैं समझी नही "

"अरे तू टेंशन ना ले,तेरा ये वकील भाई कब काम आयेगा .ज्यादा जुबान चलेगी… Continue

Added by maharshi tripathi on June 8, 2016 at 2:06pm — 9 Comments

सो रहे हैं सब- ग़ज़ल

2122 2122 2122 2

झाँक कर देखा दिलों में, सो रहे हैं सब।

एक जर्जर आत्मा ही ढ़ो, रहे हैं सब।।



कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।

किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।



शीर्ष पर जो लोग लगता, पा गये सब कुछ।

जाके देखा पाया खुद को, खो रहे हैं सब।।



लग रहा था लोग मन्ज़िल, के सफर पर हैं।

हूँ चकित की दूर खुद से, हो रहे हैं सब।।



बंग्ले गाड़ी सुख के साधन, था गलत ये "मत"

आँधियाँ कह कर गयीं, दुख बो रहे हैं… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 8, 2016 at 11:30am — 14 Comments

कुछ बातें - ( क्षणिकाएँ) -डॉo विजय शंकर

क्यों कोई आया है ,

जान लेते हो ,

चेहरा पढ़ लेते हो ,

अनकहा , सुन लेते हो ,

आंसू जो बहे ही नहीं ,

देख - सुन लेते हो।

********************

सपने उन्हें दिखाते हो ,

पूरे अपने करते हो।

********************

अपनी सब जरूरतें जानते हो ,

गरीब की रोटी भी जानते हो।

********************

जान कहाँ बसती है , जानते हो ,

उनकीं भी जान है , जानते हो।

********************

सरकार में हो ,

पर सरकार से ऊपर हो।…

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Added by Dr. Vijai Shanker on June 8, 2016 at 11:30am — 7 Comments


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ग़ज़ल - चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है - गिरिराज भंडारी

22 22  22  22  22  2

तुम केवल परिभाषा जानो ,अच्छा है

और अमल सब हमसे चाहो, अच्छा है

 

देव सभी हो जायें तो , मुश्किल होगी

पाठ लुटेरों का भी रक्खो , अच्छा है

 

पत्थर जब जग जाते हैं, श्री चरणों से

इंसा छोड़ो , उन्हें जगाओ, अच्छा है

 

समदर्शी होता है ऊपर वाला, पर

छोड़ो भी , तुम काटो- छाँटो, अच्छा है

 

सूरज ,चाँद, सितारे, दुनिया को छोड़ो

चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है

 

धड़ सारा कालिख में है…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 8, 2016 at 8:00am — 24 Comments

तने- तने मिले घने......

कलाधर छंद  .........तने- तने मिले घने

 

वृक्ष की पुकार आज,  सांस में रुंधी रही कि,  वायु धूप क्रूर रेत,  चींखती सिवान में.

मर्म सूख के उड़ी,  गुमान मेघ में भरा कि,  बूंद-बूंद ब्रह्म शक्ति,  त्यागती सिवान में.

डूबती गयी नसीब,  बीज़ कोख में लिये,  स्वभाव प्रेम छांव भाव,  रोपती सिवान में.

कोंपलें खिली जवां,  तने- तने मिले घने,  हसीन वादियां बहार,  झूमती सिवान में.

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार....केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 7, 2016 at 6:30pm — 10 Comments

दोस्ती का हक़ ( लघु- कथा ) -- डॉo विजय शंकर

रवि का फोन था , देखते ही उस में उत्साह सा आ गया , औपचारिक अभिवादन के बाद धन्यवाद देते हुए बोला , " हाँ , और थैंक्स , तूने बहुत ही अच्छी टिप्पणी लिखी मेरे लेख पर , वर्ना अधिकतर तो लोग बस खींच - तान में ही लगे रहते हैं , तुझे वाकई में मेरे तर्क सही लगे ? "

" ओह ! वो पिछले हफ्ते वाला , वो यार , मैंने पूरा पढ़ा तो नहीं था , पर अब तेरा नाम देखा तो इतना तो लिखना ही था , आखिर दोस्ती का कुछ तो हक़ होता ही है न ?"

जितने उत्साह से उसने फोन उठाया था वो धीरे धीरे ठंडा होकर एक गहरी निराशा में… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on June 7, 2016 at 10:47am — 18 Comments


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फूल जंगल में खिले किन के लिए (तरही ग़ज़ल 'राज ')

२१२२  २१२२  २१२

ढाल बन अकड़ा रहा जिनके लिए

जगमगाये दीप कुछ दिन के लिए

 

घोंसला भी साथ उनके उड़ गया

रह गया वो हाथ में तिनके लिए

 

फूल को तो ले गई पछुआ  हवा  

रह गई बस डाल मालिन के लिए

 

फूल चुनकर बांटता उनको रहा

खुद कि खातिर ख़ार गिन गिन के लिए

 

क्या मिला उसको बता ऐ जिन्दगी

सोचकर उनके लिए इनके लिए

 

अपने आंगन में खिले अपने नहीं

फूल जंगल में खिले किन के…

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Added by rajesh kumari on June 7, 2016 at 10:47am — 14 Comments

देश में रहकर मुहब्बत देश से करते चलो!

देश में रहकर मुहब्बत, देश से करते चलो!

देश आगे बढ़ रहा है, तुम भी डग भरते चलो.

.

देश जो कि दब चुका था, आज सर ऊंचा हुआ है,

देश के निर्धन के घर में, गैस का चूल्हा जला है

उज्ज्वला की योजना से, स्वच्छ घर करते चलो.

देश में रहकर............

.

देश भारत का तिरंगा, हर तरफ लहरा रहा,

ऊंची ऊंची चोटियों पर, शान से फहरा रहा,

युगल हाथों से पकड़ अब, कर नमन बढ़ते चलो.

देश में रहकर............

.

देश मेरा हर तरफ से, शांत व आबाद…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on June 7, 2016 at 8:30am — 18 Comments

उनका रोज़ा, उनकी ई़द (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"क्या कर रहा है बे, सब खा-पी रहे हैं और तू अपने स्मार्ट फोन में भिड़ा हुआ है!" थ्री-स्टार होटल में चल रही ज़बरदस्त पार्टी में दोस्तों के बीच बैठे दीपक ने असलम से कहा।

"माह-ए-रमज़ान का चाँद दिख गया है, मुबारकबाद के ढेरों संदेशों के जवाब दे रहा हूँ!" - असलम ने सोशल साइट्स पर अपना संदेश सम्प्रेषित करते हुए कहा और कोल्ड-ड्रिंक पीने लगा। आज वह दोस्तों से लगाई शर्त हार गया था, सो इतनी महँगी पार्टी देनी पड़ी थी।

"यार, ये तो बता कि तू भी सचमुच कल से रोज़े रखेगा, कैसे रह लेता है भूखे-प्यासे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 7, 2016 at 1:00am — 15 Comments

क्या पता था इश्क़ मे ये हादसा हो जाएगा

क्या पता था इश्क़ मे ये हादसा हो जाएगा

वो वफ़ा की बात करके बेवफ़ा हो जाएगा

 

रास्ता पुरख़ार है या मौसमे गुल से भरा

जब भी निकलोगे सफ़र में सब पता हो जाएगा

 

रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी भी बेवफ़ा हो जाएगी

रफ़्ता रफ़्ता इस जहां में सब फ़ना हो जाएगा

 

धड़कनें पूछेंगी ख़ुद से बेक़रारी का सबब

दो दिलों के दरमियाँ जब फ़ासला हो जाएगा

 

कौन किसका साथ देता है यहाँ पे उम्र भर

शाम तक तेरा ये साया भी जुदा हो जाएगा

 

अपने…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 6, 2016 at 11:56pm — 14 Comments

शाइरी माँगती है ख़ून-ए-जिगर (ग़ज़ल)

2122 1212 22



आसमाँ हम भी छू ही लेते,मगर

काट डाले गए हमारे पर



हमको काँटों की राह प्यारी है

आप ही कीजे रास्तों पे सफ़र



अपनी आँखों में जुगनू बसते हैं

हम पे होगा न तीरगी का असर



हम तो रहते हैं आप के दिल में

खुद का अपना नहीं है कोई घर



इस क़दर खो गया है होश-ओ-हवास

आजकल है न हमको अपनी ख़बर



मर्ज़ पहुँचा है उस मुक़ाम पे अब

हो गया खुद बिमार चाराग़र



नक़्श उसका बसा लिया दिल में

कौन मंदिर को जाए… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on June 6, 2016 at 9:32pm — 12 Comments

मुर्दों के सम्प्रदाय (लघुकथा)

"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया|
पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं|"
"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी|
"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..."…
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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 6, 2016 at 9:30pm — 17 Comments

अनपढ़ और अनिपुण (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"तुम लोगों की बातचीत सुन रहा था। बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हो, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो!" आलोक नेे गृह-निर्माण कार्य में लगे कारीगरों से कहा।

"नहीं साहब, हम तो अंगूठा छाप हैं!" बड़े कारीगर ने ईंट के ऊपर सीमेंट-गारा डालकर उस पर दूसरी ईंट जमाते हुए कहा।

"तो फिर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेते हो?"

"हम पढ़-लिख नहीं पाये, तो टीवी देखकर पढ़े-लिखों की भाषा ध्यान से सुनकर सीखते हैं, आप लोगों की बातें सुनकर भी कुछ सीख लेते हैं!" कारीगर ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा।

"लेकिन तुम लोग तो…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 6, 2016 at 4:30pm — 9 Comments

अपना मकां बना जाता है ....

अपना मकां बना जाता है ....

कितना अजीब होता है

उससे अपनापन निभाना

जो न होकर भी

सबा की मानिंद

करीब होता है

ये दिल

अपने रूहानी अहसास को

बड़ी निर्भीकता से

उस अदृश्य देह को कह देता है

जिसे देह की उपस्थिति में

व्यक्त करने में

इक उम्र भी कम होती है

हम उसे कह भी लेते हैं

और उसकी

अदैहिक अभिव्यक्ति को

बंद किताबों में

सूखते गुलाबों की

गंध की तरह

पढ़ भी लेते हैं

वो न…

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Added by Sushil Sarna on June 6, 2016 at 1:09pm — 2 Comments

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