"तुम लोगों की बातचीत सुन रहा था। बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हो, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो!" आलोक नेे गृह-निर्माण कार्य में लगे कारीगरों से कहा।
"नहीं साहब, हम तो अंगूठा छाप हैं!" बड़े कारीगर ने ईंट के ऊपर सीमेंट-गारा डालकर उस पर दूसरी ईंट जमाते हुए कहा।
"तो फिर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेते हो?"
"हम पढ़-लिख नहीं पाये, तो टीवी देखकर पढ़े-लिखों की भाषा ध्यान से सुनकर सीखते हैं, आप लोगों की बातें सुनकर भी कुछ सीख लेते हैं!" कारीगर ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा।
"लेकिन तुम लोग तो इतने बढ़िया कारीगर भी हो, सुंदर भवन निर्माण कर लेते हो!" आलोक ने नई शैली में बनी दीवार की ओर देखते हुए कहा।
"साहब, हम 'अनपढ़' हैं, मगर 'अनिपुण' नहीं! विरासत में मिले अपने काम में 'निपुण' हैं!"
यह सुनकर आलोक फिर अपने करियर के अंधकार में खो सा गया। डिग्रियां हासिल कर लीं, लेकिन नौकरी हेतु किसी भी साक्षात्कार में सफल नहीं हुआ; न पिता का कारोबार संभाल सका, न ही कोई नौकरी हासिल कर पाया। वह पढ़ा-लिखा अनिपुण था, अनपढ़ नहीं!
 
 [मौलिक व अप्रकाशित]
Comment
बहुत सुन्दर ! ज़मीनी वास्तविकता और केवल डिगरी पा कर तथाकथित पढे लिखों की वास्तविक स्थिति को खूब शब्द मिले हैं ! हार्दिक बधाइयाँ ।
सच कहा आपने पढेलिखे बेरोजगार बहुत हैं बहुत अच्छी प्रेरणास्पद लघु कथा हुई हार्दिक बधाई आ० उस्मानी जी
सच कहा आपने पढेलिखे बेरोजगार बहुत हैं बहुत अच्छी प्रेरणास्पद लघु कथा हुई हार्दिक बधाई आ० उस्मानी जी
हमारी शिक्षा व्यवस्था की ये बड़ी पुरानी कमज़ोर नस है जिसके चलते बेरोजगारों की भीड़ बढती ही जा रही है ,कथा का विषय समसामयिक और सार्थक है शिल्प कसा हुआ है , हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको इस रचना पर आदरणीय उस्मानी जी
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