तुम पास नहीं हो तो दिल मेरा बहुत उदास है !
हर पल दिल में तेरा ही अहसास है !
जिधर देखूं बस तुम ही तुम नज़र आते हो !
और पलक झपकते ही ओझल हो जाते हो !
दिल की धड़कन से तेरी आवाज़ आती है !
मेरी हर सांस से तेरी आवाज़ आती है !
न जाने क्या हो गया है मुझे !
मैं बात करती हूँ , आवाज़ तेरी आती है !
जबसे तुमसे मिले हैं हम खुद से पराये हो गए हैं !
तेरी ही यादों में कुछ ऐसे दीवाने हो गए हैं !
सबके बीच रहते हुए भी तनहा हो गए हैं…
ContinueAdded by Parveen Malik on February 7, 2013 at 1:00pm — 7 Comments
तू तू मैं मैं
पति पत्नीं में होता प्यार वेसुमार
प्यार ही प्यार में होती तकरार
तकरार से संबंधों में आता निखार
तकरार से धुल जाता दिल का गुबार
प्राय: पति सदैव रहता खामोश
बस यदा कदा ही जताता आक्रोश
आपके कारण जिन्दगी मेरी नाश हो गई
हर बक्त तुम चुभने वाली फाँस हो गई
पल पल जलाती हो तुम मेरा खून
नहीं रहा जीवन में चैनोंसुकून
खुशहाल जिन्दगी उदास…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on February 7, 2013 at 1:00pm — 8 Comments
122, 122 22 (ग़ज़ल)
जमाया हथौड़ा रब्बा
कहीं का न छोड़ा रब्बा
बना काँच का था नाज़ुक
मुकद्दर का घोड़ा रब्बा
हवा में उड़ाया उसने
जतन से था जोड़ा रब्बा
तबाही का आलम उसने
मेरी और मोड़ा रब्बा
बेरह्मी से दिल को यूँ
कई बार तोड़ा रब्बा
रगों से लहू को मेरे
बराबर निचोड़ा रब्बा
चली थी कहाँ मैं देखो
कहाँ ला के छोड़ा रब्बा
मुकद्दर पे ताना कैसे
कसे मन निगोड़ा रब्बा
लगे ए …
ContinueAdded by rajesh kumari on February 7, 2013 at 10:00am — 27 Comments
आलीशान वाहन में देखा ,
बैठा था एक सुन्दर पिल्ला !
खाने को इधर रोटी नहीं ,
गटक रहा था वह रसगुल्ला !
इर्ष्या हुयी पिल्ले से ,
क्रोध आ रहा रह-रह कर !
मै भूख से मर रहा ,
यह खा रहा पेट भरकर !
देख रहा ऐसी नज़रों से,
मानों समझ रहा भिखारी
सोचने पर मजबूर था ,
इतनी दयनीय दशा हमारी!
आदमी मरेगा भूख से ,
पिल्ला रसगुल्ला खायेगा !
किसी ने सच ही कहा है ,
ऐसा कलयुग आयेगा!
राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on February 6, 2013 at 8:30pm — 1 Comment
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 6, 2013 at 5:30pm — 20 Comments
गीत :
आशियाना ...
संजीव 'सलिल'
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on February 6, 2013 at 5:00pm — 8 Comments
(My First Poetry on OBO )
शून्य में मैं ढूँढ रहा हूँ
अपने जीवन के सारांश
बिखरी बिखरी यादों के पल रीते रीते बिन रहा हूँ
बीती बातें बीती यादें
बीते सपने बीती राहें
हर बीते दिन की अकुलाहट थामे
शून्य में मैं ढूँढ रहा हूँ
अपने जीवन के सारांश
बिखरी बिखरी यादों के पल
रीते रीते बिन रहा हूँ
आँखो मे फैला अंधियारा
नवचेतन का मार्ग नही
तुमसे ही मेरा जीवन था
तुमसे परे कोई मार्ग नही
तुमको मुझमे ढूँढ रहा…
ContinueAdded by Nitish Kumar Pandey on February 6, 2013 at 4:00pm — 8 Comments
*मध्यमेधा का
एक चम्मच सूरज उठाए
कर्मनाशा आहूतियों को
जब भी मढ़ना चाहा
राग हिंडोल के वर्क से
अतिचारी क्षेपक
हींस उठे
पिनाकी नाद से
और डहक गया
सारा उन्मेष.......
तकलियां.....
बुनती ही रहीं
कुहासाछन्न आकाश
बिना किसी अनुरणन के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
*मध्यमेधा- मध्यम वर्ग की मेधा (बांग्ला शब्दार्थ)
Added by राजेश 'मृदु' on February 6, 2013 at 1:53pm — 10 Comments
मित्रों गोपियों के विरह को और उनके कृष्ण प्रेम को महसूस करने की कोशिश की है ....... आशा है आपको यह गीत पसंद आएगा
++++++++++++++++++++++++++++++++++
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है |
ब्रह्म ज्ञान मत बूझो उद्धव , ब्रह्म ज्ञान का सार कृष्ण हैं ||
मुरली की धुन सामवेद है , ऋग् यजुर आभा मुखमंडल
वेद अथर्व रास लीला है ,शास्त्र ज्ञान कण कण…
Added by Manoj Nautiyal on February 6, 2013 at 1:00pm — 11 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 6, 2013 at 11:29am — 15 Comments
रोज़ ढलते सूरज के साथ,
जन्म लेने लगती कुछ बूँदें
रोज़ सुबह उठ, उन बूँदों को भी मै पाता हूँ,
पर खो जाती,वो चढ़ते सूरज के साथ....
तब पूछता मै खुद से....
सूरज ही तो था इनका जनक, फिर...फिर
क्यों कर मिटा दी उसने अपनी ही उत्त्पत्ति?
सोचते-सोचते उभर आती फिर कुछ बूंदे
पर होती नहीं वो ओंस....
और इस तरह ....ढलने लगता ...एक और सूरज
और जन्म लेने लगती फिर कुछ…
Added by Vivek Shrivastava on February 6, 2013 at 11:00am — 16 Comments
मैंने तो सिर्फ एक ही रंग माँगा था चटक रंग तुम्हारे प्यार का और तुम पूरा इंद्र धनुष ही उठा लाये कैसे सम्भालूँगी ये…
ContinueAdded by rajesh kumari on February 6, 2013 at 10:30am — 25 Comments
एक और ताज़ा गज़ल आपकी खिदमत में पेश करता हूँ... लुत्फ़ लें ...
आप खुश हैं, कि तिलमिलाए हम |
आपके कुछ तो काम आए हम |
खुद गलत, आपको ही माना सहीह,
जाने क्यों आपको न भाए हम |
आपके फैसले गलत कब थे,
और फिर, सब…
Added by वीनस केसरी on February 6, 2013 at 4:30am — 20 Comments
"छंद त्रिभंगी "
उठ नींद से गहरी , अर्जुन प्रहरी, नयना अपने, खोल ज़रा
पद साथ बढ़ा के , चाप चढ़ा के , इन्कलाब तो, बोल ज़रा
या छोड़ दिखावा, ये पहनावा, भगवा धारण, तुम कर लो
बन संत तजो सब, मौन रहो अब, मन का मारण,तुम कर लो
,,,,,,,दीप ............
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 9:42pm — 16 Comments
विकास तो बहोत किये ,
फिर भी हम पिछड़ गये ,
पाना था जो उत्कर्ष ,
उससे ही बिछड़ गये !!
प्रयास के उपरांत भी ,
ऐसा क्यूँ होता है !
जिसको हँसना चाहिए ,
वह स्वयं रोता है !
स्वच्छता की बात करने वाला ,
खुद गन्दगी नहीं धोता है ,
जिसको जागना चाहिए ,
वही अब सोता है!!
एक नई सोच ,
एक नई लालसा !
दिल में लिए हुये,
पाट रहा हूँ फासला !!
हारना नहीं है मुझे ,
लड़ता ही रहूँगा !
संघर्ष ही जीवन है,
प्रयास करता…
Added by ram shiromani pathak on February 5, 2013 at 8:30pm — 2 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 4:30pm — 23 Comments
बह्रे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
दिमाग़ी सोच से हट कर मैं दिल से जब समझता हूँ;
ज़माने की हर इक शै में मैं केवल रब समझता हूँ; (१)
ख़ुशी बांटो सभी को और सबसे प्यार ही करना,
यही ईमान है मेरा यही मज़हब समझता हूँ; (२)
मरुस्थल है दुपहरी है न कोई छाँव मीलों तक,
ये दुनिया जिसको कहती है वो तश्नालब समझता हूँ; (३)
कभी गाली, कभी फटकार तेरी, सब सहा मैंने,
मिला है आज हंस कर तू, तेरा मतलब समझता हूँ; (४)
फ़ितूर इस को कहो चाहे सनक या…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on February 5, 2013 at 3:30pm — 17 Comments
मित्रों, कई दिन के बाद एक ग़ज़ल के चंद अशआर हो सके हैं, आपकी मुहब्बतों के नाम पेश कर रहा हूँ
वो हर कश-म-कश से बचा चाहती है |
वो मुझसे है पूछे, वो क्या चाहती है |
यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,
हयात अब कोई मसअला चाहती है |…
ContinueAdded by वीनस केसरी on February 5, 2013 at 10:00am — 17 Comments
भारत माँ की जय बॊलॊ
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प्रॆम प्रणय कॆ अनुबंधॊं सॆ, मॆरा कॊई संबंध नहीं हैं !!
बिंदिया पायल कंगन कजरा, मॆरॆ तट बन्ध नहीं हैं !!
ना कॊई खॆल खिलौनॆ, ना गुब्बारॆ भर कर लाया हूँ !!
आज तुम्हारॆ चरणॊं मॆं, बस अंगारॆ लॆ कर आया हूँ !!
मिट्टी की अजब मिठास कहॆगी, भारत माँ की जय बॊलॊ !!
मॆरॆ जीवन की हर सांस कहॆगी, भारत माँ की जय बॊलॊ !!१!!
मॆरी कविता की बस कॆवल, इतनी ही परिभाषा है !!
श्रृँगार-सुरा कॆ बॊल नही यह,दिनकर वाली भाषा है !!…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on February 4, 2013 at 9:17pm — 10 Comments
ये शब्द समर्पित उन भावनाओं को,
जो अव्यक्त रह गयी.
उस रुपहले संसार को,
जो ख्वाब बनकर रह गया.
ये शब्द समर्पित उस रिश्ते को,
जो बेनाम रह…
ContinueAdded by RAJESH BHARDWAJ on February 4, 2013 at 5:44pm — 4 Comments
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