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ओबीओ लाइव महोत्सव अंक-45 की समस्त स्वीकृत रचनाओं का संकलन

आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -12 जुलाई’14 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक-45  की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “अनंत-असीम-अपरिमित” था.

महोत्सव में 20 रचनाकारों नें  कुण्डलिया छंद, दोहा छंद, छप्पय छंद,  गीत-नवगीत,  ग़ज़ल व अतुकान्त आदि विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति द्वारा महोत्सव को सफल बनाया.

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

******************************************************************************

क्रम संख्या

रचनाकार का नाम

रचना

 

 

 

1

आ० सौरभ पाण्डेय जी

(छन्द - कुण्डलिया)
१.
जगती के विस्तार के, कारण सदा अनेक 
वृत्त दिखा परिसीमवत, उसका कारण एक 
उसका कारण एक, परिधि से गोचर होता 
यही वृत्त ब्रह्माण्ड, अगोचर बिम्ब समोता 
प्रेम, भाव, संज्ञान अपरिमित.. गुण विनती के 
भाव हुये साकार, आवरण हों जगती के 

२.
जगती के प्रारूप दो, आंतरिक और बाह्य 
बाह्य वर्ण है मान्य यदि, सूक्ष्म सदा दुर्ग्राह्य 
सूक्ष्म सदा दुर्ग्राह्य, अगोचर सदा सनातन 
कोई सक्षम धीर, गुह्य का करता मर्दन 
इन्द्रिय़ सुलभ ससीम, असीम न सोच उभरती 
सतत दीर्घ अभ्यास, तभी परिभाषित जगती 

३.
निष्क्रियता के गर्भ में, अनगिन सुप्त रहस्य 
ऊर्जा-मात्रा अंतरण, प्रकट प्रमाण नमस्य 
प्रकट प्रमाण नमस्य, वृत्त विस्तारण अभिनव 
गुह्य-असीम-अकथ्य, परम का नित नव अनुभव 
उग्र तड़ित उद्गार, पिण्ड संवेदन सुप्रिय 
काया-माया तृप्त, किन्तु परिसीमन निष्क्रिय 

 

 

 

2

आ० गिरिराज भंडारी जी

एक अतुकांत रचना

****************

हर सूक्ष्म में अनंत होने की सम्भावनायें छिपी होतीं हैं

अंश में भी पूर्ण के सभी गुण समाहित मिलेंगे ,

कम मात्रा में सही ,

जो आग है वही चिंगारी भी है

फिर क्यों अंश , अंश ही रह जाता है , पूर्ण नहीं हो पाता

क्यों कोई बीज कालांतर में वृक्ष हो जाता है  

और क्यों कोई बीज वृक्ष होने से रह जाता है

क्या दूरी है , क्या बाधा है

दर असल अंश में भी अंश होने का अहं होता है

या होता है अंश में पूर्ण होने का मिथ्या भान

दोनों ही स्थितियाँ

अंश में अपने इस आधे अधूरे अस्तित्व के प्रति मोह पैदा कर देतीं हैं

और कोई बीज तब तक वृक्ष नहीं हो पाता जब तक उसे अपने बीज़ रूपी अस्तित्व से मोह है

खोना पड़ता है , बीज़ को अपना बीज पन , तब अंकुरित होती है उसी बीज के अंदर से वृक्ष हो सकने की सम्भावनायें

वर्षा की बूंदें जब असीम समुद्र में गिर के खो देतीं हैं अपना अस्तित्व तब वो असीम समुद्र हो जातीं हैं

बस बात यहीं अड़ी है ,

अंश अपने को खोने को तैयार नहीं है

इसी लिये वंचित है पूर्ण हो जाने से

 

 

 

3

आ० अरुण निगम जी

तब कविता जन्म लेती .........


जब अपरिमित शून्य में मन को मिले सोते गरल के 
लेखनी के अश्रु छलके , सिंधु ज्यों नमकीन जल के

शुभ्र कागज का धरातल , सावनी सपने सँजोये
भावना हल को चलाये , अक्षरों के बीज बोये 
रूप धरते भाव सारे , खेत में तब कृषक-दल के
लेखनी के अश्रु छलके......


गीत के बिरवा सुकोमल , पर्ण शब्दों से सजाये
सुमन छंदों के खिले ऋतुराज आये या न आये 
सुख तितलियाँ, दु:ख भ्रमर तो पाहुने दो-चार पल के 
लेखनी के अश्रु छलके......


इस धरातल से अलग ही, कौन सा है वह धरातल 
साधना तप ध्यान में मन , डूब जाता है ये चंचल 
जब मथा जाता समुन्दर , रत्न आते हैं निकल के 
लेखनी के अश्रु छलके......


अंत है अस्तित्व खोता , दरकती सीमा तनय की
नव-सृजन की पीर में जब,बाँसुरी बजती समय की 
तब कविता जन्म लेती , दूर होते हैं धुँधलके 
लेखनी के अश्रु छलके......

 

 

 

4

आ० विजय प्रकाश शर्मा जी

अपरिमित    (अतुकांत रचना)

सुख मिथ्या कल्पना ही सही
वशीभूत मैं
हमेशा तुम्हारे पास आ जाता हूँ
मैं जानता हूँ 
तुम्हारे 
अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की 
कोई सत्ता नहीं है, 
भाव नहीं है, 
अस्तित्व नहीं है.
ठीक पृथ्वी की तरह
गोल-गोल घूमते हुए
तुम्हारे चक्कर लगाता हूँ,
तुम्ही मेरे सूर्य,चन्द्रमा 
और तारे हो,
सर्वदा अपरिमित,
अनन्त सुखस्वरूप,

पालनहारे हो.

सुख में, दुःख में,
जीवन मेले में,

दिन में, रात में ,
अकेले में,
तुम्ही एक सहारे हो.

 

 

 

5

आ० अविनाश बागडे जी

अनंत-असीम-अपरिमित भाव।
अजर -अमर - अखंडित भाव।
मन की  इस माया - नगरी में ,
मद से महिमा - मंडित भाव।
सीमाओं  के  अतिक्रमण से ,
मन - कारा में दण्डित भाव !
अनायास ही  मिल जाते हैं ,
ऐसे  ही सु - परिचित भाव।
दबे  हुए  है  हर इक  मन में ,
मौन लिए आंदोलित भाव।
सहज थाह की चाह न रखना 
अनंत-असीम-अपरिमित भाव।

 

शब्द-जाल !

========

गुरुवर  भाव अनंत है , श्रद्धा अतुल असीम।
गुरुवर गुड़ की चाशनी , गुरुवर तरुवर नीम।।
गुरु अपरिमित ज्ञान-गंग , गुरु असीम अनंत।
गुरु-पद पावन जगत में , ग्रन्थ-गुरु गुरु संत।।
अनंत-असीम-अपरिमित,अजर -अमर -अविनाश।
अतुल-अटल अथ अवतरण, असर अचूक अकाश।।
आभा आर्य असीम है , अद्य अपरिमित ज्ञान।
अनंत असीम है आज भी , विटप-वृहद विज्ञान। 

 

 

 

6

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी

दोहे

 

उससे ही निर्माण सब, उससे ही संसार |

अर्पण जिसका धर्म है, उसको नमन हजार ||

 

बिन बोले वह जानती, हर्ष और शिशु पीर |

उस जननी को है नमन, जिसने जन्मे वीर ||

 

जिसके अंतर में भरा, केवल प्यार अपार |

उसकी ऊर्जा को नमन, करता यह संसार ||

 

जिसके बल पर जिंदगी, जीवन के संस्कार |

कैसे भूलेगा प्रभो, शिशु माँ के उपकार ||

 

इश्वर भी ध्याते जिसे, वह इश्वर अवतार |
माँ महिमा का छोर ना, और न पारावार ||

 

 

 

7

आ० शिज्जू शकूर जी

अतुकांत रचना-

कल्पनाओं के अनंत आकाश में

भाव शून्य सा

खोया हुआ मन

न जाने कैसे-कैसे

चित्र बनाता है,

 

कभी

विशाल रेगिस्तान में भटकते

प्यासे मुसाफिर का

मारीचिका के तिलिस्म में फँसकर

गिरते पड़ते भागते

एक चेतना शून्य व्यक्ति का

चेहरा उकेरता है,

 

कभी अथाह अपरिमित

सागर की लहरों में

हिचकोले खाती नौका

उसमें लगभग

बेसुध से बैठे इंसान

और उनकी लाचारी

को चित्रित करता है,

 

तो कभी नज़र आता है

तेज़-तेज़ साँसे लेता

हाँफता

एक बेदम इंसान,

जो थक कर चूर है

लेकिन उसे दौड़ना है

क्षितिज पर पहुँच कर

दीखती हुई

उस रौशनी को छूना है

 

इंसान की सोच

उसका डर

और कल्पनाएँ अपरिमित है

 

 

 

8

आ० राजेश कुमारी जी

दो भाव 
(नकारात्मक) 
दोनों हाथों की उँगलियाँ 
परस्पर फँसा कर
ठोड़ी से सटाकर 
जोर से पलकें भींच कर 
माँगती हूँ अपनी इच्छापूर्ति की भीख 
उस टूटते तारे से 
जो अभी- अभी 
अपने आगार से विलग होकर 
बुलंदी से खाक़ में तब्दील होने जा रहा है 
दूर से मेरा 
अपरिमित अभिलाषाओं का नभ 
हँसता है मुझपर 
वो क्या पूर्ण करेगा 
तेरी एक मनोकामना? 
जो खुद ही खंडित होकर 
अपना वजूद खोकर जा रहा है !

(सकारात्मक) 
चुन लेती हूँ वो नन्हा पलक का अंश 
जो खुद ब खुद चला आया 
लुढ़कता हुई गाल पर 
उलटी हथेली कर उँगलियों के 
कंगूरों के बीच में रख 
कस के आँखें भींच 
मुठ्ठी में बंद अनंत आकांक्षाओं में से 
एक पर ध्यान केन्द्रित कर
फूँक मारती हूँ जोर से 
कि वो उड़े और मेरी मनोकामना पूर्ण करे 
जो जीर्ण स्वयं 
नव सृजन को स्थापित करने के लिए 
छोड़ आया अपनी जमीं
अवश्य वो महान अंश 
पूर्ण करेगा मेरी मनोकामना 
जाते-जाते अपने अंतिम सफ़र में !!

इस तरह उलझी रहती है जिन्दगी 
सुलझी अनसुलझी 
अनंत आकांक्षाओं के जाल में
फिर खुल जाती हैं सब ग्रंथियां
जब रिक्त हो 
चल देती है रूह 
अनंत विश्राम हेतु 

 

 

 

9

आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

(छंद छप्पय)

 

यद्यपि    उत्तम   ज्ञान,  भक्ति  सर्वोत्तम जानो I

यह    रहस्य   संसार,  रूप   प्रभु   का  ही मानो I

कण-कण  में हरि व्याप्त, जगत है उनकी छाया I

चेरी    उनकी    प्रबल,   जिसे   कहते   है  माया I

प्रभु है अकल अनीह अव्यय अनंत असीम अपरिमित I  

कर नेति-नेति  वेद सदैव कर्त्ता  को  करते  अनुमित I

 

कुण्डलिया

लीलायुत  ब्रह्माण्ड  में, रचा  एक  ही  तत्व I

दृश्यमान जितना जगत, समझो  वही शिवत्व I

समझो  वही  शिवत्व, सदा  चैतन्य  निराला I

शक्ति अनंत असीम, अपरिमित पशुपति वाला I   

कह  ‘गुपाल’ अविराम,  व्यक्त आनंद रसीला I

सजग हुयी चिति-शक्ति,  महाभैरव  की लीला I

 

 

 

 

10

आ० सुशील सरना जी

आरम्भ से गले मिला ….

धीरे धीरे ….
जाने कब …
सूरज तिमिर से जा मिला //

करने लगी …
साँसों से ज़िन्दगी …
बेवफाई का गिला //

ज़िन्दगी ने …
मचान से ….
झुक कर ….
देखी जो धरा //

इस जग का …..
हर एक रास्ता ……
जाकर मरघट से मिला //

अंत लेकर गोद में …..
आरम्भ जिस्म का हुआ …..
अहं का दर्पण टूट गया …..
मृदा में जब वो जा मिला //

ज़िन्दगी ज़िंदा थी जब तक …..
आसमाँ से दूर थी …..
धू धू कर जिस्म ……
भस्म हुआ जब …..
तो आसमाँ से जा मिला //

ज़िन्दगी का हर स्वप्न …..
था ख़ाक में लिपटा हुआ …..
अंत चुपके से फिर जा के …..
आरम्भ से गले मिला //

 

 

 

11

आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

महिमा प्रभु की अपार है, असीम है गुरु का प्यार।

भव सागर के नाविक हैं, कर देंगें बेड़ा पार॥              

 

शरण गुरु की मिल जाये, मिट जाये सभी अज्ञान।

सदगुरु ही देते सदा, गोविन्द मिलने का  ज्ञान॥

 

भाव असीम अनंत रहे, और भक्ति रहे निष्काम।  

ढूंढ जिसे जन्मों से रहे, मिल जायें श्याम, शिव, राम॥

 

जिस मंज़िल की तलाश है, “गुरु” उसी राह का नाम।

दुविधा न रहे इस राह पर, ले गुरु की ऊँगली थाम॥

 

मतलब के सब यार हैं, कभी प्यार, कभी तकरार।

प्यार असीम, अनंत मिले, बस रो कर उसे पुकार॥

 

 

 

12

डॉ० प्राची सिंह

एक गीत....

सुप्त स्वप्न निष्प्राण चेतना  लिए देहघट श्वासें पाशित

मन-अंतर फिर झंकृत कर दे, प्रेम स्वरों की गूँज अपरिमित…

 

उर भव पाँखी की गति निमिषित, प्रीत छुअन को तरसे बन्धित

प्रेम रूप धर ओ निर्मोही !  खोल सभी सीमाएं ग्रंथित

झनक झनक झनकें उर नूपुर, तोड़ निठुर पग बंधन शापित

मन-अंतर फिर झंकृत कर दे, प्रेम स्वरों की गूँज अपरिमित…

 

मनस सरोवर आकुल-आकुल, श्वास तरंगित व्याकुल-व्याकुल

लहर-लहर हिचकोले खाती ,  भव नैया मझधारे ढुलमुल

दरस मिले अब तो प्रियतम का, छवि जिनकी प्रतिबिम्बित शोभित

मन-अंतर फिर झंकृत कर दे, प्रेम स्वरों की गूँज अपरिमित...

 

सुधि-बुधि हारी नित बलिहारी, प्राण-त्राण प्रियतम पर वारी

वही अनश्वर, धर छवि नश्वर, कण-कण उद्भासित त्रिपुरारी  

प्रियवर हिय में वासित प्रतिपल, ज्यों मंदिर में देव प्रतिष्ठित

मन-अंतर फिर झंकृत कर दे, प्रेम स्वरों की गूँज अपरिमित... 

 

 

 

13

आ० रमेश कुमार चौहान जी

तांका


1. तारें आकाश
समुद्र जलनिधि
कमतर है
मां का ममत्व स्नेह
अगणित अथाह ।


2. न्यून है न्यून
ताउम्र की खुशियां 
सजल नेत्र
पल भर का दुख
असीम अगणित ।


3. मानव तन
ईश्वर का खिलौना
अपरिमित
मोह माया का पाश
जीव अति भ्रमित ।


4.जीवन पथ
अगणित कंटक
जांच रहा है
बदन में प्राण है
असीम ऊर्जावान ।


5.पवित्र प्रेम
जग का प्राण वायु
रब की तृष्णा
निर्लिप्त निर्विकारी
अनंत शक्तिशाली ।

 

 

 

14

आ० लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी

मिलता मान असीम  (दोहें)

भौतिक सुख घटता रहे, इसका काल ससीम

बढ़ता जाए आत्म सुख, मिलता रहे असीम |

 

आत्मा जिससे तृप्त हो, उससे नहीं थकान

जिससे मिलता सुख बहुत,उसको ले पहचान |

 

भौतिक सुख की चाहना, मन में रहे असीम

सीमित तन मन शक्ति को,समझे राम रहीम |

 

निजता में झाँके नहीं, सीमित हो सम्बन्ध,

ताका झाँकी तोड़ती,   सीमा के तटबंध |

 

निजता में भी कर सके, निश्छल प्रेम प्रवेश

प्रेम पूर्ण व्यवहार हो, मन में रहे न द्वेष |

 

प्रेम पूर्ण व्यवहार से, मिलता मान असीम,

वरना निजता लांघना, रिश्ता करे ससीम |

 

 

 

15

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी

अतुकांत.

 

प्रश्न भेदते हैं मन को,

भावना सताती है

जब

तरंग आती है

दूर कहीं से  

होता है अहसास

बिन पाए पाने का  

अटूट विश्वास

पनपाता बीज

नत गगन धरती के सम्मुख

दूर क्षितिज.

 

अनंत लहरें झकझोरती है

निरंतर चाहती  

विस्तार का हक़   

 

उदगम से

अवसान तक

होता है साकार

तब अपरिमित विस्तार

सृष्टि से एकाकार,

नव निर्माण निमित्त

शांत चित्त !

 

 

 

16

आ० जितेन्द्र ‘गीत’ जी

अतुकांत कविता

==========

अपने अंतर्मन की

भावनाओं से

किसी और  की भावनाओं

को समझ लेना

अनंत  खुशियाँ सी

बिखर जाती हैं,जीवन में  

क्या यही प्रेम है...?

हाँ...! अगर यही प्रेम है, तो

इस अपरिमित प्रेम के सागर में

दो भावनायें ,जो कि

एक ही तो हैं..!

फिर क्यूँ...?  

अहम, जो

है ही नहीं

बढ़ा देता है,दूरियां

और देता है असीम दुःख, जो   

छीन लेता है

सब कुछ

 

 

 

17

आ० कल्पना रामानी जी

गीत

कर्म बोध से नज़र चुराकर। 

मन जोगी मत बन।

 

जिस अनंत से हुआ आगमन।

पुनः वहीं जाना।

जो कुछ लिया, चुकाना भी है,

तभी मोक्ष पाना।

 

धूप-छाँव के अटल सत्य से,

क्यों इतनी उलझन।

 

अगर पंक है, कमल खिला दे,

काँटों में कलियाँ।  

सार ढूँढ निस्सार जगत से,

ज्ञान असीम यहाँ।

 

रहना है इस मर्त्य-लोक में,

जब तक है जीवन।

 

सुंदरतम सुख कारक रे मन!

स्वर्ग बिछा  भू  पर।

नाता इसके साथ जोड़ ले,

सब कुछ अपनाकर।

 

भोग वरण कर बाँट अपरिमित,

जग में भाव-सुमन।

 

 

 

18

आ० लक्ष्मण धामी जी

ग़ज़ल

 

फैलता  आलोक  जिसका दिग दिगंत
पतझड़ों  को   जो   बना   देता बसंत


पादरी    हो,   मौलवी   हो   या महंत
जिसका युग-युग गा रहे गुणगान संत


लोक  कहता  सूक्ष्म वो, वो ही विशाल
सार  भी जिसका  रहा  लेकिन  अनंत


नाचता   जिसके   इशारे  पर खगोल
जो  अजीवित  जीवितों  का एक कंत


है सुना नित वो अपरिमित औ’ अपार
मन  न पाया  पर  अभी तक छोड़ हंत


पोथियाँ  पढ़-पढ़  हुआ मूरख असीम
जान  पाया मैं  नहीं  कुछ आदि-अंत


मन भटकता कर रहा जिसकी तलाश
उस  असीमित का  बताओ कौन कंत 

 

 

 

19

आ० हरिवल्लभ शर्मा जी

काश! तुम्हारा परिचय पाते.

---------------------------------

तुम्हें बुलाने को आतुर पर!

क्या संबोधन दे पाते ?

काश! तुम्हारा परिचय पाते.

=

द्रष्टि जहाँ थकी सी लगती,

आँखे बिम्ब हीन हो जातीं.

शब्द जहाँ स्तब्ध हो गए,

वाणी वाक रहित हो जाती.

अब तक तुमसे मिल न पाया,

मिलने से पहले छिप जाते....काश!तुम्हारा ...

=

गौर कलेवर धूम्र वर्ण या,

किरण कणों से हो सतरंगी.

नीलाम्बर में रचे बसे क्या,

बहु-रंगी पुष्पों के संगी.

अब तक तुमसे मिल न पाया,

मिलने से पहले छिप जाते......काश! तुम्हारा..

=

झरनों की कल-कल अठखेली,

निर्जन वन में पवन गमन सा.

कलरव राग विहंगों जैसा,

वाद्ययंत्र की सरगम सा.

किस भाषा या ध्वनि में ढूंढूं,

शंखनाद कर तुम्हें बुलाते......काश! तुम्हारा..

=

कोटि पिंड हैं सचर धरा पर,

जल में जलज पनपते हैं.

नभ मंडल ब्रह्माण्ड भी भरा,

जीव विचित्र बिचरते हैं.

लगता कोई शिल्पकार हो,

कैसे कैसे चित्र बनाते......काश! तुम्हारा..

=

कोकिल कहती 'कुहू-कुहू'क्या?

'पीव' पपीहा किसे बुलाता.

गा गाकर क्या कहती मैना,

मयूर नृत्य कर किसे लुभाता.

हंसो के जोड़ों से पूछा,

देश-देश क्यों उड़कर जाते......काश!.तुम्हारा..

=

घनघोर घटा के अंधकार में,

या चपला की चकाचौंध में.

जलनिधि की अतुलित गहराई,

व्योम विराट की शून्य गोद में.

अगम-अगोचर ही रहना था,

तो,क्यों अपना आभास कराते?..काश! तुम्हारा.

=

किसी साधु के साध्य बने,

या जादूगर के चमत्कार?

किसी श्रमिक के श्रम हो सकते,

कुम्भकार या शिलाकर?

नटखट नट या कलाकार तुम,

कैसे कैसे चित्र बनाते?......काश! तुम्हारा..

=

हेमशिखर पर हिम आच्छादित,

गहन गिराओं में ढूंढ रहे हैं,

तपती रेत या बियाबान हो,

पता तुम्हारा पूछ रहे हैं.

कितने विरल-विषम लगते हो,

कितने सहज सरल बन जाते.....काश! तुम्हारा..

=

तुम्हें अलौकिक मान भी लूं,

पर,तुमने तो जनम लिए.

हर युग में आकर धरती पर,

क्या-क्या कौतुक चरित जिए,

मैं लौकिक हूँ,मानव हूँ,

फिर ,क्यों तुम ईश कहाते?...काश! तुम्हारा..

=

या मैंने ही गलती की,

तुमको भगवान बनाकर.

एक तत्व की महिमा में,

भेद अनेक बताकर.

घट में जल है; जल में घट है,

क्यों, अंतर अनेक जताते ?.....काश! तुम्हारा परिचय पाते.

 

 

 

20

आ० सीमा हरि शर्मा जी

तेरा असीम विस्तार कभी,
शब्दों में लेख नहीं पाऊँ।
अनुभूत हुई कितनी गतियाँ,
प्रभु तुमको देख नहीं पाऊँ।
....
ऊषा की अनुपम लाली में,
सूरज में रंगत है तेरी।
कलकल बहते इन झरनों में,
सुनती सी धड़कन है तेरी।
ये पेड़ पुष्प धरती अम्बर,
चित्रित कर दूँ ये प्रकृति सारी।
पर स्पंदन रेख नहीं पाऊँ।प्रभु तुमको....।।
....
विधु में मौन बसता है कौन,
तारों के मिस हँसता है कौन।
सौगाते देकर बारिश की,
ये ताप धरा हरता है कौन।
प्रकृति प्राणी जीवन ओ जरा,
प्रभु संचालित करते कैसे।
यह अब तक भेद नही पाऊँ।प्रभु तुमको...।

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आ० प्राची जी,
इस अमूल्य रचना संग्रह को एकत्र कर प्रकाशित करने का बहुत आभार.आपकी सहज सजगता सराहनीय है, सफल आयोजन पर बधाई.

आदरनीया प्राची जी , संकलन का हमेशा बेसब्री से इंतज़ार रहता है , बहुत जल्दी आपने इस श्रम साध्य काम को पूरा कर दिखाया । महोत्सव के सफल संचालन और संकलन के लिये आपको बहुत शुक्रिया , बधाइयाँ , साधुवाद !!

आदरणीय प्राची जी

आपके अध्यवसाय का यह  कार्यक्रम जीता जागता प्रमाण है i आपको शत -शत बधाई i

मंच पर समाप्त हुए आयोजन की रचनाओं का संकलन रचनाओं को एक जगह एकत्रित करने भर की कवायद न होकर, एक बनते हुए इतिहास की पंक्ति का लिखा जाना समझना चाहिये. जो सदस्य वास्तव में रचना और रचनाकारों के लेखनकर्म के महीन तथ्यों से गुजरना चाहते हैं, या, इस ’सीखने-सिखाने’ के उद्येश्य से प्रारम्भ हुए और हर कीमत पर सतत अग्रसरित मंच पर रचनाकारों के रचनाकर्म में आये किसी तरह के परिवर्तन को बूझना-गुनना चाहते हैं, उनके लिए ये संकलन महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं.
साथ ही, यह भी रोचक होता है जानना कि किस रचनाकार में आज कितना परिवर्तन हुआ है.


संकलन के कर्म को गंभीरता से लेने और अनवरत निभाने के लिए सादर धन्यवाद, आदरणीया प्राचीजी.
शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ भाई जी, "सीखने-सिखाने" की बात तो अपनी जगह रही, मुझे यह देख कर बहुत अफ़सोस हुआ कि बहुत से सदस्यों (जिन में मंच के पुराने सदस्य भी शामिल हैं) ने शायद आयोजन की उदघोषणा तक को ध्यान से नहीं पढ़ा. वहां साफ़ साफ़ लिखा है कि:

//रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.//

//प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.//

लेकिन वास्तव में हुआ क्या, यह आप स्वयं ही देख लें.   

आदरेया मंच संचालिका डॉ. प्राची जी सादर प्रणाम, 

       प्रथमतः सफल आयोजन एवं रचनाओं के संकलन हेतु आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ.  व्यस्तता के कारण इस बार के आयोजन में अपनी प्रतिभागिता दर्ज कराने से वंचित रहा इसका मुझे खेद है, किन्तु यह अद्वितीय संकलन मेरे रचना कर्म को सदा उत्प्रेरित करता रहेगा   साथ ही समस्त प्रतिभागियों  को हार्दिक बधाई प्रेषित करता हूँ. सादर धन्यवाद.....

प्रिय प्राची जी ,सुबह- सुबह संकलन देख कर मन प्रसन्न हुआ ,हरिवल्लभ जी की रचना अभी यही पढ़ी बहुत अच्छी लगी और सीमा हरि शर्मा जी की भी उस वक़्त पढ़ नहीं पाई थी बहुत सुन्दर लिखी |आयोजन में आई सभी रचनाओं के लेखक लेखिकाओं को हार्दिक बधाई  और इस सुन्दर  संकलन  हेतु प्राची जी बहुत- बहुत आभार| 

आदरणीया डा.प्राची जी

सादर नमन...

अभी जैसे ही रचनाओं का संकलन  देखा बड़ी ख़ुशी हुई, आपने अपना पूर्ण समय देकर बड़ी सुन्दरता से व्यवस्थित संकलन किया है. रचना क्रमांक,रचनाकार का नाम, रचना . इस व्यवस्थ्ति तरीके को देख ऐसा लगा जैसे आपने कई तरीकों से संकलन कर देख ,फिर इस तरीके को चुना हो.

 वैसे ही जैसे छात्र-जीवन में कई तरह से विषय -सामग्रीयों का संकलन करते है ताकि शिक्षक को ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट व् सुंदर लगे :))

रचनाओं के इस संकलन पर आपका बहुत बहुत आभार व् बधाइयाँ !!

सादर!

आ०  प्राची  बहन सादर अभिवादन ,

 प्रथमतः सफल आयोजन एवं रचनाओं के संकलन हेतु आपको ढेरों बधाइयाँ .

इस बार नेट की समस्या के चलते इस आयोजन का भरपूर आनंद नहीं ले पाया . कई प्रतिभागियों की रचनाओं को मंच पर नहीं पढ़ सका इसका अफ़सोस रहेगा पर उन रचनाओं को इस संकलन में पढ़कर आनद आ गया , इस मंच पर प्रस्तुत सभी प्रतिभागी भाई-बहनों का बहुत बहुत आभार , जिनकी रचनाओं से बहुत कुछ नया सीखने को मिला है चाहे वह भावपक्ष रहा हो या कलापक्ष .

इस संकलन को बेहतरीन स्वरूप देने के लिए आपको पुनः हार्दिक बधाई और धन्यवाद .

आदरणीया मंच संचालिका डॉ प्राची जी, हर बार की तरह आपके प्रयास से महोत्सव की सभी रचनाओं को बगैर पन्ने उलटे एक

साथ पढने/समझने का अवसर प्रदान करने के लिए हार्दिक धन्यवाद | मेरी प्रथम अतुकांत "जीवन नहीं असीम" संकलन में छूट

गयी है |अंतिम दिन रात्री को कुछ रचना नहीं पढ़ पाया था, जिसे अब पढने का अवसर प्राप्त हुआ है | यही इस संकलन का महत्व

है | सभी रचनाकारों को बधाई एवं सांकलन हेतु आपका हार्दिक आभार  

आयोजन की सभी रचनाओं को पुन: (एक जगह) पढ़ना बहुत ही अच्छा लगा. रचनाओं के संकलन के इस महती कार्य हेतु हार्दिक धन्यवाद और बधाई डॉ प्राची सिंह जी.

आदरणीया प्राची सिंह जी, समस्त रचनाओं को इतनी शीघ्र एक स्थान पर संकलित देखना किसी कौतुहल से कम नहीं।  हर रचना एक रचनाकार की गहन वैचारिक अभिव्यक्ति को जीती है।  इस महत्वपूर्ण संकलन की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद। 

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