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क्या न लिखूँ

क्या न लिखूँ

दोपहर घर में बैठा मैं, कुछ,

सोच रहा,मस्तिस्क में आ रहे,

विषय कई,पर उलझन है की,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

शब्दों और वाणी में, आज,

अनुशासन है नहीं, फिर भी,

समय देशकाल को विचारकर,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

लिखने से तूफ़ान आ जाता,

लिखने से संबंध बिगड़ते,और,

सत्ता गिर जाती है ,इसीलिये,

क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ ।

लिखने से मन के भाव आते,

कटु सत्य निकल जाता है,

आ…

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Added by akhilesh mishra on April 10, 2013 at 11:00am — 5 Comments

मैं

मैं कौन हू ,मैं क्या हू ,

नही जानता ,

 मैं खुद ही स्वयं को ,

नहीं पहचानता ,



 मैं स्वप्न हू या कोई हक़ीकत ,

मैं स्वयं हू या कोई वसीयत ,



जैसे किसी कॅन्वस पर उतारा हुआ ,

रंगों की बौछारों से मारा हुआ ,



हर किसी के स्वप्न की तामिर हू मैं ,

हक़ीकत नही निमित तस्वीर…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:58am — 15 Comments

ख्वाब यूँ तूफ़ानी हो गये

ख्वाब यूँ तूफ़ानी हो गए ,

रिश्ते भी जिस्मानी हो गए

,

बदले करवट ज़िंदगी , हर पल हर छिन ,

लक्ष्य भी आसमानी हो गए ,



क्या दिखाएँ जलवा , अपने अश्कों का ,

गम ही किसी की , मेहरबानी हो गए ,



नहीं आता रोना उनके सितम पे ,

फिक्रे वफ़ा , किस्से कहानी हो गए ,



बेहया हो गया ये आँखों का परदा ,

सुना हे जबसे , वे रूमानी हो गए ,



छोड़ दिया मिलना गैरों से हमने ,

बंधन दिलों के ,बेमानी हो गये…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:48am — 6 Comments

आग चिराग ने लगाई....

देखो जबरदस्त होसला अफजाई ,

बैरी बने बादल और आग चिराग ने लगाई ,



करेंगे अपने बूते , खामोशी से संवाद ,

चौंकाना चाहती हे , दिल से , तन्हाई ,



आशा की लौ मे , मेरी वापसी के संकेत ,

दे ही देगी , तेरी चौतरफ़ा रुसवाई ,



कगार पे आ पहुँचा , अब रोमानी पहलू ,

महज संजोग नहीं है , तेरी बेवफ़ाई ,



थाम ली कमान , आख़िरकार मुहानो की हमने ,

फूटते हुए लावो की , अब…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:00am — 2 Comments

दर्द

जिधर भी देखा दर्द ही दर्द मिले ,

अपने साए से हुए , चेहरे सर्द मिले ,



किया बेगाना सरे राह हमको ,

मिले भी तो , ऐसे हमदर्द मिले ,



था ज़माना गुलाबी कभी जिनका ,

वही दर्द ए दिल के मारे , आज जर्द मिले ,



गुमान ना था इस कदर कहर नाज़िल होगा ,

फाक़त खंडहर , वो भी ज़रज़र मिले ,



आज़िज़ हे हम अपने ही लहजे से ,

दुरुस्त जिनको समझा , वोही ख़ुदग़र्ज़ मिले…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 10, 2013 at 7:00am — 10 Comments

पत्थर



कारोलीन एक छोटा सा गाँव . यह उन्नीस सौ साठ की बात है . हमारे पड़ोस में एक औरत अपने

छः साल के बेटे के साथ रहने आयी . वह बहुत झगड़ालू थी . वह आये दिन किसी न किसी से लड़ाई करती रहती . वह जब भी किसीको निशाना बनाती अपने बेटे से कहती जाओ उसे पत्थर से

मारो . वह परित्यक्ता थी, अकेली थी , इसीलिये लोग कुछ नहीं कहते और उससे हर सम्भव दूरी बनाये रखते . लोगों की चुप्पी को वह कायरता समझ बैठी .

उसके घर के समीप एक बड़ा सा मैदान था . शाम के वक्त हम सभी गाँव के बच्चे उसमें खेलने जाते थे.…

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Added by coontee mukerji on April 9, 2013 at 11:01pm — 5 Comments

ऐसे लोगों का जीना क्या.....

इत्ते सारे लोग यहाँ हैं

इत्ती सारी बातें हैं

इत्ते सारे हंसी-ठहाके

इत्ती सारी घातें हैं...



बहुतों के दिल चोर छुपे हैं

सांप कई हैं अस्तीनों में

दांत कई है तेज-नुकीले

बड़े-बड़े नाखून हैं इनके

अक्सर ऐसे लोग अकारन

आपस में ही, इक-दूजे को

गरियाते हैं..लतियाते हैं



इनके बीच हमें रहना है

इनकी बात हमें सुनना है

और इन्हीं से बच रहना है...



जो थोड़ें हैं सीधे-सादे

गुप-चुप, गम-सुम

तन्हा-तन्हा से जीते हैं…

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Added by anwar suhail on April 9, 2013 at 8:44pm — 6 Comments

साथ

साथ क्या है ?

एक भ्रम के सिवाय

एक भुलावा रिश्तों का

झूठा दिलासा अपनों का

क्या सच में कोई होता है साथ ?

आखिर को झेलने होते हैं

दुःख अकेले

उठानी होती है पीड़ा

टीसों की

जज्ब करना होता है दर्द

खुद ही

साथ चलते अपने

साथ चलते रिश्ते

कब तक कितने साथ होते हैं?

अकेला पैदा हुआ इंसान

ताउम्र होता है अकेला

उसकी ख़ुशी ,दुःख

भी नहीं होते सिर्फ उसके

जुड़े होते हैं वे भी दूसरों से

और उनकी मर्जी…

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Added by Kavita Verma on April 9, 2013 at 8:01pm — 4 Comments

गद्य काव्य

आधुनिक नई धारा हिन्दी साहित्य में कई नई विधाएं अपने साथ लेकर आयी। कई तरह के अभिनव प्रयोग हुए। इन्हीं विधाओं में से एक विधा है गद्य काव्य। इस विधा में त्रिलोचन शास्त्री ने बहुत काम किया।

मैंने एक गद्य काव्य लिखने का प्रयास किया है। मैं नहीं जानता कि मैं कितना सफल या असफल हुआ हूं। अपना यह प्रयास इस मंच पर इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसके माध्यम से इस विधा पर कुछ चर्चा हो सके और मेरे साथ साथ सबको इस विधा के बारे में जानने का एक अवसर प्राप्त हो सके।

आशा है सुधी जन मुझे मार्गदर्शन… Continue

Added by बृजेश नीरज on April 9, 2013 at 6:59pm — 12 Comments

चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- तृतीय खंड (3)

प्रस्तुत खंड में ज्ञानी गंगा उत्पति की कथा बयान कर रहा है। गंगा की उत्पति  विष्णु हृदय से मानी जाती है। वह विष्णु हृदय क्या है - ज्ञानी इस की विवेचना के लिए प्रयतन रत है।
प्रस्तुत कथा और इस का ऐसा पठन शायद किसी और ग्रन्थ में न उपलब्ध हो इस लिए पाठक से निवेदन  है  कि वह इस में समानांतर धार्मिक कथा की खोज न करे। प्रस्तुत कथा केवल ज्ञानी की अपनी आत्मानुभूति है  ....…
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Added by Dr. Swaran J. Omcawr on April 9, 2013 at 6:00pm — 5 Comments

सच मन को आहत करता है - वीनस केसरी

सच बोलने वालो

तुमको हमेशा सूली पर लटकाया गया

मगर यह गलत कहाँ है

तुम्हारे कारण

आहत होती हैं कितनी भावनाएँ,

शून्य से शिखर तक पहुँचते-पहुँचते

कितने शीशे टूट जाते है



सच बोलने वालो

तुम अलगाव वादी हो   

तुमसे बर्दाशत नहीं होती

अखंडता की भावना

तुम्हें मसीहाई सूझती है

तुम्हें अप्राकृतिक सुन्दर अट्टालिकाएँ नहीं दिखतीं

केवल भूखे लोग दीखते हैं

जोर से बोलने पर

सच भी जोरदार माना जा रहा है

तारे भी सूरज है…

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Added by वीनस केसरी on April 9, 2013 at 5:00pm — 5 Comments

तुम

चमका जैसे कोई तारा ,

हलचल जैसे दूर किनारा ,

निर्मल शीतल गंगा की धारा ,

व्यग्र व्यथित बादल आवारा , बांधना चाहूं पल दो पल ,

तुम............................

दूर-दूर तक धँसी सघन ,

प्रफ्फुलित मन कंपित सी धड़कन ,

घना कोहरा शुन्य जतन ,

बस समय सहारा टूटे ना भ्रम ,

थामना चाहूं कोई हलचल ,

तुम................................

धूप उतरे कहीं पेड़ों से ,

सुकून जैसे बारिश की रिमझिम…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 9, 2013 at 4:01pm — 3 Comments

मिट्टी के घरोंदे टूट गये .......

मिट्टी के घरोंदे टूट गये

इंटो के महल बनाने मे

हम भूल गये संस्कृति अपनी

खुद को आधुनिक बनाने मे

पापा का प्यार न याद रहा

माँ की ममता भी भूल गये

ये बच्चे जो मशगुल हुए

खुद की पहचान बनाने में…

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Added by Sonam Saini on April 9, 2013 at 3:30pm — 6 Comments

बीर छंद या आल्हा छंद

बीर छंद या आल्हा छंद

(यह छंद १६-१५ मात्रा के हिसाब से नियत होता है. यानि १६ मात्रा के बाद यति होती है. वीर छंद में विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।) होती है. )

एक प्रयास किया है मैंने गुरुजनों का अमूल्य सुझाव मिलेगा ऐसी अपेक्षा है !!

कूद पड़ी जब रण में माता ,दानव दल में हाहाकार !

एक हाथ में भाल लिए थी ,दूजे हाथ पकड़े तलवार !!



हाथ काटती पैर काटती ,कछु दुष्ट का लै सिर उपार !!

दौड़ा -दौड़ाकर तब माता…

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Added by ram shiromani pathak on April 9, 2013 at 2:30pm — 11 Comments

अदृष्ट का भय

मन की

विभिन्न चेष्टाओं के

फिसलने धरातल पर

असंख्य आवर्तन

धकेलती कुण्ठाओं के.

 

पूर्वजों से

अर्जित संस्कारों का क्षय

आत्मघाती विचारों का

प्रस्फुटन और लय.

 

क्षितिज अवसादों के,

दिखाते शिथिल आयामों की

सूनी डगर

टूटते स्वप्नों पर

पथराई नजर.

 

उभरती शंकाएं, विचलित श्रद्धाएं.

हाहाकार करते, प्रश्रय खोजते

थके हारे प्रयास

अनन्त शून्य की अनन्त यात्रा

भय से…

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Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 9, 2013 at 2:30pm — 11 Comments

मिमांस

दुखी सभी हैं यहाँ अपने अपने सुख के लिए..

तेरे लिए तो न कोई भी रोने वाला है ..

हजारों लोग इधर से गुज़र गए फिर भी ...

ये सिलसिला न कभी बंद होने वाला है..…

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Added by Amod Kumar Srivastava on April 9, 2013 at 11:30am — 2 Comments

!!! श्री हनुमान जी !!!

सवैया...किरीट एवं दुर्मिल !!! श्री हनुमान जी !!!

कोमल कोपल बीच लुकावत, लंक निसाचर रावन आवत।

काढि़ कृपान नशावत कोपत, क्रोध बढ़े हनुमान छिपावत।।1



तिनका रख ओट कहे बचना, सिय रावन को डपटाय घना।

नहि सोच विचार करे विधना, अबला हिय हाय बचे रहना।।2

रावन कॅाप गयो तन से मन, आंख झुकाय कियो भुइ राजन।

पीठ दिखाय गयो जब रावन, सीतहि त्रास भयो धुन दाहन।।3

मन दीन मलीन हरी रट री, हनुमान सुजान दिये मुदरी।

लइ मातु बुझाय रही दुखरी,जय राम…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 9, 2013 at 8:04am — 22 Comments

आत्म-विश्लेषण

मेरे पास है --



वैचारिक विमर्श के विविध रूप में 

काम आने वाला कबाड़ ,

प्रेम के अप्कर्श का पथ ,

पिछला बाकी सनसनाता डर ,

संजीदा होती साँसें ,

वही पुरानी मजिलें , और 

प्रतिभावान काया,



मुझे --



करनी है, सार्थक पहल , 

नाक की लड़ाई के लिए ,

पूछने है सवाल, चुपके चुपके ,

लयात्मक खुश्बू के लिए ,

करने है खारिज़ व बेदखल ,

व्यवस्था विरोध के स्वर ,

चलना…

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Added by अशोक कत्याल "अश्क" on April 9, 2013 at 7:30am — 7 Comments

नई कविता - वीनस केसरी

नई कविता जो आज रात पुरानी हो गई



मैं चाहता था

ख़्वाब मखमली हों और उनमें परियां आएँ

सूरज की तरह किस्मत हर दिन चमकदार हो

और जब सलोना चाँद रास्ता भटक जाए,

तो तारों से राह पूछने में उसे शर्म न लगे

 

ये भी चाहा कि,

मैं पूरी शिद्दत से किसी को पुकारूं

और वो मुड कर मुझे देख कर मुस्कुराए  

हम सुलझते सुलझते, थोडा सा फिर उलझ जाएँ

प्यार करते करते लड़ पड़ें

और…

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Added by वीनस केसरी on April 9, 2013 at 3:11am — 10 Comments

ये आनन्द चीज क्या कैसा??

ये आनन्द चीज क्या कैसा??

 

ये आनन्द चीज क्या कैसा क्या इसकी परिभाषा

भाये इसको कौन कहाँ पर कौन इसे है पाता

उलझन बेसब्री में मानव जो सुकून कुछ पाए

शान्ति अगर वो पा ले पल भर जी आनंद…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 9, 2013 at 12:11am — 12 Comments

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