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July 2018 Blog Posts (108)

होती नहीं  है भोर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१ २१२१ २२२  १२१२



कहते  नहीं  हैं  आपसे  रस्ता  सुझाइये

राहों में  यूँ  न   देश  की  रोड़ा लगाइये।१।



आता है भेड़िया तो कुछ हरकत दिखाइये

कमजोर गर  ये  हाथ  हैं  हल्ला  मचाइये।२।



कहते हो दूसरों की  है  सूरत अगर मगर

खुद को भी रोशनी में ये दर्पण दिखाइये।३।



होती नहीं  है भोर इक सूरज उगे से ही

गर देखनी हो भोर तो खुद को जगाइये।४।



बातों को दिल की रोज  ही ऐ …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 7, 2018 at 12:00pm — 13 Comments

आग़ोश -ए-जवानी ...

आग़ोश -ए-जवानी ...


न, न
रहने दो
कुछ न कहो
ख़ामोश रहो
मैं
तुम्हारी ख़ामोशी में
तुम्हें सुन सकता हूँ
तुम
एक अथाह और
शांत सागर हो
मैं
चाहतों का सफ़ीना हूँ
इसे अल्फाज़ की मौजों पर
रवानी दे दो
मेरे वज़ूद को
आग़ोश -ए-जवानी दे दो

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on July 6, 2018 at 12:00pm — 6 Comments

'समय तू ढर्रे-ढर्रे मत चल' (लघुकथा)

"मैं ... मैं समय हूँ!"



"चुप कर यह "मैं .. मैं" ! मालूम है कि तू समय है और इस सृष्टि का सब कुछ मय समय है तय समय में!" विज्ञान और तकनीक ने एक स्वर में व्यंग्य किया।



"लेकिन तू कितनी भी फुर्ती से कहीं से भी फिसल ले, तुझे अपनी हथेली में किसी कठपुतली की तरह नचा सकते हैं हम, भले मुट्ठी में तुझे क़ैद न कर सकें, समझे!" 'तकनीक' ने 'विज्ञान' के कंधों पर टांगें पसारते हुए आगे की तरफ़ क़दमताल कर अपनी हथेली दिखा कर पलटाते हुए कहा।



"इतने आत्ममुग्ध मत हो! जीत-हार,…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 6, 2018 at 9:59am — 5 Comments

अमानत (लघुकथा)

जमींदार रामलोचन की आर्थिक स्थिति उस स्तर पर पहुंच गई थी जहाँ कहा जाता है कि हाथी बिक गया जंजीर ढ़ो रहे हैं।

उधर गाँव के टेलर का लड़का हाथी खरीदने को आतुर था। तीनों पहर के भोजन की निश्चिंतता न थी, लेकिन बंगलौर के किसी फैशन संस्थान में नामांकन के लिए इंटरव्यू दे आया था । वहाँ फीस की रकम सुनकर ही समझ गया था ये रकम सीधे तरीके से वह हफ्ते भर में नहीं जुटा सकता ।

घर लौटने के रास्ते में उसने हर सीधे टेढ़े तरीके से सोचा तब उसे लगा जमींदार के घर में ही उसकी मंशा पूरी हो सकती है, वरना गाँव में…

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Added by Kumar Gourav on July 6, 2018 at 8:00am — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
पाँच दोहे (गणेश जी बाग़ी)

हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।
दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।

नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?
मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।

'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।
'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।

रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।
मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?

छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।
जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 5, 2018 at 9:51pm — 13 Comments

समय बड़ा बलवान - लघुकथा –

समय बड़ा बलवान - लघुकथा –

माँ मरणासन्न स्थिति में चारपाई पर पड़ी थी। संजीव चारपाई के पास बैठा आँसू बहा रहा था।

"क्यों रोये जा रहा है पगले? जाना तो सभी को एक दिन पड़ता ही है"।

"माँ, मैं इसलिये नहीं रो रहा हूँ। मेरे रोने की वज़ह कुछ और है"?

"अरे सब भूल जा अब। मेरा आखिरी वक्त है, खुशी खुशी विदा कर दे”|

"नहीं माँ, मैं जीवन भर सुशीला को माफ़ नहीं कर सकूंगा"?

"ओह, तो तू अपनी घरवाली सुशीला से नाराज है क्योंकि वह तेरे साथ मुझे देखने नहीं आई"?

"माँ, तू बहुत…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 5, 2018 at 5:16pm — 16 Comments

जीवन यथार्थ

संवेगों के झंझावात में

बहती रही सारी खुशियाँ

इतनी क्षणिक सिद्ध हुईं

आंसुओं के समंदर

डुबोते चले गए यादों को

इतनी कमजोर निकलीं

खामोशियों के बीच

गुस्से बदल गए नफ़रतों में

इतने अप्रत्याशित थे

आशाएँ और अभिलाषाएं

सिसक रही कहीं

दम तोड़ती सी ज्यों

पर जीवन की जुगुत्सा

जूझना सिखाती परिस्थिति से

सबक का एहसास कराते

सौहर्द्र, प्रेम और संभावनाओं का

निरंतरता, यथार्थता , शाश्वतता

यही जीवन है…

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Added by Neelam Upadhyaya on July 5, 2018 at 3:20pm — 14 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६०

जनाब बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल "ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे" की ज़मीन पे लिखी ये ग़ज़ल. 

122 122 122 12



ख़ुदा ग़र तू ग़म से रिहाई न दे

तो साँसों की मीठी दवाई न दे



भले अपनी सारी ख़ुदाई न दे

किसी को भी माँ की जुदाई न दे

मैं मर जाऊँ मिट जाऊँ हो जाऊँ ख़ाक़

मगर मुझको ख़ू ए गदाई न दे



तू रख सब असागिर को दुख से अलग

तू कोई भी…

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Added by राज़ नवादवी on July 5, 2018 at 10:30am — 5 Comments

दिल का साँचा

नींद आँखों से खफा –खफा है /

चली है ठंडी हवा वो याद आ रह है /

लिखा था मौसम किसी कागज़ पे/

टहलती आँख लफ्ज़ फड़फड़ा रहा है /

सिलवटें बिस्तरों पे नहीं सलामत /

दिल का साँचा हुबहू बचा हुआ है/

नक्ल करके नाम तो पा सकता हूँ /

पर मेरा वजूद इसमें क्या है?

वो आज भी रहता है मेरे आसपास /

मेरे बच्चे में मुस्कुरा रहा है |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित…

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Added by somesh kumar on July 5, 2018 at 7:24am — 5 Comments

रहमत में हरम मागा- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१ १२२२ २२१ १२२२



जितना भी सनम माँगा यूँ हमने है कम माँगा

मरने की नहीं हिम्मत जीने का ही दम माँगा।१।



होते ही सवेरा  नित  साया  भी डराता है

घबरा के उजाले से यूँ रात का तम माँगा।२।



सुनते हैं सभी कहते कम अक्ल हमें लेकिन

खुशियों में अकेले थे इस बात से गम माँगा।३।



चौपाल से बढ़ शायद महफूज लगा हो कुछ

ऐसे  ही  नहीं  उसने  रहमत  में  हरम माँगा।४।



ऐसे ही  नहीं  शबनम  पड़  जाती है रातों को

धरती का रह इक कोना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 5, 2018 at 6:30am — 16 Comments

जुआ (लघुकथा)

 ड्यूटी के बाद मैं घर को पैदल चल पड़ा। ऐसा आजकल मैं अकसर ही करता हूँ। क्यूँ कि डाक्टर ने मुझे ज्यादातर पैदल चलने को कहा है। कुछ कदम चलते ही मेरे साथ रिक्शा इक रिक्शा भी चलने लगा।

चलते हुए बार बार रिक्शे वाला रिकशे पर बैठने को कहता रहा।

“बाऊ जी,दस दे देना,मगर मैं चलता रहा, फिर उसने पास आकर कहा,चलो पाँच ही दे देना।"

“अरे भाई, बात पाँच या दस की नहीं, मैंने कहा। मैं बैठना नहीं चाहता।"

मगर इस बार उस के कहने में एक तरला सा लगा, “बाऊ जी, बैठ जाओ न।“

आखिर, मैं रिक्शे…

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Added by Mohan Begowal on July 4, 2018 at 11:30pm — 9 Comments

अकेली ...

अकेली ...

मैं

एक रात

सेज पर

एक से

दो हो गयी

जब

गहन तम में

कंवारी केंचुली

ब्याही हो गयी

छोटा सा लम्हा

हिना से

रंगीन हो गया

मेरी साँसों का

कंवारा रहना

संगीन हो गया

एक अस्तित्व

उदय हुआ

एक विलीन

हो गया

और कोई

मेरे अस्तित्व की

ज़मीन हो गया

अजनबी स्पर्शों की

मैं

सहेली हो गयी

एक जान

दो हुई

एक

अकेली हो गयी

सुशील…

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Added by Sushil Sarna on July 4, 2018 at 4:48pm — 11 Comments

बारिश के हाइकु



(1) ख़त्म तपन

हरा हुआ चमन

मचले मन ।

******

(2) भीगी है रात

बादलों की बारात

हो मुलाक़ात ।

******

(3) खेत-मैदान

हरियाली मचले

जीवन चले ।

******

(4) कहीं बरसे

मन मौजी बादल

धरा को बल ।

******

(5) नदियों में है

लहरों का यौवन

जल का धन ।

******

(6) घर-आँगन

जल की मनमानी

जीने की ठानी ।

******

(7)ककड़ी-भुट्टे

मन को ललचाते

सबको भाते ।

*******

(8) बूँदें…

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Added by Mohammed Arif on July 4, 2018 at 8:54am — 21 Comments

बड़ा सवाल(लघुकथा )

गीता पाठशाला से अभी घर पहुंची, उसने आते ही माँ से सवाल किया, “ प्रोजेक्ट पर काम तो हम सब बच्चों ने किया था।”

“हाँ, प्रोजेक्ट तो होता ही है कि सभी बच्चे एक साथ काम करें।” मम्मी ने गीता को समझाने के अंदाज़ में कहा

“तो प्रोजेक्ट हम सभी बच्चों की मेहनत से पूरा हुआ ” गीता ने फिर कहा।

"हाँ " ।

“इस का क्रेडिट भी हम बच्चों को मिलना चाहिए ”, गीता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा

“मगर इनाम तो हमें नहीं मिला", ये तो प्रिंसिपल को मिला” गीता ने कहा

“हाँ, बच्चे ऐसा ही होता है,…

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Added by Mohan Begowal on July 3, 2018 at 11:00pm — 9 Comments

कैसे अजब हैं लोग जो - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१ /२१२१ /२२२  /१२१२

खासों से बढ़ के  खास यूँ होते हैं आम भी

जिसने समझ लिया उसे मिलते हैं राम भी।१।



कैसे अजब हैं लोग जो कहते हैं यार ये

बदनामियों के साथ ही होता है नाम भी।२।



आती है जिसको भोर यूँ झट से अगर कहीं

ढलती है  उसकी  दोस्तो  ऐसे ही शाम भी।३।



अभिषेक हो रहा है अब सुनते शराब से

करने लगी हवस पतित देवों का धाम भी।४।



जब से गमों …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2018 at 7:35pm — 21 Comments

कोई दुपट्टा उड़ा रहा था

121 22 121 22

वो शख्स क्यूँ मुस्कुरा रहा था ।

जो मुद्दतों से ख़फ़ा रहा था ।।

वो चुपके चुपके नये हुनर से ।

सही निशाना लगा रहा था ।।

अदाएँ क़ातिल निगाह पैनी।

जो तीर दिल पर चला रहा था ।।

तबाह करने को मेरी हस्ती ।

कोई इरादा बना रहा था ।।

मुग़ालता है उसे यकीनन ।

नया फ़साना सुना रहा था ।।

बदलते चेहरे का रंग कुछ तो ।

तुम्हारा मक़सद बता रहा था…

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Added by Naveen Mani Tripathi on July 3, 2018 at 3:09pm — 12 Comments

ला-इलाज कैंसर की तरह

वक्त आता है

चला जाता है

हमे नही लगता कि

वक्त के आने और जाने से

कुछ फर्क पड़ता है

क्योंकि हम

अपने निकम्मेपन की धुन में

ही मग्न रहते है और

बीतती जाती है उम्र

फिर एक दिन जब दर्पण

हमे चेतावनी देता है

हम रह जाते हैं

अवाक् 

और भय से देखते है

अपने उजले हो चुके बाल

धंसी हई आँखें  

पोपला मुख

और सारे चेहरे पर

अनगिनत वक्त के निशान   

तब हम जान पाते हैं…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2018 at 11:26am — 9 Comments

ग़ज़ल (जानेमन मुझको मुहब्बत का ज़माना याद है)

(फाइलातुन _फाइलातुन _फाइलातुन _फाइलुन)



याद है तेरी इनायत, ज़ुल्म ढाना याद है |

जानेमन मुझको मुहब्बत का ज़माना याद है |

हम जहाँ छुप छुप के मिलते थे कभी जाने जहाँ

आज भी वो रास्ता और वो ठिकाना याद है |

भूल बैठे हैं सितम के आप ही क़िस्से मगर

दर्द, ग़म,आँसू का मुझको हर फ़साना याद है|

इस लिए दौरे परेशानी से घबराता नहीं

मुश्किलों में उनका मुझको मुस्कुराना याद है |

घर के बाहर यक बयक सुन कर मेरी आवाज़ को…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on July 2, 2018 at 5:30pm — 20 Comments

थप्पड़  -  लघुकथा –

थप्पड़  -  लघुकथा –

आज तीन साल बाद सतीश जेल से छूट रहा था। उसे सोसाइटी के मंदिर में चोरी के इल्ज़ाम में सज़ा हुई थी| घरवालों ने गुस्से में ढंग से केस की पैरवी भी नहीं की थी। । पिछले तीन साल के दौरान भी कोई उसे मिलने नहीं गया था। इसलिये घर में सब किसी अनहोनी  के डर से आशंकित  थे|

जेल से जैसे ही सतीश बाहर आया तो देखा कि उसे जेल पर लेने कोई नहीं आया । उसने कुछ दोस्तों को फोन किये, जो चोरी के माल में ऐश करते थे। लेकिन सब  बहाना बना कर टालमटोल कर गये।

घर पर पहुंच कर पता चला कि…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 2, 2018 at 4:30pm — 16 Comments

मुझे भी तुमसे मुहब्बत की आस है प्यारे।

मुझे भी तुमसे मुहब्बत की आस है प्यारे।

कदम-कदम पे सलीबों की प्यास है प्यारे॥

ख़यालो-ख्वाब, तसव्वुर भी जुर्म होते हैं।

चले भी आओ हर नज़ारा उदास है प्यारे॥

मुझे भी पढ़ के किताबों में दफ्न कर देना।

वाकिफ हैं तुम्हारी आदत खास है…

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Added by SudhenduOjha on July 2, 2018 at 1:00pm — No Comments

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