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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-182

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 182 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा मशहूर शायर अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़ल से लिया गया है।

तरही मिसरा है:

“तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ”

बह्र है मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु, फऊलुन् अर्थात् 221 1221 1221 122

रदीफ़ है ‘’के लिये आ’’ और क़ाफ़िया है ‘’आने’’ क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं खाने, गाने, छाने, जाने, ढाने, पाने, चलाने, मनाने, दिखाने, सजाने, पुराने, निभाने आदि

उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।

मूल ग़ज़ल:

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख

तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो

रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक 'उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम

ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़ह्‌म को तुझ से हैं उमीदें ये

आख़िरी शम'एँ भी बुझाने के लिए आ

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 23 अगस्त दिन शनिवार को हो जाएगी और दिनांक 24 अगस्त दिन रविवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

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मंच संचालक

तिलक राज कपूर

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

.

तू है तो तेरा जलवा दिखाने के लिए आ
नफ़रत को ख़ुदाया! तू मिटाने के लिए आ.
.
ज़ुल्मत ने किया घर तेरे बन्दों के दिलों में
उम्मीद का ख़ुर्शीद उगाने के लिए आ.
.
मर-कट गए इंसान तेरे नाम पे कितनें
उजड़ी हुई हर बस्ती बसाने के लिए आ.
.
बाहर भी निकल दैर-ओ-हरम से कभी अपने
भूखे को किसी रोटी खिलाने के लिए आ.
.
इक उम्र से मैं तुझ को रिझाने में लगा हूँ
//तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ.//
.
उम्मीद लगाई न तो रुसवा हुए तुझ से  
तू ख़ुद लिए आ या ज़माने के लिए आ.
.
मुद्दत से सितारे की चमक मांद पड़ी है
इस “नूर” का अब नूर बढ़ाने के लिए आ.
.
निलेश "नूर"

मौलिक / अप्रकाशित 

मतला बहुत खूबसूरत हुआ,  आदरणीय भाई,  नीलेश ' नूर!

दूसरा शे'र भी कुछ कम नहीं हुआ।  दूसरे शे'र का सानी, 

"उम्मीद का ख़ुर्शीद उगाने ( जगाने ) के लिए  आ" 

वैकल्पिक रूप मे कदाचित बेहतर होता !

 तीसरा शे'र भी खूबसूरत हुआ। 

चौथा शे'र का सानी ,

" भूखे को किसी ( कभी ) रोटी खिलाने के लिए आ  "

आप  निश्चित ही बेहतर कर सकते थे !

गिरह लाजवाब हुई है !

छठे शे'र  का सानी " तू ख़ुद लिए आ या ज़माने के लिए आ "

कुछ कमी का अहसास कराता है, मुझे विश्वास है, आप इसे और  बेहतर कर सकते थे !

बाकी, आपका मक़ता, हमेशा की तरह नायाब हुआ  !

सादर

धन्यवाद आ. चेतन प्रकाश जी.
.
ख़ुर्शीद (सूरज) ..उगता है अत: मेरा शब्द चयन सहीह है.
भूखे को किसी ही दुरुस्त है ... कभी यानी एकाध बार, भिले बिसरे कभी.. मैं स्पेसिफिक बात कह रहा हूँ ... मंदिर, मस्जिद के बाहर कई भूखे बैठे रहते हैं.. उनमे से किसी भी एक के लिए तो आ ..
.
तू ख़ुद लिए आ या ज़माने के लिए आ ... सानी के परिपेक्ष्य में पढेंगे तो डीटेचमेंट  समझ पाएंगे ...
मुझे न उम्मीद है न रुसवाई...
आना है तो ख़ुद के लिए आ या उनके लिए जो इंतज़ार में हैं यानी ज़माना ..
.
आप की दाद का शुक्रिया.
आशा है मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाया हूँ 

आदरणीय नीलेश जी, आपकी प्रस्तुति का आध्यात्मिक पहलू प्रशंसनीय है. 

अलबत्ता, ’तू ख़ुद लिए आ या ज़माने के लिए आ’ में वस्तुतः  ’के’ लगता है टाइप होने से रह गया है..  ’तू खुद के लिए आ या जमाने के लिए आ’ 

वैसे आप से अश’आर में तनिक और कसावट और नफासत की उम्मीद थी. 

शुभातिशुभ

धन्यवाद आ. सौरभ सर,
आपने ठीक ध्यान दिलाया. ख़ुद के लिए ही है. 
यह त्रुटी इसलिए हुई कि मैंने पहले अपने लिए लिखा था... अपने हटा तो ख़ुद टाइप कर दिया लेकिन के रह गया.
अशआर की कसावट भी हमेशा बेहतर हो सकती है .. सहमत हूँ. व्यस्तता  के चलते सहभागिता से मैं चूक न जाऊं  सो यह ग़ज़ल सिर्यफ  चंद मिनिटों में कल रात ही कही है जिसे दोबारा देखने तक का समय नहीं मिल पाया है.
खैर अब किताब छपने तक अन्य सभी ग़ज़लों की तरी यह भी पकती रहेगी.
त्रुटी की तरफ़ ध्यान दिलाने का आभार 

एक बात होती है शायर से उम्मीद, दूसरी होती है उसकी व्यस्तता और तीसरी होती है प्रस्तुति में हुई कोई त्रुटि।

किसी शायर को पढ़ते पढ़ते उससे उम्मीद बढ़ती जाती है लेकिन पढ़ने पर यह भी समझ आ जाता है व्यस्तता के कारण समय नहीं दिया जा सका या कोई त्रुटि अनजाने में हो गयी। 

यह सही है कि हर ग़ज़ल अपना समय मॉंगती है, बहुत कम होता है कि कोई शेर पहली बार में ही श्रेष्ठता के स्तर पर हो। उसकी उम्मीद भी नहीं होना चाहिये किसी तरही में।

कुल मिलाकर ग़ज़ल अच्छी रहीं, इसके प्रति आश्वस्त रहें। 

 

ग़ज़ल अच्छी हुई।


बाहर भी निकल दैर-ओ-हरम से कभी अपने
भूखे को किसी रोटी खिलाने के लिए आ.

दूसरी पंक्ति में शब्द स्थान परिवर्तन मात्र से प्रवाह भिन्न होता
रोटी, किसी भूखे को, खिलाने के लिए आ.
.
इक उम्र से मैं तुझ को रिझाने में लगा हूँ
//तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ.//

खूबसूरत गिरह हुई।
.
उम्मीद लगाई न तो रुसवा हुए तुझ से  
तू ख़ुद लिए आ या ज़माने के लिए आ.

दूसरी पंक्ति में ‘के’ छूट गया है।
इसकी प्रथम पंक्ति में एक शब्द मात्र से परिवर्तित रूप देखें
उम्मीद लगाई, न ही रुसवा हुए तुझ से
तू ख़ुद के लिए आ या ज़माने के लिए आ.


  ख़्वाहिश ये नहीं मुझको रिझाने के लिए आ

  बीमार को तो देख के जाने के लिए आ

  परदेस जा के याद भी आई न हमारी

  आ मुल्क से रिश्ता तो निभाने के लिए आ

  अब के जो गया लौट के आऊंगा नहीं मैं

  आ एक दफ़ा और सताने के लिए आ

  पानी में हैं ये तैरती सूनी सी निगाहें

  कपड़े ही कभी छत पे सुखाने के लिए आ

  मय्यत पे मेरी आया पूरा शह्र मगर तू

  आया था नहीं क्यूँ ये बताने के लिए आ

  हसरत ये लिए ही न चला जाऊँ मैं जग से

  "तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ"

 मौलिक एवं अप्रकाशित 

  

तरही की ग़ज़लें अभ्यास के लिये होती हैं और यह अभ्यास बरसों चलता है तब एक मुकम्मल शायर निकलता है। आरंभ बह्र, रदीफ़ काफ़िया का निर्वाह भी काफ़ी माना जाता है मगर फिर वाक्य रचना के सिद्धान्तों से होते हुए बात कहन तक पहुँचती है। 

कुछ सरल उदाहरण दे रहा हूँ:

ख़्वाहिश ये नहीं मुझको रिझाने के लिए आ
बीमार को तो देख के जाने के लिए आ।

शेर में बात खूबसूरत है लेकिन कसावट की ज़रूरत है। दूसरी पंक्ति देखें
बीमार कभी देख के जाने के लिए आ।

 

परदेस जा के याद भी आई न हमारी
आ मुल्क से रिश्ता तो निभाने के लिए आ।

इसमें भी पहले शेर सी स्थिति है। उदाहरण देखें
परदेस में जा कर तू हमें भूल गया है
है मुल्क से रिश्ता तो निभाने के लिए आ।

यही स्थिति अन्य शेर की है।

221 1221 1221 122

1

मुझसे है अगर प्यार जताने के लिए आ।
वादे जो किए तू ने निभाने के लिए आ।।

2

मुझको तू तेरा हाल सुनाने के लिए आ।
दिल में जो छुपी बात बताने के लिए आ।।

3

तू दिल पे लगें जख़्म भराने के लिए आ।
रिश्तों पे पड़ी धूल हटाने के लिए आ।।

4

मरहम मेरे जख़्मों पे लगाने के लिए आ।
दिल में जो लगी आग बुझाने के लिए आ।।

5

खण्डहर हो चुका शह्र मेरे दिल का जो कब से।
इक बार उसे फिर तू बसाने के लिए आ।।

6

सच जान मज़ा आ न रहा कुछ भी तेरे बिन।
महफ़िल में तू कुछ रंग जमाने के लिए आ।।

7

जाना न कहीँ छोड़ के मझदार में मुझको।
ता उम्र मेरा साथ निभाने के लिए आ।।

8

हर बार पहल मैं न करूँगा ये समझ ले।
"तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ।।"

मौलिक व अप्रकाशित

मतला नहीं हुआ,  जनाब  ! मिसरे परस्पर बदल कर देखिए,  कदाचित कुछ बात  बने !

दूसरा, मतला मुझे सही जान पड़ता है।

अन्य मतले के शे'र नियमानुसार अमान्य हैं ! साथ ही उनमें रब्त  नहीं है।

पाँचवा शे'र  बह्र में नहीं है।

छठा शे'र सही जान पड़ा !

सातवाँ शे'र जँचा नहीं, और समय चाहता है ! सही शब्द मझधार है !

गिरह अच्छी हुई है।

आठ शे'र ... फिर भी मक़ता नदारद, धैर्य रखकर, बह्र पर अतिरिक्त परिश्रम की आवश्यकता महसूस होती है !

आराम  गया  दिल का  रिझाने के लिए आ

हमदम चला आ दुख वो मिटाने के लिए आ 

है ईश तू जग का तो हँसाने के लिए आ

उपदेश जो गीता है निभाने के लिए आ

बरहम हुआ आदम वो तो भटका है निशाना

रहबर है तू रस्ता तो दिखाने के लिए आ 

कोई भी ज़मीं हो वो मुहब्बत सी नई हो

जादू वो ग़ज़ल में तू जगाने के लिए आ 

हो सोच की आज़ादी अभी सारे जहाँ में

हिटलर न हो वो ट्रम्प भगाने के लिए आ 

ता उम्र तुझे रक्खा है सर आँखों पे जानाँ

तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ  ( गिरह )

तू ग़ैर की है तो सही रह उसकी ही 'चेतन'

मय्यत पे मगर मेरी ज़माने के लिए आ 

मौलिक व अप्रकाशित 

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