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All Blog Posts Tagged 'लघुकथा' (990)

पुरानी पहचान-लघुकथा

"अरे, उस भलेमानस के पास जाना है, चलिए मैं ले चलता हूँ", सामने वाले व्यक्ति ने जब उससे यह कहा तो उसे एकबारगी भरोसा ही नहीं हुआ. अव्वल तो लोग आजकल किसी का पता जानते ही नहीं, अगर जानते भी हैं तो एहसान की तरह बताते हैं. और राकेश के बारे में उसकी राय तो भलेमानस की बिलकुल ही नहीं थी.

चंद साल ही तो हुए हैं जब राकेश उसकी टोली का सबसे खतरनाक सदस्य हुआ करता था. किसी को भी मारना पीटना हो, धमकाना हो या वसूली करनी हो तो राकेश सबसे आगे रहता था. और इसी वजह से उसे एक प्राइवेट फाइनेंस कंपनी में नौकरी भी…

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Added by विनय कुमार on April 25, 2019 at 7:14pm — 6 Comments

पत्ता परिवर्तन / लघुकथा

वह ताश की एक गड्डी हाथ में लिए घर के अंदर चुपचाप बैठा था कि बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि बाहर कुर्ता-पजामाधारी ताश का एक जाना-पहचाना पत्ता फड़फड़ा रहा था। उस ताश के पत्ते के पीछे बहुत सारे इंसान तख्ते लिए खड़े थे। उन तख्तों पर लिखा था, "यही है आपका इक्का, जो आपको हर खेल जितवाएगा।"

 

वह जानता था कि यह पत्ता इक्का नहीं है। वह खीज गया, फिर भी पत्ते से उसने संयत स्वर में पूछा, "कल तक तो तुम अपनी गड्डी छोड़ गद्दी पर बैठे थे, आज इस खुली सड़क में फड़फड़ा…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 23, 2019 at 10:20pm — 3 Comments

लड़की (लघुकथा)

अम्मा को चारपाई पर लेटे देख बिटिया किशोरी भी उसके बगल में लेट गई और दोनों हाथों से उसे घेर कर कसकर सीने से लगाकर चुम्बनों से अपना स्नेह बरसाने लगी। इस नये से व्यवहार से अम्मा हैरान हो गई। उसने अपनी दोनों हथेलियों से बिटिया का चेहरा थामा और फ़िर उसकी नम आंखों को देख कर चौंक गई। कुछ कहती, उसके पहले ही बिटिया ने कहा :



"अम्मा तुम ज़मीन पे चटाई पे लेट जाओ!"



जैसे ही वह लेटी, किशोरी अपनी अम्मा के पैर वैसे ही दाबने लगी, जैसे अम्मा अपने मज़दूर पति के अक्सर दाबा करती…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 23, 2019 at 6:19pm — 4 Comments

"ओ आली, कौन अली; कौन महाबली?" (लघुकथा) :

छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :



पहला :



"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"



दूसरा :



"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"



फ़िर तीसरा बोला :



"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"



दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 22, 2019 at 3:32pm — 2 Comments

आम चुनाव और समसामायिक संवाद (लघुकथाएं) :

(1).चेतना :



ग़ुलामी ने आज़ादी से कहा, "मतदाता सो रहा है, उदासीन है या पार्टी-प्रत्याशी चयन संबंधी किसी उलझन में है, उसे यूं बार-बार मत चेताओ; हो सकता है वह अपने मुल्क में किसी ख़ास प्रभुत्व या किसी तथाकथित हिंदुत्व या किसी इमरजैंसी के ख़्वाब बुन रहा हो!"

आज़ादी ने उसे जवाब दिया, "नहीं! हमारे मुल्क का मतदाता न तो सो रहा है; न ही उदासीन है और न ही किसी उलझन में है! उसे चेताते रहना ज़रूरी है! हो सकता है कि वह तुष्टीकरण वाली सुविधाओं, योजनाओं, क़ानूनों से आज़ादी का मतलब भूल गया हो या…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2019 at 3:30pm — 2 Comments

तूलिकायें (लघुकथा) :

नयी सदी अपना एक चौथाई हिस्सा पूरा करने जा रही थी। तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ मुल्क का लोकतंत्र भी मज़बूत होते हुए भी अच्छे-बुरे रंगों से सराबोर हो रहा था। काग़ज़ों और भाषणों में भले ही लोकतंत्र को परिपक्व कहा गया हो, लेकिन लोकतंत्र के महापर्व 'आम-चुनावों' के दौरान राजनीतिक बड़बोलेपन के दौर में यह भी कहा जा रहा था कि अमुक धर्म ख़तरे में है या अपना लोकतंत्र ही नहीं, मुल्क का नक्शा भी ख़तरे में है! कोई किसी बड़े नेता, साधु-संत, उद्योगपति, धर्म-गुरु या देशभक्त को चौड़ी छाती वाला इकलौता 'शेर' कह रहा था,…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 16, 2019 at 5:30pm — 5 Comments

विवशतायें (लघुकथा) :

बहाव को रोकने के लिये किसी भी प्रकार के बंध या बंधन काम नहीं आ पा रहे थे। तेज बहाव के बीच एक टीले पर कुछ नौजवान अपनी-अपनी क्षमता और सोच अनुसार विभिन्न पोशाकें पहने, विभिन्न स्मार्ट फ़ोन, कैमरे और दूरबीनें लिए हुए बहती तेज धाराओं के थमने या थमाये जाने; बचाव दल के आने या बुलवाये जाने; नेताओं, मंत्री, यंत्री, धर्म-गुरुओं अथवा विशेषज्ञों के दख़ल करने या करवाने के भरोसे, प्रतीक्षा और शंका-कुशंकाओं के साथ माथापच्ची करते हुए एक-दूसरे के हाथ थामे खड़े हुए थे। कोई तटों की ओर देख रहा था, तो कोई आसमां की…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 15, 2019 at 9:31pm — 6 Comments

डाटा रिकवरी! (लघुकथा) :

कई दिनों से टल रहा काम निबटा कर, थके-हारे मिर्ज़ा मासाब अपने अज़ीज़ दोस्त पंडित जी के साथ अपने घर वापस पहुंचे। अपनी नाराज़ बेगम साहिबा को कुछ इस अंदाज़ में देखने लगे कि बेगम का ग़ुस्सा फ़ुर्र से उड़ गया!



"क्या बात है पंडित जी! आज ये हमें इस तरह क्यूँ घूर रहे हैं!" कुछ शरमा कर मुस्कराते हुए बेगम ने अपने पल्लू की आड़ लेकर कहा।



"डाटा रिकवरी करवा कर आये हैं मिर्ज़ा जी के लेपटॉप की!" पंडित जी ने दोस्त का कंधा दबाते हुए कहा।



"अच्छा! वो तो बहुत बढ़िया किया आपने। बहुत…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 13, 2019 at 11:30pm — 5 Comments

संस्कार- लघुकथा

"हम तो आज भी पल्लू सरक जाए तो तुरंत ठीक कर लेते हैं. लेकिन ये आजकल की बहुरिया, मजाल है कि पल्लू सर पर टिके", रुक्मणि को नई बहू का कपड़ा पहनना बिलकुल नहीं भा रहा था और वह रवि के सामने भी कहने से नहीं चूकीं.

रवि ने पलटकर उनकी तरफ देखा और मुस्कुरा दिए. वह भी नई बहू को पिछले दो दिन से बमुश्किल साड़ी सँभालते देख रहे थे.

"अब हर आदमी तुम्हारी तरह तो नहीं बन सकता ना राजेश की अम्मा, तुमको पता तो है कि बहू शहर में नौकरी करती है और इसके नीचे कई लोग काम भी करते हैं", रवि ने बात सँभालने की कोशिश…

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Added by विनय कुमार on April 9, 2019 at 6:18pm — 12 Comments

'आह क्या सीन है!' (लघुकथा) :

कई दिनों देश-विदेश यात्राएं कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों और परिदृश्यों की साक्षी होने के बाद एक मशहूर पुस्तकालय का मुआयना करते हुए उन दोनों ने अपनी लम्बी चुप्पी यूं तोड़ ही दी :



"यह भी सभ्य लोगों का ही एक अड्डा है!"



"बाहर से इंसान कुछ भी दिखे, अंदर से तो प्राय: उसका चरित्र भद्दा है!" सभ्यता की बात पर असभ्यता ने कहा।



"संक्रमण-काल है! वैश्वीकरण में मिलावट का दौर है! स्वार्थी तकनीकी तरक़्क़ी का मुद्दा है!" एक आह भरते हुए सभ्यता ने कहा और पुस्तकालय में सलीके से…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2019 at 9:23pm — 7 Comments

इति सिद्धम (लघुकथा)

डियर संस्कार,

चौंक तो गये होगे! मोबाइल एप्स से, सोशल मीडिया पर या ऑनलाइन अपनी बात कहने के बजाय इस ख़त से ही अपने अंजाम से वाक़िफ़ करा रहा हूं तुम्हें। आख़िर तुमने ही तो सुसाइड के लिए मज़बूर कर दिया! ख़ूब घमंड था मुझे अपनी ऑनलाइन पढ़ाई पर! माडर्न अपडेटिड छात्र समझने लगा था मैं अपने आपको। स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशनों की पढ़ाई और फिर सोशल मीडिया, मोबाइल गेम, आधुनिक दोस्त-यारी, फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी इन सब में मशगूल रहते हुए ऑनलाइन अपने हसीन करियर की हसीन रणनीति बनाया करता था मैं! रात भर…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 31, 2019 at 11:00am — 4 Comments

'कागा उवाच' (लघुकथा) :

तीनों प्यासे थे। अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार वे पानी की तलाश कर चुके थे। मुश्किल से एक सुनसान जगह पर एक झुग्गी के द्वार के पास एक मटका उन्हें दिखाई दिया। बारी-बारी से तीनों ने उसमें झांका। फिर गर्दन झुकाकर एक दूसरे को उदास भाव से देखने लगे। मटके में पानी का तल काफी नीचे था।



बहुत ज़्यादा प्यासे कौए ने पुरानी लोककथा अनुसार काफी कंकड़-पत्थर चोंच से उठा-उठा कर मटके में डाल कर पानी का स्तर ऊपर लाने की कोशिश की, लेकिन उसे उस कथा की कल्पना की सच्चाई समझ में आ गई। थक कर वह बैठ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 22, 2019 at 6:30pm — 6 Comments

'मुझे भी!' (लघुकथा) :

आज होलिका दहन दिवस था। पहले से लिए गए फैसले के अनुसार अधिकतर लोग कोई न कोई सफ़ेद पोशाक पहन कर आये थे। होली अवकाश के पहले विद्यालय में छुट्टी होने के एक घंटे पूर्व परीक्षा मूल्यांकन कार्य के बीच स्टाफ को गुलाल से होली खेलने की अनुमति जैसे ही मिली महिला स्टाफ लायी हुई अपनी गुलाल की पुड़ियें खोलकर एक-दूसरे को तिलक कर गालों पर रंगीन गुलाल पोतने लगीं। एक-दो नौजवान पुरुष शिक्षक भी उनमें शामिल हो गये। शेष परीक्षा-मूल्यांकन कार्य में जुटे रहे। मोबाइल कैमरों से फ़ोटो, सेल्फ़ी व वीडियो का दौर भी शुरू…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 20, 2019 at 3:56pm — 9 Comments

प्लेन उड़ाती लडकियां

प्लेन उड़ाती लडकियां

(लघुकथा)

एयरोनॉटिकल शो। किस्म किस्म के हवाई जहाज़ आसमान में करतब दिखाते उड़े जाते हैं। अधिकतर प्लेन लड़कियां उड़ा रही हैं।

"पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी...।" एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है।

लड़कियां आसमान में प्लेन उड़ा रही हैं। लड़कियां आसमान छू रही हैं। लड़कियों का आत्मविश्वास आसमान पर है और एक छोटी बच्ची अपने पिता से ज़िद कर रही है, "पापा, पापा... मैं भी प्लेन उड़ाऊंगी।"

लोग कहते हैं, “लड़कियों को पंख लग गये…

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Added by Mirza Hafiz Baig on March 9, 2019 at 7:58pm — 8 Comments

"क़तरा-क़तरा मेरा-तेरा!" (लघुकथा) :

अपने दिल के टुकड़े को अपने सीने से अचानक चिपटे देख उसने कहा -"स्वागत-अभिनंदन, ख़ैर-मक़्दम बहादुर, मेरे लख़्ते-जिगर!"

अपने ही भू-खंड पर पैराशूट समेत गिरा जवां पायलट सैनिक पहले तो भौंचक्का था, इस भ्रम में कि यह भू-खंड उसका अपना वाला है या पड़ोसी मुल्क द्वारा हथियाया हुआ! फ़िर जब उसने कुछ युवकों से पुष्टि करनी चाही, तो उनके जवाब सुन वह  चौकन्ना हो गया। उसके ज़ख़्मी मुख से देशभक्ति के नारे समां में गूंज उठे।

"अभिनंदन मेरे अज़ीज़ शेर-ए-हिंद!" एक अजीब सी क़ैद से रिहा…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 8:11pm — 6 Comments

ज़माने के आशियाने (लघुकथा) :

 मिर्ज़ा मासाब को रिटायर होने में आठ-दस साल ही बाक़ी थे। परिवार के प्रति सारे फ़र्ज़ अदा कर चुके थे । एक बढ़िया सा मकान हो जाये और हज अदा हो जाये; बस यही आरजू रह गई थी। पैसों का इंतज़ाम तो हो गया। अब इस सदी में मुल्क के ऐसे हालात में इस बस्ती का पुराना घर बेचकर नये ज़माने का मकान कब, कहां व कैसे बनवाएं या बना बनाया ख़रीदें; बस यही उनके दिमाग़ में था। इसी सिलसिले में एक चर्चित सोसाइटी में वे अज़ीज़ दोस्त महफ़ूज़ का फ्लैट देखने पहुंचे। मुआयना किया। जानकरियां जमा कीं। सकारात्मक व नकारात्मक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments

प्यार का दंश या फर्ज

प्यार का दंश या फर्ज

तुलसीताई के स्वर्गवासी होने की खबर लगते ही,अड़ोसी-पड़ोसी,नाते-रिश्तेदारों का जमघट लग गया,सभी के शोकसंतप्त चेहरे म्रत्युशैय्या पर सोलह श्रंगार किए लाल साड़ी मे लिपटी,चेहरे ढका हुआ था,पास जाकर अंतिम विदाई दे रहे थे.तभी अर्थी को कंधा देने तुलसीताई के पति,गोपीचन्दसेठ का बढ़ा हाथ,उनके बेटों द्वारा रोकने पर सभी हतप्रद रह गए.पंडितजी के आग्रह करने पर भी,अपनी माँ की अंतिम इच्छा का मान रखते हुये, ना तो कंधा लगाने दिया,ना ही दाहसंस्कार में लकड़ी.यहाँ तक कि उनके चेहरे के अंतिम…

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Added by babitagupta on February 26, 2019 at 4:24pm — 3 Comments

'बेसुरे सुर-ताल' (लघुकथा) :

"न बाबा, तुम भले इसे बस्ता या स्कूल-बैग कह लो; लेकिन मेरी नज़र में यह बालक के कंधे पर समय का बोझ है! समय-चक्र की मार!" सड़क पर स्कूल से घर लौटते एक बालक के बोझिल झुके कंधे देखकर मिर्ज़ा जी ने अपने दोस्त राजवीर मासाब से कहा।

"भाईजान, समय के साथ हमें और विद्यार्थियों को चलना ही पड़ेगा। हमारे, उनके और मुल्क के हालात अपनी जगह और ज़माने के साथ हमारी लय-ताल अपनी जगह!"

"हा हा हा.. लय-ताल! ... या पाठ्यक्रमों का सुनियोजित बवाल! नई आयातित शिक्षण-पद्धतियों के सागर या सुर-ताल। न तैराक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 18, 2019 at 8:00pm — 4 Comments

जन्नत- लघुकथा

कल से ही खबर आ रही थी कि क्षेत्र में कुछ संदिग्ध लोग देखे गए हैं और रात में चौकसी बढ़ा दी गयी थी. हमेशा की तरह रमेश और रोशन एक साथ ही नाईट ड्यूटी पर थे. जैसे जैसे रात आगे बढ़ रही थी, चारो तरफ अँधेरा कुछ यूँ गहरा रहा था मानो इस रात की सुबह होगी ही नहीं. अचानक एक खटका हुआ और रोशन ने अपनी राइफल आवाज़ की तरफ तान दी. कुछ मिनट तक सन्नाटा रहा और उनको लग गया कि कोई खतरा नहीं है.

"तू तो निरा डरपोक ही है रोशन, जरा सी आहट हुई नहीं कि घबरा जाता है", रमेश ने उसे छेड़ते हुए कहा.

"अच्छा तो पंडित, तू…

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Added by विनय कुमार on February 18, 2019 at 7:20pm — 2 Comments

इसी वजह से- लघुकथा

आज बचवा चाचा बहुत उदास दरवाजे पर बैठे थे. वैसे तो उदास उनका पूरा गांव ही हो गया था, अधिकांश नौजवान शहरों के बिजबिजाते भीड़ का हिस्सा बनने चले गए थे. कुछ जो बचे थे वह गांव में अक्सर रात को ही आते थे, दिन में तो उनका समय देसी शराब के ठेके या सिनेमा हाल पर ही बीतता था. हर घर में इक्का दुक्का बुजुर्ग ही बचे थे जो दिन को किसी तरह काट रहे थे. जितना होता एक दूसरे से बात करते या अपने अपने रोग को लेकर खटिया पर पड़े रहते.

गांव था तो गांव के अपने सुख दुःख भी थे. सबसे ज्यादा झगड़ा तो खेतों को लेकर ही…

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Added by विनय कुमार on February 4, 2019 at 7:03pm — 6 Comments

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