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All Blog Posts Tagged 'कविता' (987)

गाँव जबसे कस्बे - -- -

गाँव जबसे कस्बे - - - -

गाँव जबसे कस्बे

होने लगे |

बीज अर्थों के,रिश्तों में

बोने लगे |

गाँव जबसे कस्बे- - - -

पेपसी,ममोज़ चाऊमीन से

कद बढ़ गया |

सतुआ-घुघुरी-चना-गुड़ से

बौने लगे |

पातियों का संगठन

खतम हो गया

बफ़र का बोझ अकेले ही

ढोने लगे |

गाँव जबसे कस्बे- - - -

पत्तलों कुल्ल्हडो की

 खेतियाँ चुक गईं |

थर्माकोल-प्लास्टिक से

खेत बोने लगे…

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Added by somesh kumar on June 15, 2017 at 9:30am — 3 Comments

एक दो तीन - -

एक दो तीन- - - एक दो तीन

फिर अनगिन

मन्डराती रहीं चीलें

घेरा बनाए

आतंक के साएँ में

चिंची-चिंची-चिंची

पंख-विहीन |

एक दो तीन- - -

फुदकी इधर से

फुदकी उधर से

घुस गई झाड़ी में

पंजों के डर से

जिजीविषा थी जिन्दा

करती क्या दीन !

एक दो तीन- - -

झाड़ी में पहले से

कुंडली लगाए

बैठे थे विषदंत

घात लगाए

टूट पड़े उस पे

दंत अनगिन | एक दो तीन- - -

प्राणों को…

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Added by somesh kumar on June 10, 2017 at 10:14am — 3 Comments

बेटी

किसी से कम रहो ना  बेटी  , पढ़ो बढ़ो  तुम आगे जाओ  |
अडिग रहो अपने ही पथ पर ,  तुम कदम ना पीछे हटाओ  |
नाम करो अपना इस  जग में , बढ़ो  सुता  तुम कदम बढ़ाओ |
हर मुश्किल में रहे हौसला , हर गम सहकर बढ़ते जाओ   |…
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Added by Shyam Narain Verma on June 3, 2017 at 4:39pm — 4 Comments

जो चाहेगा वो हंस लेगा - डॉo विजय शंकर

बातें ,
वादे ,
इरादे ,
जब पूरे न हों
तो बात बदल दो ,
इरादे बदल दो ,
चुटकुले सुना दो,
लोगो को हंसा दो ,
इस पर हंस लो ,
उस पर हंस लो ,
जिस पर चाहो
उस पर हंस लो ,
खुद पर हंस लो।
खुद पर ?
खुद पर क्यों ?
नहीं , खुद पर मत हंसो।
ये काम कल कोई और कर लेगा ,
जो चाहेगा वो कर लेगा ,
जो चाहेगा वो हंस लेगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 22, 2017 at 12:28pm — 1 Comment

सही - गलत -- डॉo विजय शंकर

हम इसके गलत की बात करते हैं
उसके गलत की बात नहीं करते हैं ,
हम इसके उसके की बात करते हैं
सही गलत की बात नहीं करते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 8, 2017 at 8:00pm — 10 Comments

खुद आंसू पीते हैं

अहदे नौ में
माएं दूध पिलाती नहीं हैं
गायें भैसें  कसाईयों से बच पाती नहीं हैं
इससे तकलीफ उन्हें नहीं होती है
जो खरीद सकते हैं दूध
सोने की कीमतों पर…
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Added by Dr Ashutosh Mishra on April 22, 2017 at 5:51pm — 10 Comments

दो कवितायें

दो कवितायें

 

दोस्त

जब मेरे पास दोस्त थे

तब दोस्तों के पास कद हद पद नहीं थे

और जब दोस्तों के पास पद हद कद थे

मेरे पास दोस्त नहीं

 

धन 

 जब मेरे पास धन नहीं था

तब समझते थे सब मुझे बदहाल

पर मैं खुश था , बहुत खुश था

और जब मेरे पास है अकूत सम्पति

दुनिया मुझे खुशहाल समझती है

और मैं  तडपता हूँ बिस्तर पर

नींद के सुकून से भरे एक झोंके के…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on April 18, 2017 at 3:10pm — 10 Comments

अनिश्चित भविष्य (कविता) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कुण्ठित व्यथित
या हुए
व्यथित कुण्ठित !

विघटित संगठित
या हुए
संगठित विघटित !

अघटित घटित
या हुआ
घटित अघटित !

निश्चित अनिश्चित
या है
अनिश्चित निश्चित
भविष्य
देश का !

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 19, 2017 at 3:25pm — 8 Comments

किसका क़द ऊँचा? (अतुकांत)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

किसका क़द है ऊँचा ?

पुस्तकों का ?

बच्चों का ?

पालकों का ?

शिक्षा-नीति का ?

सत्ता का ?

व्यापार का?

अंग़्रेज़ियत का ?

इन्सानियत का ?

इंटरनेट का ?

अमरीका का ?

बिल गेट्स का ?

भारतीय का?



कौन ऊपर उठता ?

कौन बस गिरता ?

भारत माता हँसती,

या हम पर

जग हँसते ?



क़िताबें हम पर

हँसतीं,

या इंटरनेट हँसता

पुस्तकों पर ?



या हँसता तोता

तोतले तोतों पर !

तोते उड़ते

या क़ैद… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 9, 2017 at 8:30pm — 4 Comments

एक ख़तरनाक आतंकवादी

ढूँढो किसी मुफ़लिस को

ग़ुमनाम तंग गलियों से

और फिर मुफ़ीद जगह पर

कर दो एनकाउण्टर

मगर आहिस्ते से

इतने आहिस्ते

कि चल सके पूरे दिन

दहशत का लाइव शो

इस बात को ध्यान में रखते हुए

कि उसे करना है घोषित

भोर की पहली किरण से ही

एक ख़तरनाक आतंकवादी

और फिर रख देना है

उसकी लाश के पास

एक झण्डा

कुछ किताबें

नक़्शे और नोट

व थोड़े से हथियार

जिससे ये डर पुख़्ता होकर

बदल जाए मज़हबी वोटों में

और बना दे अपनी… Continue

Added by Mahendra Kumar on March 8, 2017 at 8:30pm — 14 Comments

अपूर्ण रह जाती है मेरी हर रचना -आशुतोष

अपनी जाई

गोद में खिलाई

लाडली सी बिटिया

जो कभी फूल

तो कभी चाँद नजर आती है/

जिसके लिए पिता का पितृत्व

और माँ की ममता

पलकें बिछाते हैं;

किन्तु उसी लाडली के

यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही,

उसके सुखी जीवन की कामना में जब

उसके हमसफ़र की तलाश की जाती है/

तब उसके चाल चलन

उसकी बोली , उसकी शिक्षा

रंग रूप , कद काठी

सब कुछ जांची परखी जाती है .....

किसी की नजर तलाशती है

उसमे काम की क्षमता

कोई ढूंढता है… Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on March 4, 2017 at 11:33am — 9 Comments

आर टी ओ बिभाग की हकीकत

कविता 3

परिवहन बिभाग

एक दिन होकर तैयार

अपनी नयी नवेली कार पर सवार

मैंने बनाया लखनऊ शहर घूमने का बिचार

लाजवन्ती नव् बिवाहिता के हौले हौले हटते घूंघट की तरह

हौले हौले गाड़ी को आगे बढ़ाया

गोमती नगर से ज्यों ही गाड़ी आगे बढ़ाई

पोलिश चौकी नजर आयी

सिपाही से होते ही नजरें चार

सिपाही बोला आईये सरकार

हमने कहा फरमाईये

उसने कहा

आर सी और बीमा के कागज़ दिखाईये

मैंने बड़े आत्म बिश्वास से दिखाए

सिपाही ने जब जांचा तो सही पाये

सिपाही ने… Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on February 19, 2017 at 7:38am — 8 Comments

आओ सजनी // रवि प्रकाश

आओ इक दूजे से कह लें

दिन का हाल रात की बातें

सौगातें हर बीते पल की

याद करें फिर से सजनी

रजनी ये फिर क्यों लौटेगी

जो बीत गई तो बीत गई

कल रीत नई चल निकलेगी

जब आएगा सूरज नूतन

उपवन-उपवन क्या बात चले

गलियों में कैसी हलचल हो

कलकल हो कैसी सरिता में

अम्बर का विस्तार न जाने

अनजाने रंगों में ढल कर

सारे जग पर छा जायेगा

गा पाएगा फिर भी क्या मन

वही प्रीत का गीत पुराना

वही सुहाना मौसम फिर से

लौटेगा क्या मन के… Continue

Added by Ravi Prakash on January 26, 2017 at 7:43pm — 2 Comments

हे लोकतंत्र के निर्माता - डॉo विजय शंकर

हे लोकतंत्र के निर्माता
नेताओं के भाग्यविधाता ,
तंत्र के मायाजाल से अंजान
तुम्हें ही लोकतंत्र नहीं आता।
वो दूर मंच से तुम्हें ,
शब्दों के लॉलीपॉप दिखाता ,
कोरे रंगीन सपने दिखाता और
मन ही मन अपने सपने सजाता ,
हाथ जोड़ कर तुमसे उन्हें पूरे कराता ,
और पांच साल के लिए
तुम्हारा ही भाग्यविधाता बन जाता।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on January 7, 2017 at 8:46pm — 12 Comments

पहली भेड़

वो देखो

जा रहा है भेड़ों का झुण्ड

फटी हुई धोती को पहने

और नंगे पाँव

उस एक भेड़ के पीछे

जो है झुण्ड में

सबसे आगे

मगर

क्या वह पहली भेड़

असली है?

अगर तुम्हें याद हो

तो पिछले चुनाव में

अन्तिम नतीजे आते ही

जीत गया था मीडिया

उस पार्टी की जीत के साथ ही

जिसे अपने जनमत सर्वेक्षणों में

दिखाया था उसने

सबसे पीछे होने के बावजूद भी

सबसे आगे

यही वो पहली भेड़ थी

जिसके पीछे चलते हुए तुम

गिर गए थे खाई में

हर… Continue

Added by Mahendra Kumar on January 6, 2017 at 3:30pm — 7 Comments

स्वागत नव् वर्ष का .....डॉo विजय शंकर

जीना ,
जीने से बढ़ कर
जीने की इच्छा ,
इच्छा के साथ
और इच्छायें ,
आशायें , उम्मीदें।
एक आस , हर
आनेवाले दिन से ,
वर्ष से .........
स्वागत नव् वर्ष का .......
कुछ अर्पण के लिए
कुछ समर्पण के भाव लिए
कुछ नये वादों के साथ ,
कुछ दृढ़ इरादों के साथ ....
स्वागत नव् वर्ष का .......

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on December 30, 2016 at 8:43pm — 11 Comments

मैं भुला देना चाहता हूँ

मैं भुला देना चाहता हूँ

झिलमिल सितारों को

झूमती बहारों को

सावन के झूलों को

महकते हुए फूलों को

मौसमी वादों को

पक्के इरादों को

नर्म एहसासों को

बहके जज़्बातों को

सोंधी सी ख़ुशबू को

कोयल की कू को

नाचते हुए मोर को

नदियों के शोर को

चाँदनी रातों को

मीठी-मीठी…

Continue

Added by Mahendra Kumar on December 28, 2016 at 1:30pm — 10 Comments

सपने -- डॉo विजय शंकर

सपने देखने में
कुछ नहीं जाता है ,
टूट जाएँ तो कुछ
रह भी नहीं जाता है।
इसलिए सपने देखें नहीं ,
हमेशा दूसरों को दिखाएं ,
सुन्दर , लुभावने , बड़े-बड़े ,
पूरे हों तो वाह , .. न हों ,
आपका कुछ नहीं जाता है ,
लेकिन इलेक्शन अकसर
इसी फार्मूले पे जीता जाता है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on December 28, 2016 at 10:55am — 10 Comments

नया साल

आएगा नया साल

खिलेंगे नये फूल

उगेगा नया सूरज

फैलेगी नयी रौशनी

छंटेगा अँधेरा

सजेगी महफ़िल

गायेंगी वादियाँ

बजेंगी चूड़ियाँ

झूमेगा आसमाँ

नाचेगी धरती

उड़ेगा आँचल

हँसेगा बादल

सच होंगे सपने

मिलेंगी ख़ुशियाँ

मुड़ेंगी राहें

आएगी मंज़िल

मगर...

सिर्फ औरों के लिए

मेरे लिए

तो अब भी वही साल है

कई सालों बाद भी

सड़न और सीलन से युक्त

दुर्गन्ध से भरा हुआ

तड़पता

उदास

बीमार

और बोझिल…

Continue

Added by Mahendra Kumar on December 26, 2016 at 9:00pm — 6 Comments


प्रधान संपादक
तुम क्या हो? (अतुकांत कविता)

तुम क्या हो?    

किसी समुद्री मछली के उदर में

किसी ब्रह्मचारी के पथभ्रष्ट शुक्राणु का अंश मात्र

किन्तु उसका निषेचन?

अभी बहुत समय बाकी है उसमे  

बहुत.....

हे प्रिये!

बुरा नहीं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना

अमरत्व का दिवा-स्वप्न भी बुरा नहीं

किन्तु समझना आवश्यक है

यह जान लेना आवश्यक है कि

अमर होने ने लिए मरण आवश्यक है

मरण हेतु जन्म अति आवश्यक

फिर तुम्हें तो अभी जन्म लेना है

जन्म लेने से पूर्व…

Continue

Added by योगराज प्रभाकर on December 14, 2016 at 12:42pm — 7 Comments

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