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मन्त्रमुग्ध

मन्त्रमुग्ध

 

जाने हमारे कितने अनुभवों को आँचल में लिए

ममतामय पर्वतीय हवाएँ गाँव से ले आती रहीं

रह-रह कर आज सुगन्धित समृति तुम्हारी...

तुम्हारी रंगीन सुबहों की स्वर्णिम रेखाएँ

बिछ गईं थी तड़के आज आँगन में मेरे

कि जैसे झुक गई थीं पलकें उषा की सम्मानार्थ,

विकसित हुए फूल हँसते-हँसते मन-प्राण में मेरे।

 

खुशी में तुम्हारी मैं फूला नहीं समाता, यह सच है,

सच यह भी, कि मन में मेरे रहती है सोच तुम्हारी…

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Added by vijay nikore on June 25, 2013 at 7:30am — 28 Comments

दोहे : देवभूमि का दर्द !

भक्तों के मुख मलिन हैं ,पूजा-गृह में गर्द ,

प्रभु अपने किससे कहें देव-भूमि का दर्द !



हुई न ऐसी त्रासदी जैसी है इस बार ,

प्रभु ने झेली आपदा बदरी क्या केदार !



बादल,बारिश,मृत्यु के कारण बने पहाड़ ,

धरती काँपी,मनुज के थर-थर काँपे हाड़…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 24, 2013 at 10:30pm — 13 Comments

छटपटाया बहुत चाँद

छटपटाया बहुत चाँद

-------------------------

रात बारिश बहुत जोर की थी प्रिये

देख चेहरा तेरा चाँद में खो गया…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 24, 2013 at 10:30pm — 19 Comments

"वादा करो"

मै खड़ा हूँ यूँ बांहों को खोले हुए

मेरी बाँहों में आने का वादा करो

मै जहाँ ये भुला दूँगा सुन लो मगर

मुझको दिल में बसाने का वादा करो



मै जो अब तक अकेला हूँ जीता रहा

धुंधले ख्वाबों को आँखों से सीता रहा

ये जो कोरी पड़ी है मेरी जिंदगी

रंग अपना चढ़ाने का वादा करो



मै खड़ा हूँ यूँ बांहों को खोले हुए

मेरी बाँहों में आने का वादा करो



तुम जो रूठी तो तुमको मना लूँगा मै

तुमको पल भर में अपना बना लूँगा मै

मै भी रूठूँगा…

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Added by Anurag Singh "rishi" on June 24, 2013 at 6:30pm — 16 Comments

आल्हा छंद - प्रथम प्रयास

गड़ गड़ करता बादल गर्जा, कड़की बिजली टूटी गाज

सन सन करती चली हवाएं, कुदरत हो बैठी नाराज

पलक झपकते प्रलय हो गई, उजड़े लाखों घर परिवार

पल में साँसे रुकी हजारों, सह ना पाया कोई वार

डगमग डगमग डोली धरती, अम्बर से आई बरसात

घना अँधेरा छाया क्षण में, दिन…

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Added by अरुन 'अनन्त' on June 24, 2013 at 3:00pm — 22 Comments

अचानक ..

क्या हुआ, कैसे हुआ ..

या हुआ अचानक ..

देखते देखते बदल गया..

स्वयं का कथानक ..

परछईओं ने भी छोड़ दिए ...

अब तो अपना दामन…

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Added by Amod Kumar Srivastava on June 24, 2013 at 12:30pm — 8 Comments

मत्तगयन्द सवैया - अरुन शर्मा 'अनन्त'

आदि अनादि अनन्त त्रिलोचन ओम नमः शिव शंकर बोलें
सर्प गले तन भस्म मले शशि शीश धरे करुणा रस घोलें,
भांग धतूर पियें रजके अरु भूत पिशाच नचावत डोलें
रूद्र उमापति दीन दयाल डरें सबहीं नयना जब खोलें

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by अरुन 'अनन्त' on June 24, 2013 at 10:59am — 23 Comments

जेठ को दोषी पाया-

तपत तलैया तल तरल, तक सुर ताल मलाल ।

ताल-मेल बिन तमतमा, ताल ठोकता ताल ।

ताल ठोकता ताल, तनिक पड़-ताल कराया ।

अश्रु तली तक सूख, जेठ को दोषी पाया ।…

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Added by रविकर on June 24, 2013 at 9:30am — 6 Comments

हाइकू ज़िंदगी के ~

ज़िंदगी भली 

रुलाती भी है कभी 

करमजली !

~

~…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 23, 2013 at 10:30pm — 7 Comments

बरसात से बर्बादी/ चौपाई एवं दोहों में/ जवाहर

प्रस्तुत रचना केदारनाथ के जलप्रलय को अधार मानकर लिखी गयी है.

चौपाई - सूरज ताप जलधि पर परहीं, जल बन भाप गगन पर चढही.

भाप गगन में बादल बन के, भार बढ़ावहि बूंदन बन के.

पवन उड़ावहीं मेघन भारी, गिरि से मिले जु नर से नारी.

बादल गरजा दामिनि दमके, बंद नयन भे झपकी पलके!

रिमझिम बूँदें वर्षा लाई, जल धारा गिरि मध्य सुहाई

अति बृष्टि बलवती जल धारा, प्रबल देवनदि आफत सारा

पंथ बीच जो कोई आवे. जल धारा सह वो बह जावे.

छिटके पर्वत रेतहि माही,…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on June 23, 2013 at 6:00pm — 28 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
उत्तराखंड की तबाही (आल्हा छंद पर आधारित )

ऐसी  प्रलय भयंकर आई ,होश मनुज  के दियो उड़ाय   

काल घनों पर उड़ के आया  ,घर के दीपक दियो बुझाय 

पिघली धरा मोम  के जैसे ,पर्वत शीशे से चटकाय 

ध्वस्त हुए सब मंदिर मस्जिद ,धर्म कहाँ कोई बतलाय 

बच्चे बूढ़े युवक युवतियां ,हुए जलमग्न कौन बचाय 

शिव शंकर  आकंठ डूबे  , चमत्कार नाही  दिखलाय 

केदारनाथ शिवालय भीतर,ढेर लाश के दियो लगाय 

मौत से लड़कर बच गए जो ,उनकी पीर कही ना जाय 

नागिन सी फुफकारें नदियाँ ,निर्झर  गए खूब पगलाय 

पर्वत हुए खून…

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Added by rajesh kumari on June 23, 2013 at 3:15pm — 33 Comments

पहाड़ अब भी सरल है --

मित्रों! आज पहाड़ मे आई इस भीषण त्रासदी के वक्त कुछ बाहरी असमाजिक तत्व (जो कि पल्लेदारी और मजदूरी के लिए यहाँ आयें हैं) अपनी लोभ लिप्सा के लिए बेहद आमानवीय हो गए है. उनका मकसद पैसा जुटाना और फिर यहाँ से भाग कर अपने देश/ गाँव जाना है. ये लोग गिरोह के रूप मे सक्रिय हैं. इनकी वजह से अपने पहाड़ के सीधे साधे लोग बदनाम हो रहे हैं. अभी कुछ नेपाली मजदूर भी पकडे जा जुके हैं जिनके पास सोने की माला और लाखों रूपये मिले. यहाँ तक कि सुना है करोड से ऊपर रुपये भी मिले अब चूँकि हर…

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Added by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 23, 2013 at 12:00pm — 15 Comments

नदी और पखेरू

उड़ गए पखेरू  

अब उजाड़ वीराने में

खुद को बहलाती हूँ

सूख गया है नीर

फ़िर भी

नदी तो कहलाती हूँ।





लहरों की चंचलता

थिरकन, चपलता

अब भी है चस्पा

इस दमकती रेत पर

उन अवशेषों को देख

जी उठती हूँ।





कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ

बढ़ चले हैं रेत की ओर

देख रही हूँ, तड़प रही हूँ

मेरी स्मृतियों से

चिन रहे अपने मकान

और मैं निस्सहाय

देख रही हूँ लाचार

निशब्द, निष्‍प्राण।





कूल…

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Added by sushila shivran on June 23, 2013 at 11:22am — 13 Comments

बैठे-ठाले ~~

हेलीकाप्टर से उड़ान हुई ,

संवेदना उनकी महान हुई !



घूमे ,फिरे ,खेले ,खाए ,

किस कदर थकान हुई !



ये जो मौत के मंज़र देखे,

कुदरत है ,मेहरबान हुई…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 11:00pm — 9 Comments

व्यथा … !

व्यथा!

तुम

मन के किबाड़े

खोलना मत 

खोलना मत 

सौ तरह के 

व्यंग होगे 

धूल धूसर 

संग होंगे 

भाव कोई गैर 

अपनी 

भावना में 

घोलना मत 

घोलना मत 

व्यथा!

खुद से कहना 

खुद ही सहना 

तेरी

अंतर यातना 

पर किसी से 

बोलना मत 

बोलना मत 

व्यथा!  

गीतिका 'वेदिका'

मौलिक एवम अप्रकाशित  

Added by वेदिका on June 22, 2013 at 10:06pm — 32 Comments

बूँद बूँद से सागर भरता | विनय - अतुकांत |

आगे आओ हाथ बढाओ , साथी फँसे मुसीबत में |
बूँद  बूँद से सागर भरता , हाथ बँटाओ आफत में |  
एक चना भाड़ नहीं फोड़े , मदद चाहिए विपदा में |   
हर देशवाशी दें सहारा , आगे आयें…
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Added by Shyam Narain Verma on June 22, 2013 at 11:22am — 4 Comments

मैं नदी

मैं नदी –

पहाड़ों से उतरी,

उन्मुक्त बहती

कल कल करती मतवाली

मैं नदी -

गाँव खलिहानों से होती

बच्चों की किलकारियों सी,

खेतों में ठुमकती

मैं नदी -

सरदी की धूप,

षोडसी की चोटी सम लम्बी

लहराती इठलाती बलखाती

मैं नदी जो कभी थी.

2

समय का बदलता रूप -

हाइटेक का ज़माना,

तरक्की की चरमसीमा,

बलिदान स्वरूपा

मैं नदी अधुना.

झुलसती गरमी

बीच शहर,

कूड़े का ढेर

अछूत सी पड़ी,

मैं नदी…

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Added by coontee mukerji on June 22, 2013 at 3:05am — 15 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
पाँच दोहे.. // --सौरभ

तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग

मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग



सहज हुआ अद्वैत पल,  लहर  पाट  आबद्ध

एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध



होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे  …

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Added by Saurabh Pandey on June 22, 2013 at 2:00am — 51 Comments

एक नवगीत ~~

एक निर्झर नदी सी बहो 

खिलखिलाती हुई कुछ कहो 

फासले अब नहीं दरमियां 

आंच है,उम्र है,गरमियां

अब तो सम्बन्ध हैं इस तरह 

जैसे हों झील में मछलियां 



थाम लेंगे…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 12:23am — 7 Comments

कविता : हथियार

कुंद चाकू पर धार लगाकर

हम चाकू से छीन लेते हैं उसके हिस्से का लोहा

और लोहे का एक सीदा सादा टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

जमीन से पत्थर उठाकर

हम छीन लेते हैं पत्थर के हिस्से की जमीन

और इस तरह पत्थर का एक भोला भाला टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

लकड़ी का एक निर्दोष टुकड़ा

हथियार तब बनता है जब उसे छीला जाता है

और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की लकड़ी

 

बारूद हथियार तब बनता है

जब उसे किसी कड़ी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 21, 2013 at 9:00pm — 12 Comments

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