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प्यार के दो बोल कह दे शायरी हो जाएगी - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2122    2122    2122    212

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प्यार को साधो अगर तो जिंदगी हो जाएगी

गर  रखो  बैशाखियों सा बेबसी हो जाएगी /1

***

बात कड़वी प्यार से कह दोस्ती हो जाएगी

तल्ख  लहजे से कहेगा दुश्मनी हो जाएगी /2

***

फिर घटा छाने लगी है दूर नभ में इसलिए

सूखती हर डाल यारो फिर हरी हो जाएगी /3

***

मौत तय है तो न डर, लड़, हर मुसीबत से मनुज

भागना  तो  इक  तरह  से  खुदकुशी हो जाएगी /4

***

मन  मिले  तो पास  में सब, हैं दरारें  कुछ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 11:05am — 17 Comments

फिर कोई दिल मेँ न आया

2122 2122 2122 212



फिर कोई दिल मेँ न आया इक तेरे आने के बाद ।

फिर न कुछ खोया न पाया इक तुझे पाने के बाद ।



हमने देखेँ हैँ तुम्ही मेँ अपने दोनोँ ही जहाँ ,

हम कहाँ जायेगेँ हमदम तेरे ठुकराने के बाद ।



हमनेँ पी आँखोँ से तेरी शोख जामेँ जिन्दगी ,

कोई मधुशाला न देखी तेरे मयखाने के बाद ।



अपने होने की खबर भी दो घडी रहती है अब ,

इक तेरे आने से पहले इक तेरे जाने के बाद ।



दिन गुजारा हमने सारा बस खयालोँ मेँ तेरे ,

और फिर यादोँ की… Continue

Added by Neeraj Nishchal on September 20, 2014 at 4:00am — 5 Comments

उच्च-शिक्षा....(लघुकथा)

मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बड़ा मुकेश, अपने  छोटे से शहर से अच्छे प्राप्तांक से स्नातक की डिग्री लेकर बड़े शहर में प्रसिद्द निजी शिक्षण संस्था से प्रबंधन की डिग्री लेना चाहता है.  आर्थिक समस्या के कारण उसे संस्था में प्रवेश नही मिल पा रहा है उसने कई बार संस्था के प्रबंध-समूह  से शुल्क में कमी करने की गुजारिश की, लेकिन शिक्षा भी तो व्यापार ही सिखाती है. अपने ही शहर के दो और छात्रों को उसी प्रसिद्द निजी संस्था की गुणवत्ता बताकर, प्रवेश दिलवाने से मुकेश के पास अब एक वर्ष के रहने और खाने के पूँजी…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 11:34pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इक तरही ग़ज़ल --“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ( गिरिराज भंडारी )

तालाब  सूख जाएगा  बरगद  की छाँवों में

221      2121     1221     212

******************************************

अब  आग  आग है यहाँ  हर सू फ़ज़ाओं में

तुम  भी  जलोगे आ गये  जो मेरी राहों में

 

तिश्ना लबी  में  और  इजाफ़ा  करोगे  तुम

ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में

 

वो  शह्री  रास्ते  हैं  वहाँ  हादसे  हैं  आम

जो  चाहते  सकूँ हो, पलट  आओ  गाँवों में

 

तू  देख बस यही कि है मंजिल…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments

हमारी दिल परस्ती का

1222 1222 1222 1222



हमारी दिल परस्ती का वो ये ईनाम देता है ।

हमारे दिल के टुकडे कर हमेँ इल्जाम देता है ।



सयाना खुद को हमको नासमझ पागल समझता है ,

दगाओँ को सदा अपनी वफा का नाम देता है ।



हमारा दिल दुखाने की हदेँ सब तोड दी उसने ,

हमारे सामने गैरोँ का दामन थाम लेता है ।



कभी बसने नहीँ देता हमारी ख्वाहिशोँ का घर ,

इरादोँ को फकत अपने सदा अंजाम देता है ।



तरसती हूँ मै उसके प्यार के दो बोल की खातिर ,

जो चुभते हैँ मुझे ताने वो… Continue

Added by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 1:36am — 9 Comments

रहने दो

तुम्‍हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो

न रोको तुम कभी मुझको मुझे बस प्‍यार करने दो



तुम्‍हारे बिन ये जीवन है जैसे फूल बिन धरती

मरे हम भी तुम्‍हारे पर मगर तुम क्‍यों नहीं मरती

बडा सूना पडा जीवन प्‍यार के रंग भरने दो

न रोको तुम कभी मुझको मुझे  बस प्‍यार करने दो

तुम्‍हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो



तुम्‍हारे पाव की पायल मुझे हरदम  सताती है

निगाहे रात दिन तुमको न जाने क्‍यो बुलाती है

छुपाना मत कभी ऑंखे मुझे पलको पे रहने दो

न रोको तुम कभी…

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Added by Akhand Gahmari on September 18, 2014 at 8:00pm — 4 Comments

कुछ हाइकू

बूँदे बरसे
घनश्याम ना आये
मन तरसे

अद्भुत बेला
नदियाँ उफनाईं
पानी का रेला

कोयल गाये
बरसे छम छम
मन को भाये

स्वर्ग धरा का
हाहाकार मचाये
नद मन का  

गौरैया आई

उपवन महका
बदरी छायी

व्याकुल धरा
तृप्त हुई जल से
आँचल हरा 

********************
मीना पाठक 
मैलिक /अप्रकाशित 

Added by Meena Pathak on September 18, 2014 at 7:19pm — 6 Comments

जाओ पथिक तुम जाओ ... (विजय निकोर)

जाओ पथिक तुम जाओ

(किसी महिला के घर छोड़ जाने पर लिखी गई रचना)

पैरों तले जलती गरम रेत-से

अमानवीय अनुभवों के स्पर्श

परिवर्तन के बवन्डर की धूल में

मिट गईं बनी-अधबनी पगडंडियाँ

ज़िन्दगी की

परिणति-पीड़ा के आवेशों में

मिटती दर्दीली पुरानी पहचानें

छूटते घर को मुड़ कर देखती

बड़े-बड़े दर्द भरी, पर खाली

बेचैनी की आँखें

माँ के लिए  कांपती

अटकती एक और पागल पुकार

इस…

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Added by vijay nikore on September 18, 2014 at 5:30pm — 16 Comments

अतुकांत कविता

यादें

 

आज अचानक यूं ही

खिड़की के पास उग आई 

मेरी यादों की बगिया

मनोरमता से भरी हुई।

मैंने देखा ..................

कुछ पुष्प पौधों ने जन्म लिया

अभी-अभी और जवान हो गए.

इठलाते हुए 

उड़ रही थी भीनी-भीनी खुशबू

यादों की,

बगिया के हर कोने से

हर क्यारी में तने हुए थे

मधुर यादों के इन्द्र-धनुष

जो खिचते थे बरवश अपनी तरफ

हर एक पल ..............................

किसी ने मेरे हाथ…

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Added by kalpna mishra bajpai on September 18, 2014 at 3:30pm — 8 Comments

अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है

रास पर एक प्रयास और -

अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है

गाँवों का जीवन लासानी अब भी है

 

जिसकी गोद सुहाती थी भर जाड़े में

उस मगरी पर धूप सुहानी अब भी है

 

जिनमें अपना बचपन कूद नहाया था

उन तालाबों में कुछ पानी अब भी है

 

बाँह पसारे राह निहारे सावन में

अमुवे की इक डाल सयानी अब भी है

 

गर्मी की छुट्टी शिमला में बुक लेकिन

रस्ता तकते नाना नानी अब भी है

 

ठाकुर द्वारे में झालर संझ्या…

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Added by khursheed khairadi on September 18, 2014 at 11:00am — 8 Comments

सपनों का सच--डा० विजय शंकर

यूँ तो सपनों का सच से

कोई वास्ता नहीं होता है |

सच सामने से

ज्यों ज्यों गुजरने लगता है ,

सपनों से डर लगने लगता है ॥

सपने जब टूटने लगते हैं ,

सच से डर लगने लगता है ॥

फिर भी कोई सपने देखना

छोड़ नहीं पाता है ।

रोज सपनों के सच होने के

सपने सजाता है ॥

सपने एक आशा हैं ,

एक उम्मीद हैं ,

कुछ पाने की , कुछ होने की

किसी चिर प्रतीक्षित

अभिलाषा के पूरी होने की |

क्योंकि यही तो जीवन है ,

यही तो जीवन का सच है… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on September 18, 2014 at 10:21am — 10 Comments

ग़ज़ल- दर्द जब पत्थर को सुनाता था......सूबे सिंह सुजान

 दर्द पत्थर को जब सुनाता था

मुझको पत्थर और आजमाता था।

बोलना,उसके सामने जाकर,

मैं तो अन्दर से काँप जाता था

वो समझता न था,मेरे अहसास,

मैं तो मिट्टी पे लेट जाता था

इतनी पूजा की विधि थी उसके पास,

हर किसी को वो लूट जाता था

आज मालूम हो गया मुझको,

एक पुतला मुझे डराता था।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सूबे सिंह सुजान on September 18, 2014 at 9:55am — 5 Comments

गीत 'लो बरखा फिर आई'

गीत

-लो बरखा फिर आई-



बादल की झोली में भरकर

बिखराती जल लाई।

सुप्त प्राण में प्राण सींचने

लो बरखा फिर आई।



सूखे विटप तृप्त तन्मय अब

करते झुक अभिनन्दन।

झूम झूम उत्साहित हों ज्यों

गीत गा रहे वन्दन।

उष्ण अनल से तपे ग्रीष्म की

अब तो हुई बिदाई।...सुप्त प्राण....



तप्त दिवाकर ने झुलसाया

वन उपवन सब सूखे।

दरक रहा धरती का सीना

बिन तृण के सब भूखे।

मदमाते रिमझिम सावन ने

जग की पीर मिटाई।...सुप्त प्राण…

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Added by seemahari sharma on September 18, 2014 at 9:00am — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
प्रार्थना

प्रार्थना

जब सांझ ढलने लगेगी,

जब दिन का कोलाहल

थक कर किसी कोने में

दुबक कर बैठ जाएगा –

तुम्हारे स्पर्श का सिहरन लिए

धीरे-धीरे

आकाश का सभागार

तारों के दीपक से प्रफुल्लित हो उठेगा,

जागृत हो उठेंगी चेतनाएँ

सजीव होने लगेंगे हृदय के तंतु –

नीरवता के उस महाधिवेशन में

अपने अहंकार,

अपने गौरव की सच्ची-झूठी कहानियाँ,

अपनी अदम्य इच्छाओं की दबी आवाज़,

अपने टूटे सपनों का आर्त चीत्कार

और अचानक, लगभग कुछ…

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Added by sharadindu mukerji on September 18, 2014 at 1:00am — 2 Comments

ख़्वाबों की बातें । (गीत)

ख़्वाबों की  बातें, अकसर किया करते  हैं  वो..!

फिर  शब-ए-तन्हाई  में,  रोया  करते  हैं  वो..!

शब-ए-तन्हाई= रात का अकेलापन;

ज़िंदगी  में कई  हादसे, आप ने  झेले  मगर..!

टूटे ख़्वाबों का  शिकवा  किया  करते  हैं  वो..!

ख़्वाबों की  बातें, अकसर किया करते  हैं  वो..!

शिकवा=शिकायत,

बिखरा सा  वो  ख़्वाब  और  अँधेरी  वो  रात..!

हाँ, मातम अब उनका, मनाया  करते  हैं  वो..!

ख़्वाबों की  बातें, अकसर किया करते  हैं …

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Added by MARKAND DAVE. on September 17, 2014 at 5:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल .......... सुलभ अग्निहोत्री

हद से अपनी गुजर गया कोई ।

चुपके दिल में उतर गया कोई ।।

आँख में आसमान लाया था

मेरी अंजुरी में भर गया कोई ।।

छोटी बच्ची सा झूल बाहों में

मन की हर पीर हर गया कोई

टूटी छत से उतर के कमरे में

चाँदनी सा पसर गया कोई ।।

डाल पे फूल खिल गया जैसे

स्वप्न जैसे सँवर गया कोई ।।

रोशनी को सहेजने में ही

कतरा-कतरा बिखर गया कोई ।।

सामने वालमीकि के फिर से

क्रौंच पर वार कर गया कोई

बह…

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Added by Sulabh Agnihotri on September 17, 2014 at 3:07pm — 23 Comments

जब बहाने थे नये तो दिल को भी उम्मीद थी - गजल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2122    2122    2122    212

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दिल  हमारा  तो  नहीं था आशियाने के लिए

फिर कहाँ से आ गये दुख घर बसाने के लिए

***

हम ने सोचा  था कि होंगी महफिलों में रंगतें

पर  मिली  वो  ही  उदासी जी दुखाने के लिए

***

था सुना हमने बुजुर्गो से  कि कातिल नफरतें

प्यार  भी  जरिया  बना पर खूँ बहाने के लिए

***

जब सभल जाएगा तुझको पीर देगा अनगिनत

हो  रहा   बेचैन  तू  भी   किस  जमाने के लिए

***

जब बहाने थे नये तो दिल…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2014 at 10:48am — 14 Comments

पंख परेवों ने खोले नव भोर हुई

रास (चौपाई +अलिपद )8-8\6=22

 

पंख परेवों ने खोले नव भोर हुई

भजनों सा चहका फिर खगरव भोर हुई

 

शबनम झाड़ी ली अँगड़ाई किसलय ने

बाग बगीचों में है उत्सव भोर हुई

 

मंदिर की घंटी से और अजानों से

सुप्त धरा का टूटा नीरव भोर हुई

 

धूप गुलाबी उबटन सी कण कण पर है

निखरा फिर धरती का वैभव भोर हुई

 

अखबारों के पन्नों में जागी दुनिया

गर्म चाय का पीकर आसव भोर हुई

 

दिन भी गुजरेगा ही रात कटी…

Continue

Added by khursheed khairadi on September 17, 2014 at 10:30am — 5 Comments

बस तुम ही थे

पलकों के महके उपवन में

गीतों के सारे सरगम में

हर उलझन में हर सुलझन में

कोई और नहीं तुम ही थे



कुछ बंद किताबों के पन्ने

फिर फिर से जैसे खुल जाए

आखर आखर बन सरगम ज्यो

प्राणों में आकर घुल जाए

नयनो की मोहक चितवन में

कोई और नहीं तुम ही थे



महकी महकी सी साँसों में

तेरी मोहक खुशबू बस जाए

हरपल पलछिन रात और दिन

यादे तेरी सज सज जाएँ

सपनो के खिलते गुलशन में

कोई और नहीं तुम ही थे



श्वाँस श्वाँस मधुरिम स्पंदन… Continue

Added by Priyanka Pandey on September 17, 2014 at 7:29am — 11 Comments

ग़ज़ल - - - सुलभ अग्निहोत्री

कुछ ऐसे सिलसिले हैं जो हमेशा साथ चलते हैं

कुछ ऐसे फासले हैं जोकि यादों में ठहरते हैं

छुपे कुछ राज होते हैं हरेक पैगाम में उसके

कभी हम जान लेते हैं, कभी अनजान रहते हैं

सँदेशे दिल के आते हैं, हमेशा आँख के रस्ते

कभी गालों को तर करते, कभी नूपुर से बजते हैं

वो मेरे साथ ज्यादा रासता तय कर नहीं पाये

पर उतनी राह पर अब भी हजारों फूल खिलते हैं

उन्हें जब याद करते हैं तो कोई गीत होता है

ग़ज़ल होती है जब कोई, उन्हें हम याद…

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Added by Sulabh Agnihotri on September 16, 2014 at 3:00pm — 9 Comments

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