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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (497)

मुहब्बत अपनी लोगों ने सियासत से है कम कर ली - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२



जमा पूँजी थी  बरसों  की  जरुरत  ने हजम कर ली

मुहब्बत अपनी लोगों ने सियासत से है कम कर ली।१।



जमाना  अब  तो  हँसने  का  हँसेंगे  सब  तबाही पर

किसी दूजे के गम से कब किसी ने आँख नम कर ली।२।



सदा से नाज था जिसके वचन की सादगी पर ढब

उसी ने आज हमसे भी  बड़ी  झूठी कसम कर ली।३।



मुहब्बत रास आती  क्या  जफाएँ हर तरफ उस में

हमीं ने यूँ हर इक रंजिश खुशी से हमकदम कर ली।४।



बिगड़ जाती थी जो छोटी बड़ी हर बात पर हमसे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2019 at 6:36am — 3 Comments

पुरखे हमारे  एक  हैं  मजहब  से तोल मत - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( गजल )

२२१/२१२१/२२२/१२१२



क्या कीजिएगा आप यूँ पत्थर उछाल कर

आये हैं भेड़िये तो  सब  गैंडे सी खाल कर।१।



कितने  जहीन  आज-कल  नेता  हमारे  हैं

मिलके चला रहे हैं सब सन्सद बवाल कर।२।



वो चुप थे बम के दौर में ये चुप हैं गाय के

जीता न कोई  देश  का  यारो खयाल कर।३।



पुरखे हमारे  एक  हैं  मजहब  से तोल मत

तहजीब जैसी कर रहे उस पर मलाल कर ।४।



माना की मिल गयी तुझे संगत वजीर की

प्यादा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 5, 2019 at 5:31am — 10 Comments

नफरत को लोग शान से सर पर बिठा रहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२/१२१२

जब से वफा जहाँन में मेरी छली गयी

आँखों में डूबने की वो आदत चली गयी।१।

नफरत को लोग शान से सर पर बिठा रहे

हर बार मुँह पे प्यार के कालिख मली गयी।२।

अब है चमन ये  राख  तो करते मलाल क्यों

जब हम कहा करे थे तो सुध क्यों न ली गयी।३।

रातों  के  दीप  भोर  को  देते  सभी  बुझा

देखी जो गत भलाई की आदत भली गयी।४।

माली को सिर्फ  शूल  से  सुनते दुलार ढब

जिससे चमन से रुठ के हर एक कली…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 4, 2019 at 12:05pm — 6 Comments

जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'-(गजल)

२१२२ २१२२/ २१२२  २१२



रूप सँवरा  और  खुशबू  है  बनेली  जिस्म की

हो गयी है क्यों हवस ही अब सहेली जिस्म की।१।



ये शलभ यूँ  ही मचलते पास तब तक आयेंगे

जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की।२।



ये चमन  ऐसा  है  जिसमें  साथ  यारो उम्र के

सूखती जाती है चम्पा औ'र चमेली जिस्म की।३।



रूप का मेहमान ज्यों ही जायेगा सब छोड़ के

हो के रह जायेगी  सूनी  ये  हवेली जिस्म…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 31, 2019 at 7:25pm — 10 Comments

हर बुढ़ापा जिन्दगी भर बेबसी खोता नहीं - गजल

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



नींद में भी जागता रहता है जो सोता नहीं

हर बुढ़ापा जिन्दगी भर बेबसी खोता नहीं।१।



है जवानी भी  कहाँ  अब  चैन  के  परचम तले

सिर्फ बचपन ही कभी चिन्ताओं को ढोता नहीं।२।

ज़िन्दगी यूँ  तो  हसीं  है, इसमें  है  बस ये कमी

जो भी अच्छा है वो फिर से यार क्यों होता नहीं।३।



नफरतों का तम सदा को दूर हो जाये यहाँ

आदमी क्यों…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2019 at 7:30pm — 6 Comments

गद्दार बन गये जो ढब आदर किया गया - गजल

२२१/२१२१/ २२२/१२१२



पाषाण पूजने को जब अन्दर किया गया

हर एक देवता को तब पत्थर किया गया।१।



उनके वतन से थी अधिक कुर्सी निगाह में

दूश्मन को इसके वास्ते सहचर किया गया।२।



यूँ  तो  चुनाव  जीतने  बातें  विकास  की

पर हाल देश का सदा कमतर किया गया।३।



शासक कमीन दे गये हमको वफा का दंड

गद्दार बन गये  जो  ढब  आदर किया गया।४।



जन की भलाई में बहुत करना था काम…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2019 at 8:05pm — 7 Comments

खुशी बाँटो कि बँटकर  भी  - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२२/१२२२-/१२२२/१२२२

किसी के घर बहुत आवागमन से प्यार कम होगा

इसी  के  साथ  हर बारी  सदा  सत्कार कम होगा।१।



जरूरत सब को पड़ती है यहाँ कुछ माँगने की पर

हमेशा   माँगने   वाला  सही  हकदार  कम  होगा।२।



खुशी बाँटो कि बँटकर  भी  नहीं भंडार होगा कम

अगर साझा करोगे दुख तो उसका भार कम होगा।३।



नजाकत देख  रूठो  तो  मिलेगा  मान रिश्तों को

जहाँ रूठोगे पलपल में सुजन मनुहार कम होगा।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 17, 2019 at 5:58pm — 8 Comments

नव वर्ष के दोहे

संस्कार  की  नींव दे, उन्नति  का  प्रासाद

हर मन बंदिश में रहे, हर मन हो आजाद।१।



महल झोपड़ी सब जगह, भरा रहे भंडार

जिस दर भी जायें मिले, भूखे को आहार।२।



लगे न बीते साल सा, तन मन कोई घाव

राजनीति ना भर सके, जन में नया दुराव।३।



धन की बरकत ले धनी, निर्धन हो धनवान

शक्तिहीन अन्याय हो, न्याय बने बलवान।४।



घर आँगन सबके खिलें, प्रीत प्यार के फूल

और जले नव वर्ष मेें, हर नफरत का शूल।५।



निर्धन को नव वर्ष की, बस इतनी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 31, 2018 at 5:54pm — 8 Comments

एक ही  सपना  हमारा  जी  हजूरी की जगह - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

अब किसी के मुख न उभरे कातिलों के डर दिखें

इस वतन में हर तरफ खुशहाल सब के घर दिखें।१ ।



काम हासिल हो सभी को जैसा रखते वो हुनर

फैलते सम्मुख किसी के अब न यारो कर दिखें।२।



भाईचारा जब हो कहते हम सभी के बीच तो

आस्तीनों में छिपाये  लोग  क्यों खन्जर दिखें।३।



हौसला कायम रहे  यूँ सच बयानी का सदा

आईनों के सामने आते न अब पत्थर दिखें।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2018 at 10:51am — 3 Comments

तिजारत वो  चुनावों  में  हमेशा  वोट  की करते - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( गजल)

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२

हुआ कुर्सी का अब तक भी नहीं दीदार जाने क्यों

वो सोचें  बीच  में  जनता  बनी  दीवार  जाने क्यों।१।



बड़ा ही भक्त है या  फिर  जरूरत वोट पाने की

लिया करता है मंदिर नाम वो सौ बार जाने क्यों ।२।



तिजारत वो  चुनावों  में  हमेशा  वोट  की करते

हकों की बात भी लगती उन्हें व्यापार जाने क्यों ।३।



नतीजा एक भी अच्छा नहीं जनता के हक में जब

यहाँ सन्सद…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2018 at 3:35pm — 12 Comments

घुटन के इन दयारों में तनिक परिहास बढ़ जाये - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

छलकते देख कर आँसू ग़मों की प्यास बढ़ जाये

कभी ऐसा भी मौसम हो चुभन की आस बढ़ जाये।१।



लगे ठोकर किसी को भी न चाहे घाव खुद को हो

मगर देखें तो दिल में दर्द का अहसास बढ़ जाये।२।



भला कब चाहते  हैं  ये  जिन्हें  हम  शूल कहते हैं

मिटे पतझड़ चमन का साथ ही मधुमास बढ़ जाये।३।



लगाई नफरतों  ने  है  यहाँ  हर सिम्त ही बंदिश

घुटन के इन दयारों में तनिक परिहास बढ़ जाये।४।



रखो ये ज्ञान भी यारो जो चाहत घुड़सवारी की

नहीं घोड़ा सँभलता है अगर जो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 12, 2018 at 12:36pm — 6 Comments

ओढ़े बुढ़ापा  जी  रहा  बचपन कोई न हो - ( गजल)- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१ २१२१/२२२/१२१२



घर में किसी के और अब अनबन कोई न हो

सूना  पड़ा  हमेशा   ही  आगन  कोई   न  हो।१।



कुछ  तो  सहारा  दो  उसे  हँसने  जरा लगे

होकर निराश  घुट  रहा  जीवन  कोई न हो।२।



झुकना पड़े तनिक तो खुद झुकना सदा ही तुम

यारो  मिलन  की  राह  में  उलझन  कोई न हो।३।



आओ बनायें आज फिर ऐसा समाज हम

ओढ़े बुढ़ापा  जी  रहा  बचपन कोई न हो।४।



जल जाएँ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 4, 2018 at 12:22pm — 14 Comments

अपना तो फर्ज एक है तदबीर कर गुजर - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" ( गजल )

221   2121   1221   212 

तुमको खबर है खूब खतावार कौन है

दो सोच कर सजाएँ गुनहगार कौन है।१।



यारो सिवा वो बात के करता ही कुछ नहीं

हाकिम से इसके बाद भी बे-ज़ार कौन है।२।



हम तो रहे जहीन कि जिस्मों पे मर मिटे

पहली नज़र का बोल तेरा प्यार कौन है।३।



सबसे बड़ा सबूत है मुंसिफ का फैसला

खाके कसम वफा की वफादार कौन है।४।



अपना तो फर्ज एक है तदबीर कर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 25, 2018 at 1:14pm — 6 Comments

हुस्न तेरी आशिकी से कौन रखता दूरियाँ - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" ( गजल )

२१२२/ २१२२/ २१२२/२१२

आप कहते पंछियों के , 'हमने पर कतरे नहीं'

आँधियों के सामने फिर क्यों भला ठहरे नहीं।१।



जो भी देखा उस पे उँगली झट उठा देता है तू

क्यों कहा करता जमाने ख्वाब पर पहरे नहीं।२।



एक जुगनू ही बहुत है वक्त की इस धुंध में

साथ देने  चाँद  सूरज  गर  यहाँ उतरे नहीं।३।



आईना वो बनके  चल  तू  पत्थरों के शहर में

जिन्दगी की शक्ल जिसमें टूटकर बिखरे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 16, 2018 at 7:34pm — 8 Comments

जलूँ  कैसे  तुम्हारे बिन - लक्ष्मण धामी"मुसाफिर" ( गजल )

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२

अकेला हार जाऊँगा, जरा तुम साथ आओ तो

अमा की रात लम्बी है कोई दीपक जलाओ तो।१।



ये बाहर का अँधेरा तो  घड़ी भर के लिए है बस

सघन तम अंतसों में जो उसे आओ मिटाओ तो।२।



कहा बाती  मुझे  लेकिन  जलूँ  कैसे  तुम्हारे बिन

भले माटी, स्वयं को अब चलो दीपक बनाओ तो।३।



गरीबी, भूख,  नफरत, वासनाओं  का मिटेगा तम

इन्हें जड़ से मिटाने को सभी नित कर बटाओ तो।४।



महज दस्तूर को दीपक जलाते इस अमा को सब

बने हर जन…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 7, 2018 at 7:36am — 13 Comments

कहीं हद तोड़ कर तट भी अगर मझधार हो जाता - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



किसी की बद्दुआ  से  गर  कोई  बीमार हो जाता

दुआ सा आखिरी वो भी बड़ा हथियार हो जाता।१।



ललक से धन की थोड़ा भी कहीं दो चार हो जाता

कसम से आईना भी तब महज अखबार हो जाता।२।



घड़ी भर को ही हमदम का अगर दीदार हो जाता

सुकूँ से मरने  का  यारो  तनिक  आधार हो जाता।३।



कहानी प्यार की  अपनी  किनारे  लग कहाँ पाती

कहीं हद तोड़ कर तट भी अगर मझधार हो जाता।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2018 at 6:00am — 20 Comments

कहो थोड़ा किसी को कुछ तो पत्थर ले के दौड़े है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२

सरल सा रिश्ता भी अब तो चलाना हो गया टेढ़ा

वफा  तुझ में  नहीं  बाकी  बताना  हो  गया टेढ़ा।१।



मुहर मुंसिफ  लगा  बैठे  सही  अब बेवफाई भी

कि बन्धन सात  फेरों  का निभाना हो गया टेढ़ा।२।



कहो थोड़ा किसी को कुछ तो पत्थर ले के दौड़े है

किसी  को  आईना  जैसे  दिखाना  हो  गया  टेढ़ा।३।



बुढ़ापा गर धनी हो  तो निछावर हुस्न है उस पर

हुनर  से …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 30, 2018 at 5:30am — 20 Comments

दोनों तरफ है कत्ल का सामान बा-अदब -- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" ( गजल )

२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२

वाजिब हुआ करे था जो तकरार मर गया

आजाद जिन्दगी  में  भी  इन्कार मर गया।१।



दोनों तरफ है  कत्ल  का  सामान बा-अदब  

इस पार बच गया था जो उस पार मर गया।२।



जीने लगे  हैं  लोग  यहाँ  खुल  के नफरतें

साँसों की जो महक था वही प्यार मर गया।३।



सौदा वतन का रोज ही शासक यहाँ करें

सैनिक ही नाम  देश  के बेकार मर गया।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 27, 2018 at 9:00pm — 21 Comments

इस  बार  तेरे  शहर  में  परछाइयाँ जलीं - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"(गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

सुनते हैं खूब न्याय  की  सच्चाइयाँ जलीं

कैसा अजब हुआ है कि अच्छाइयाँ जलीं।१।



वर्षों पुरानी बात है जिस्मों का जलना तो

इस  बार  तेरे  शहर  में  परछाइयाँ जलीं।२।



कितने हसीन ख्वाब  हुये खाक उसमें ही

ज्वाला में जब दहेज की शहनाइयाँ जलीं।३।



सब कुछ यहाँ जला है, तेरी बात से मगर

हाकिम कभी वतन में न मँहगाइयाँ जलीं।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 25, 2018 at 2:30am — 18 Comments

दर्द का आँखों में सबकी - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर' ( गजल )

२१२२ /२१२२  /२१२२/ २१२

दर्द का आँखों में सबकी इक समंदर कैद है

चार दीवारी में हँसता आज हर घर कैद है।१।



हो न जाये फिर वो हाकिम खूब रखना ध्यान तुम

जिसके  सीने  में  नहीं  दिल  एक  पत्थर  कैद है।२।



जब से यारो ये सियासत हित परस्ती की हुयी

हो गया  आजाद  नेता  और  अफसर कैद है।३।



राज्य कैसा राम का यह ला रहे ये देखिये

बंदिशों से मुक्त रहजन और रहबर कैद…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 24, 2018 at 7:30am — 18 Comments

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