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दीप बुझा करते है जिसके चलने पर - गजल( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

२२२२/२२२२/२२२


अश्क पलक से भीतर रखना सीख लिया
गम थे बेढब फिर  भी हँसना सीख लिया।१।


जख्म दिए  हैं  जब से  हँसकर  फूलों ने
काँटों को भी फूल हैं कहना सीख लिया।२।


कदम- कदम  पर  खंजर  रक्खे  अपनों  ने
हम भी शातिर जिन पर चलना सीख लिया।३।


दीप बुझा  करते  है  जिसके चलने पर
उस आँधी से हमने जलना सीख लिया।४।


उनकी कोशिश  थी  पत्थर से अटल रहें
नदिया बनकर हम ने बहना सीख लिया।५।


मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on September 21, 2019 at 2:16pm

क़ाफ़िया का बहुत साधारण नियम है कि हर क़ाफ़िया के पहले हर्फ़-ए-रवी होना लाज़िमी है,हर्फ़-ए-रवी कहते हैं क़ाफ़िये के पहले बार बार आने वाले हर्फ़ (अक्षर) को,जैसे आपके मतले के ऊला मिसरे में आपने 'रखना' क़ाफ़िया लिया है,तो इसमें 'ना' क़ाफ़िया हुआ और इसका हर्फ़-ए-रवी हुआ 'ख' अब इस हिसाब से आगे क़वाफ़ी होंगे 'चखना' 'परखना' आदि ।

इसी तरह अगर आपने क़ाफ़िया लिया 'कहना',तो इसमें 'ना' क़ाफ़िया हुआ और इसका हर्फ़-ए-रवी हुआ 'ह' तो इस हिसाब से आगे के क़वाफ़ी होंगे रहना,सहना, बहना आदि ।

उम्मीद है बात स्पष्ट हुई होगी ?

Comment by TEJ VEER SINGH on September 20, 2019 at 8:00pm

हार्दिक बधाई आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी। बेहतरीन गज़ल।

जख्म दिए  हैं  जब से  हँसकर  फूलों ने
काँटों को भी फूल हैं कहना सीख लिया।२।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 19, 2019 at 7:03pm

आ. भाई समर जी सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

क़वाफ़ी के संदर्भ में यदि सम्भव हो तो कुछ विस्तार में मार्गदर्शन कीजिएगा, जिससे सुधार में आसानी हो । इसके लिए आभार ।

Comment by Samar kabeer on September 19, 2019 at 3:46pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, इस ग़ज़ल के क़वाफ़ी शुद्ध नहीं हैं,देखियेगा ।

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