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साँझ होते  माँ  चौबारे  पर  जलाती  थी दीया -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल )

२१२२/२१२२/२१२२/२१२


मखमली  वो  फूल  नाज़ुक  पत्तियाँ  दिखती  नहीं
आजकल खिड़की पे लोगों तितलियाँ दिखती नहीं।१।


साँझ होते  माँ  चौबारे  पर  जलाती  थी दीया
तीज त्योहारों पे भी  वो बातियाँ दिखती नहीं।२।


कह  तो  देते  हैं  सभी  वो  बेचती  है  देह  पर
क्यों किसी को अनकही मजबूरियाँ दिखती नहीं।३।


अब तो काँटों  पर  जवानी  का  दिखे  है ताब पर
रुख पे कलियों के चमन में शोखियाँ दिखती नहीं।४।


सौंप  बच्चे  दाइयों  को  ऑफिसों  में  मस्त  सब
आधुनिक माँओं के लब पर लोरियाँ दिखती नहीं।५।


भीड़ में लोगों की दिनभर हँस के बतियाती है पर   
रात के साये  में  उसकी  सिसकियाँ दिखती नहीं।६।


सोचता हूँ वक्त बीता  कुछ  पलट  कर देख लूँ
'फोर-जी' का है  जमाना चिट्ठियाँ दिखती नहीं।७।


अब सियासत ने सभी को कौरवों सा कर दिया
राज अपने हर किसी को गलतियाँ दिखती नहीं।८।


बाँध कर बैठा है  पट्टी  आँखों  पर वो देखिए
न्याय को यूँ चीखती खामोशियाँ दिखती नहीं।९।


हो गयीं नव ब्याहतायें आधुनिक इतनी यहाँ
हाथ में उनके 'मुसाफिर' चूड़ियाँ दिखती नहीं।१०।


मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी मुसाफिर
********

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 5, 2019 at 2:28pm

आदरणीय धामी सर सादर नमन! हार्दिक बधाई इस खूबसूरत गजल के लिए। था दीया  में मात्रा भार गिराया जा सकता है क्या सर? जिज्ञासा सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 5, 2019 at 10:55am

आ. भाई तेजवीर जी, गजल की प्रशंसा के लिए आभार।

Comment by TEJ VEER SINGH on March 4, 2019 at 3:54pm

हार्दिक बधाई आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।

अब सियासत ने सभी को कौरवों सा कर दिया
राज अपने हर किसी को गलतियाँ दिखती नहीं।८।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2019 at 1:35pm

आ. भाई बृजेश जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2019 at 1:34pm

आ. भाई समर जी, गजल की प्रशंसा और मार्गदर्शन के लिए आभार।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 4, 2019 at 12:08pm

वाह खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय..मतले के सानी में "लोगो" की जगह कोई और शब्द नहीं किया जा सकता क्या?जैसे प्यारी तितलियाँ..

Comment by Samar kabeer on March 3, 2019 at 3:07pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'सौंप  बच्चे  दाइयों  को  ऑफिसों  में  मस्त  सब'

इस मिसरे में 'आफ़िस' का बहुवचन "ऑफिसों"ठीक है क्या?मेरे ख़याल में मिसरा यूँ किया जा सकता है:-

'सौंप बच्चे दाइयों को मस्त हैं आफ़िस में सब'

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