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गिरिराज भंडारी's Blog (304)

एक तरही ग़ज़ल - "हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं" ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222      1222      1222

पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं

कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं

वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके 

कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं

 

भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर

कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं 

चला आया है जुगनू…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 5:30pm — 23 Comments

अतुकांत - आपसी ताप से जलती टहनियाँ ( गिरिराज भंडारी )

आपसी ताप से जलती टहनियाँ

************************

आँधियों की छोड़िये

हवा थोड़ी भी तेज़ बहे, स्वाभाविक गति से

टहनियाँ रगड़ खाने लगतीं हैं

एक ही वृक्ष की

आपस में ही

पत्तियाँ और फूल न चाहते हुये भी

कुसमय झड़ जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं

 

टहननियों की अपनी समझ है ,

परिभाषायें हैं खुशियों की ,

गमों की

फूल और पत्तियाँ असहाय

जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं 

वो जड़ें ,

जिन्होनें सब टहनियों के लिये…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 14, 2015 at 1:16pm — 17 Comments

ग़ज़ल - दिल में सुलगा हुआ शरर देखा ( गिरिराज भंडारी )

२१२२    १२१२    २२ /११२

फिर  से उगता हुआ  जो पर देखा

तो बहुत  झूम  झूम   कर  देखा

 

धूप  में  झुलसा  हर  बशर  देखा   

तन  पसीने  से  तर ब तर  देखा

 

जल  सके  आग,  कोशिशें   देखीं

दिल  में  सुलगा  हुआ शरर  देखा

 

कारवाँ   साथ  था  चला   लेकिन

खुद को ही खुद का हम सफ़र देखा

 

सर परस्ती   रही   सियासत  की

ज़ुर्म  कर जो   झुका न सर  देखा

 

हद  के  बाहर  दुआ  में हाथ  उठे  

हर  ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 12, 2015 at 10:42am — 25 Comments

ग़ज़ल - कभी ठोकरों से सँभल गये -( गिरिराज भंडारी )

कभी ठोकरों से सँभल गये

*********************

11212      11212     11212    11212

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये

 

तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को

कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये

 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

 

कभी बिन पिये रही…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 1:12pm — 25 Comments

ग़ज़ल - बुलावा आज भी आता है, नदियों कोहसारों से ( गिरिराज़ भंडारी )

१२२२     १२२२     १२२२     १२२२२

कभी  आवाज  की  सूरत , कभी केवल  इशारों से

बुलावा  आज  भी  आता है , नदियों  कोहसारों से   

 

मैं प्यासा  तो  नहीं  हूँ पर  सराबों  से ये  पूछूंगा   

कि  बदली  क्यूँ  गुजरती ही  नहीं  है रेगजारों से

 

बड़ी   बेताब  सी  लहरें  बढ़ी  तो  हैं  ज़रा  देखें

वो  कहना  चाहती है क्या, अभी जाकर किनारों से

 

अभी  मायूसियाँ  छाई  हुयी हैं दिल में अन्दर तक

अभी कुछ दिन न आये घर , कोई कह दे बहारों…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 3, 2015 at 6:30pm — 19 Comments

एक तरही ग़ज़ल - देखता हूँ इस चमक में बेबसी सोई हुई ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122    2122    212 

" मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई -

( इस मिसरे पर गज़ल कहने की मैने भी कोशिश की है , आपके सामने रख रहा हूँ )

**************************************************************************** 

ग़म सभी बेदार लगते , हर खुशी सोई हुई

जग गई लगती है फिर से, बेकली सोई हुई  -

 

बेदार -जागे हुये, बेकली - अकुलाहट  

 

फैलती ही जा रही बारूद की बदबू जहाँ

बे ख़ुदी में लग रही बस्ती वही सोई…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 30, 2014 at 11:00am — 23 Comments

ग़ज़ल - जी रहा इंसान था वो मर गया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122     2122 

खूब बोला ख़ुद के हक़ में, कुछ हुआ क्या ?

तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ?

 

खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया

देखना तो कोई पत्थर नम हुआ क्या ?

 

मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से

तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ?

 

जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों

जो बजायें, साज क्या है, झुनझुना क्या ?

 

लोग सुन्दर लग रहे थे मुस्कुराते

वो भी हँस पाते अगर, इसमें बुरा क्या…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 9:30am — 40 Comments

ग़ज़ल - कल पराया जो लगा था, आज प्यारा हो गया ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122     2122     212

अश्क़ ऊपर जब उठा, उठ कर  सितारा हो  गया

जा मिला जब अश्क़ सागर से, वो खारा हो गया

 

चन्द  मुस्कानें  तुम्हारी शक़्ल में  जो पा लिये

आज दिन भर के  लिये अपना ग़ुजारा  हो गया

 

चाहतें जब  इक हुईं , तो  दुश्मनी  भूले  सभी   

कल पराया जो लगा था, आज  प्यारा  हो गया

 

ढूँढ  कर  तनहाइयाँ  हम  यादों  में मश्गूल थे

रू ब रू आये  तो  यादों  का  खसारा हो  गया

 …

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Added by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 6:00pm — 40 Comments

गीत - आने वाला नया, नया कब रह पाता है ( गिरिराज भंडारी )

नया कहूँ तो, वैसे तो हर पल होता है

नया जागता तब है जब पिछला सोता है 

पर सोचो तो नया , नये में क्या होता है

हर पल पिछला, आगे को सब दे जाता है

 

आने वाला नया, नया कब रह पाता है

 

वही गरीबी , भूख , वही है फ़टी रिदायें 

वही चीखती मायें , जलती रोज़ चितायें

वही पुराने घाव , वही है टीस पुरानी

वही ज़हर, बारुद, धमाका रह जाता है

 

आने वाला नया, नया कब रह पाता है

 

वही अक़्ल के अंधे , जिनके मन जंगी…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 21, 2014 at 11:48am — 25 Comments

गीत / नवगीत - बर्तन भांडे चुप चुप सारे ( गिरिराज भंडारी )

बर्तन भांडे चुप चुप सारे

*************************

बर्तन भांडे चुप चुप सारे

चूल्हा देख उदासा है

टीन कनस्तर खाली खाली

माचिस देख निराशा है

 

लकड़ी की आँखें गीली बस 

स्वप्न धूप के देख रही 

सीली सीली दीवारों को

मन मन में बस कोस रही

 

पढा लिखा संकोची बेलन 

की पर सुधरी भाषा है

बर्तन भांडे चुप चुप सारे

चूल्हा देख उदासा है

 

स्वाभिमान बीमार पडा है

चौखट चौखट घूम रहा

गिर…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 17, 2014 at 11:00am — 26 Comments

अतुकांत - स्वीकार हैं मुझे तुम्हारे पत्थर ( गिरिराज भंडारी )

अतुकांत - स्वीकार हैं मुझे तुम्हारे पत्थर

*****************************************

स्वीकार हैं मुझे आज भी

कल भी थे स्वीकार , भविष्य मे भी रहेंगे

तुम्हारे फेके गये पत्थर

तब भी फल ही दिये मैनें

आज भी दे रहा हूँ , और मेरा कल जब तक है देता रहूँगा

मैं जानता हूँ  और मानता हूँ , इसी में तो मेरी पूर्णता है

यही मेरी नियति है , और उद्देश्य भी

चाहे मेरी जड़ों को तुमने पानी दिया हो या नहीं

मैं अटल हूँ , अपने उद्देश्य में

पर आज…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 8, 2014 at 4:30pm — 20 Comments

ग़ज़ल - चलो कर लें निकलने का बहाना अब ( गिरिराज भंडारी )

१२२२        १२२२       १२२२

अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना  अब

क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब

समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली

चलो कर लें  निकलने का  बहाना अब

 

वही आंसू , वही आहें  , वही   ग़म है

कहीं  पे  ख़त्म हो जाये  फ़साना  अब

 

झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है

कहेगा क्या जो  जानेगा  ज़माना  अब

 

सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी

मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 4, 2014 at 11:00am — 32 Comments

ग़ज़ल -- मुहब्बत का तराना तो बहुत गाया हुआ है ( गिरिराज भंडारी )

मुहब्बत का तराना तो बहुत गाया हुआ है

**************************************

1222    1222    1222     122 

न आये होश अब यारों नशा छाया हुआ है  

सँभल ऐ बज़्म दिल अब वज़्द में आया हुआ है

 

ज़रा राहत की कुछ सांसें तो लेलूँ मैं ,कि सदियों

बबूलों को मनाया हूँ तो अब साया हुआ है 

 

हथौड़ा एक तुम भी मार दो लोहा गरम पर

यहाँ मज़हब को ले के खून गरमाया हुआ है…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 19, 2014 at 10:10am — 18 Comments

ग़ज़ल - क़सम ले लो उन्हें फिर भी न मैं बुरा कहता --( गिरिराज भंडारी )

क़सम ले लो उन्हें  फिर भी न मैं बुरा कहता

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१२१२      ११२२     १२१२     २२ /११२ 

वो मेरे दिल में न होते  तो मैं  ज़ुदा  कहता

क़सम ले लो उन्हें  फिर भी न मैं बुरा कहता

 

वो जिसकी  ताब ने ज़र्रे  को आसमान किया  ( ओ बी ओ को समर्पित )

उसे न कहता तो फिर किसको मैं ख़ुदा कहता

 

रहम  दिली  पे  मुझे  खूब  है यकीं  उनकी

करूँ क्या ? वक़्त मिला  ही न  मुद्दआ  कहता 

 

तवील …

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Added by गिरिराज भंडारी on November 10, 2014 at 8:57am — 24 Comments

गज़ल -हर ग़ज़ल में आप ही तो हैं (गिरिराज भंडारी)

1222     1222    1222       1222

मेरी हर शायरी में हर ग़ज़ल में आप ही तो हैं

मेरे हर नज़्म की होती पहल में आप ही तो हैं

 

मुझे तो ज़िन्दगी के रंग सारे ठीक लगते थे

किसी भी रंग के रद्दोबदल में आप ही तो हैं

 

मैं कितनी भी रखूँ दूरी हमेशा पास में हो आप 

मेरे दिल में बना है उस महल में आप ही तो हैं

 

ये दुनिया है यहाँ ज़ह्राब भी शामिल है आँसू भी

मेरी आँखों से बहते इस तरल में आप ही तो हैं

 

अलग कब आप हो…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 1, 2014 at 8:00am — 27 Comments

ग़ज़ल -गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ ( गिरिराज भंडारी )

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ

***********************************

2122     2122     2122  

जब  अंधेरों  में  उजाला  देखता  हूँ

सच में रोशन भी हुआ क्या, देखता हूँ

 

मैंने कल  काँटा चुभा तो, फूल माना  

कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ

 

लोग  इंसानों  की भाषा बोल लें पर

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ

 

अश्क़  कोई  देख  लेता  है निहानी

तब  ख़ुदाई,  मैं  ख़ुदाया  देखता हूँ

 

ख्वाब सारे  थे…

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Added by गिरिराज भंडारी on October 3, 2014 at 8:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल - तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम ( गिरिराज भंडारी )

 तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

***********************************************

2122       2122        2122     212

तीर के अपने नियम  हैं जिस्म के अपने नियम

एक  का जो फर्ज़  ठहरा  दूसरे  का  है सितम

 

कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर  नुमा

और कुछ  मज़बूतियों के थे हमे भी  कुछ भरम

 

मंजिले  मक़्सूद  है, खालिश  मुहब्बत  इसलिए

बारहा  लेते   रहेंगे  मर के  सारे  फिर  जनम

 

किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 7:00am — 30 Comments

इक तरही ग़ज़ल --“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ( गिरिराज भंडारी )

तालाब  सूख जाएगा  बरगद  की छाँवों में

221      2121     1221     212

******************************************

अब  आग  आग है यहाँ  हर सू फ़ज़ाओं में

तुम  भी  जलोगे आ गये  जो मेरी राहों में

 

तिश्ना लबी  में  और  इजाफ़ा  करोगे  तुम

ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में

 

वो  शह्री  रास्ते  हैं  वहाँ  हादसे  हैं  आम

जो  चाहते  सकूँ हो, पलट  आओ  गाँवों में

 

तू  देख बस यही कि है मंजिल…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments

ग़ज़ल --आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन ( गिरिराज भंडारी )

आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन

****************************************

२१२२     २१२२     २१२२     २१२

आदमी  में   जानवर    भी    जी  रहा  है  फ़ित्रतन

आदमी   में  आदमी  को   देखना   है  इक  चलन 

साजिशें  रचतीं   रहीं हैं   चुपके   चुपके   बदलियाँ

सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?

 

पर   ज़रा तो   खोलने   का वक़्त  दे, ऐ  वक़्त  तू  

फिर   मेरी   परवाज़   होगी   और ये   नीला गगन

 

बाज,   चुहिया   खा  …

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Added by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 4:30pm — 28 Comments

एक तरही ग़ज़ल - “ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “ ( गिरिराज भंडारी )

“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “

   22   22   22   22   22   22   22  2

लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?

 

आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की

बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए

 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए

 

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 8, 2014 at 6:30pm — 25 Comments

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