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ग़ज़ल -गैर कोई है छिपा सा देखता हूँ ( गिरिराज भंडारी )

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ

***********************************

2122     2122     2122  

जब  अंधेरों  में  उजाला  देखता  हूँ

सच में रोशन भी हुआ क्या, देखता हूँ

 

मैंने कल  काँटा चुभा तो, फूल माना  

कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ

 

लोग  इंसानों  की भाषा बोल लें पर

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ

 

अश्क़  कोई  देख  लेता  है निहानी

तब  ख़ुदाई,  मैं  ख़ुदाया  देखता हूँ

 

ख्वाब सारे  थे सुनहरे मर चुके अब

कश्ती  को साहिल डुबोया, देखता हूँ

 

नालियों में कीड़ों सा जब मैं पला तो

गालियों सी ख़ुद की भाषा देखता हूँ

 

यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में

खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ  

 

मुझको जीने की दुआएं और दो मत

मैं इन्हें तो , बद दुआ सा देखता हूँ

**********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

 

Views: 448

Comment

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Comment by harivallabh sharma on October 7, 2014 at 9:23pm

बहुत उत्कृष्ट ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब ..सभी शेर लाजबाब ..

मैंने कल  काँटा चुभा तो, फूल माना  

कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ

 

लोग  इंसानों  की भाषा बोल लें पर

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ...शानदार ग़ज़ल हेतु बधाई.आपको .

Comment by विजय मिश्र on October 7, 2014 at 5:41pm
बहुत सिद्दत से महसूस होता है इसकी एक-एक लाइन | बहुत सुंदर गिरिराज भाई| अन्दाजेबयानी बहुत प्रभावित करती है |बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 6, 2014 at 6:20pm

मैंने कल  काँटा चुभा तो, फूल माना  

कुछ असर उसपे हुआ क्या, देखता हूँ------क्या बात है 

 

लोग  इंसानों  की भाषा बोल लें पर

गैर  कोई  है  छिपा  सा  देखता हूँ----कोई भरोसा नहीं आजकल 

बहुत सुन्दर ग़ज़ल ,बधाई आपको आ० गिरिराज जी 

 

Comment by shashi purwar on October 6, 2014 at 2:59pm

वाह वाह बहुत सुन्दर गजल , हार्दिक बधाई भाईसाहब

Comment by विनोद खनगवाल on October 5, 2014 at 2:09pm
बहुत सुंदर रचना।
Comment by vandana on October 5, 2014 at 6:23am

यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में

खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ  

वाह बहुत शानदार आदरणीय बहत २ बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 4, 2014 at 8:57pm

//यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में

खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ  //

आय हाय, ऐसा लगता है कि इसी शेर के लिए मुकम्मल ग़ज़ल हुई है, बहुत ही प्यार शेर, बहुत बहुत बधाई आदरणीय भंडारी साहब। 

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 4, 2014 at 2:59pm

बधाई अच्छी गजल के लिये

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 4, 2014 at 12:15pm

यूँ ही पत्थर इक चला के शांत जल में

खलबली को मैं मज़ा सा देखता हूँ .........बहुत सुंदर, इस शेर पर विशेष बधाई स्वीकारें , आदरणीय गिरिराज जी

 

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