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ग़ज़ल -उसका दावा है कि वो भटका नहीं है -- ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122    2122

बात कहने का सही लहज़ा नहीं है

या जो रिश्ता था कभी, वैसा नहीं है

 

वो ये कह लें, उनमें तो धोखा नहीं है

पर हक़ीकत है, उन्हें मौक़ा नहीं है

 

गर दशानन आज भी है आदमी में

औरतों में क्या कहीं सुरसा नहीं है ?

 

जो न चल पाया कभी इक गाम अब तक

उसका दावा है कि वो भटका नहीं है

 

ज़ुर्म की गंगा सियासत से है निकली

लाख कह लें, वो कि सच ऐसा नहीं है

 

योजनायें उच्च –निम्नों के लिये हैं

मध्यमों का तो कहीं चर्चा नहीं है

 

वो तवाफ़-ए-ग़ैर को निकला है शायद

मेरा ‘ मैं ’ मुझमें कभी रहता नहीं है

**********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 8, 2017 at 10:10am

आदरणीय राम बली भाई , हौसला अफज़ाई ला तहे दिल से शुक्रिया ।

Comment by रामबली गुप्ता on January 7, 2017 at 6:41am
बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज भाई जी। दिल से बधाई लीजिये।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:14pm

आदरनीय अरुण भाई , गज़ल अर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:14pm

आदरनीय अरुण भाई , गज़ल अर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:14pm

आदरनीय बृजेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:14pm

आदरनीय बृजेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:13pm

आदरनीया कल्पना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:12pm

आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 6, 2017 at 2:12pm

आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on January 6, 2017 at 9:30am

आदरणीय गिरिराज जी, शेर दर शेर उम्दा , एक साँस में पूरी गजल उतर गई. फिर दोबारा, फिर दोबारा.....

ज़ुर्म की गंगा सियासत से है निकली

लाख कह लें, वो कि सच ऐसा नहीं है

 

योजनायें उच्च –निम्नों के लिये हैं

मध्यमों का तो कहीं चर्चा नहीं है

इन दोनों अश'अरों पर विशेष दाद स्वीकारें. 

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