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gantantra diwas ki shubhkamnayen

महा महनीय जनतंत्र को  गणतंत्र की हार्दिक शुभकामनायें

हर्ष और  उल्लास के साथ पुनीत यह पर्व मनाएं

पर ध्यान रहे कोई भूखा नंगा  छूट न    जाए

सबको साथ लेकर पावन पुनीत यह पर्व मनाएं .

 

मन्जरी पाण्डेय

Added by mrs manjari pandey on January 25, 2013 at 10:40pm — 1 Comment

"बात दो रोटी की है "

कैसे भूल सकता हूँ ,
भूंख से उसका कराहना !
ज़िन्दगी और मौत का ,
अजीब मंज़र !!

रोटी के लिए संघर्ष ,
सोचो कितनी दर्दनाक मौत ,
वो भी भूंख से ,
पेट की आंत गवाह है !!

अखबार का प्रथम पृष्ठ ,
भुखमरी से मौत का चित्रण ,
छापा गया था उसमे ,
विधिवत देकर उदाहरण!

कितना परिश्रम किया होगा ,
आंकड़े एकत्र करने में ,
काश! थोड़ी मेहनत की होती ,
इनका पेट भरने में !!

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक \अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on January 25, 2013 at 8:23pm — 4 Comments

तिरंगे हम तेरे सामने सिर झुकाते हैं,



तिरंगे हम तेरे सामने सिर झुकाते हैं,
लेकिन , आज हमारा सिर ,शर्म से झुक रहा है,

हमें धिक्कार है,

पिछले पांच वर्ष महिला राष्ट्रपति रही 

कई प्रदेशों की मुख्यमंत्री महिला रही और हैं,

हमारी सरकार कि नीतियों  पर

प्रत्यक्ष ,अप्रत्यक्ष एक महिला का ही राज…
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Added by Dr Dilip Mittal on January 25, 2013 at 8:00pm — 2 Comments

तुम जो होंसला दिखाओ तो फर्क पड़ता है

तुम जो होंसला दिखाओ तो फर्क पड़ता है साहेब .

वर्ना , नंबर दो क्या, नंबर एक भी हो जाओ,किसे फर्क पड़ता है ?

जलसे,जयकारे ,चापलूसों की फ़ौज ,किसे फर्क पड़ता है ?

देशभक्त को अपना दोस्त बनाओ तो फर्क पड़ता है ,

दूसरों के भ्रष्टाचार की कलई खोलो ,किसे फर्क पड़ता है ?

अपनों के गलत कामों को रोको तो फर्क पड़ता है ,

पिछड़ों के मसीहा बनो किसे फर्क पड़ता है…

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Added by Dr Dilip Mittal on January 25, 2013 at 7:36pm — 2 Comments

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के प्रथम दिन की संक्षिप्त रपट - लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला

24 जानवरी 2013 जयपुर; आज से "जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल" प्रारंभ हो गया । इस साहित्यिक कुम्भ में देश विदेश से आये साहित्यकार, साहित्य सागर में डुबकी लगा रहे है । प्रथम दिन धर्म गुरु दलाई लामा और महाश्वेता देवी के नामं रहा ।
ओ बी ओ के सुधि पाठको के लिए कुछ अंश प्रस्तुत है ...
दलाई लामा - तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा जिनके शिष्यों की गिनती करना चीन,भारत और तिब्बत व अन्य देशों में शायद संभव नहीं, पर वे स्वयं को…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 25, 2013 at 5:49pm — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
केक्टस ही तो उगेंगे

ना जाने कब तुमने चुपके से 

ये इश्क के बीज रोपित किये 

 मेरे सुकोमल ह्रदय में 

की मैं बांवरी हो गई 

तुम्हारी चाह  में ,सांस लेने लगी 

उस तिलस्मी फिजाँ  में 

रंग बिरंगे इन्द्रधनुष आकर लेने लगे 

मेरी रग रग  में  

ऐ  मेरे शिखर तुम्हारी  गगन चुम्बी चोटी  

भी अब सूक्ष्म और सुलभ लगने लगी 

मुहब्बत के नशे में चूर 

इश्क के जूनून में जंगली 

घास बन  ,फूलों के संग संग तुम्हारे 

बदन पर रेंगती…

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Added by rajesh kumari on January 25, 2013 at 11:36am — 10 Comments

स्वागत गणतंत्र

स्वागत गणतंत्र

प्रो. सरन घई, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान

 

स्वागतम सुमधुर नवल प्रभात,

स्वागतम नव गणतंत्र की भोर,

स्वागतम प्रथम भास्कर रश्मि,

स्वागतम पुन:, स्वागतम और।

 

जगा है अब मन में विश्वास,

कि सपने पूरे होंगे सकल,

कुहुक कुहुकेगी कोयल कूक,

खिलेगा उपवन का हर पोर।

 

युवा होती जायेगी विजय,

सुगढ़ होता जायेगा तंत्र,

फैलती जायेगी मुस्कान,

विहंसता जायेगा…

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Added by Prof. Saran Ghai on January 25, 2013 at 8:52am — 8 Comments

फहराऊं बुलंदी पे ये ख्वाहिश नहीं रही .

फ़िरदौस इस वतन में फ़रहत नहीं रही ,

पुरवाई मुहब्बत की यहाँ अब नहीं रही .

नारी का जिस्म रौंद रहे जानवर बनकर ,

हैवानियत में कोई कमी अब नहीं रही .

फरियाद करे औरत जीने दो मुझे भी ,

इलहाम रुनुमाई को हासिल नहीं रही .

अंग्रेज गए बाँट इन्हें जात-धरम में ,

इनमे भी अब मज़हबी मिल्लत नहीं रही .

फरेब ओढ़…

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Added by shalini kaushik on January 25, 2013 at 12:00am — 3 Comments

समाज का पोस्टमार्टम

गिर रहा है मनुष्य का अस्तित्व

यह शब्द हर समय वातावरण में गूंज रहा है।

फिर भी थम नहीं रही है,

बलात्कार और अपहरण की घटनाएं

कभी बस, कभी ट्रेन तो कभी चौक चौराहे से उठ रही हैं

सिसकियां

हर समय हो रहा है समाज का पोस्टमार्टम

एक

आज के अखबार में छपा था

चौराहे पर दिन दहाड़े हुआ

एक कमसिन युवती के साथ बलात्कार

अखबार को मिले चटपटे मसाले से

उड़ रही थीं समाज की धज्जियां

पत्रकार और अभियुक्त दोनों ताव दे-देकर ऐंठ रहे थे मूंछे

क्योंकि

एक पहले पन्ने…

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Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on January 24, 2013 at 9:14pm — 9 Comments

आओ दिल का दीया जला लो

सद्भावों की थोड़ी खूशबू

सरगम की आवाज बची है

आओ दिल का दीया जला लो

मुट्ठी में थोड़ी राख बची है

नई उमर के गर्म खून से

उठी हुई कुछ भाप बची है

श्रद्धा के कुछ बूंद जमे से

बचपन की एक शाख बची है

आओ दिल का.................

तेरी आरजू मेरी शिकायत

की मीठी तकरार बची है

जग से जाने के कुछ लम्‍हें

जीवन की सौगात बची है

आओ दिल का.................

घुटी व्‍यथा जो…

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Added by राजेश 'मृदु' on January 24, 2013 at 6:29pm — 15 Comments

फांसले दिल के अब मिटते नहीं हैं हमसे

प्यार ने तेरे बीमार बना रखा है
जा चुके कल का अख़बार बना रखा है

फांसले दिल के अब मिटते नहीं हैं हमसे
चीन की खुद को दीवार बना रखा है

बेचकर गैरत अपनी सो चुके हैं कब के 
हमने उनको ही सरदार* बना रखा है

शोर सा मेरे इस दिल में ऐसा मचा है
जैसे गठबंधन सरकार बना रखा है

चापलूसों का दरबार लगा है नादिर
झूठ को ही कारोबार बना रखा है

*सरदार = मुखिया

Added by नादिर ख़ान on January 24, 2013 at 5:30pm — 5 Comments

तुम से मैं हूँ मुझ से तुम हो

वेश बदल कर मिलोगे
आहटें न बदल पाओगे ..
लब सिल कर रखोगे
नज़रों का बोलना ना छुपा पाओगे ..
चलते -चलते राह बदल दोगे
पगडंडियाँ ना छोड़ पाओगे ...
मिलोगे भी नहीं ,बात भी नहीं करोगे
सपने में आना ना छोड़ पाओगे ..
तुम से मैं हूँ , मुझ से तुम हो
हर बात मुझसे जुडी है
तुम मुझसे ना छुपा पाओगे ...

Added by upasna siag on January 24, 2013 at 4:39pm — 4 Comments

षटपदियाँ

सामयिक षटपदियाँ:

संजीव 'सलिल'

*

मानव के आचार का स्वामी मात्र विचार.

सद्विचार से पाइए, सुख-संतोष अपार..

सुख-संतोष अपार, रहे दुःख दूर आपसे.

जीवन होगा मुक्त, मोहमय महाताप से..

कहे 'सलिल' कुविचार, नाश करते दानव के.

भाग्य जागते निर्बल होकर भी मानव के..

***

हार न सकती मनीषा, पशुपति दें आशीष.

अपराजेय जिजीविषा, सदा साथ हों ईश..

सदा साथ हों ईश, कैंसर बाजी हारे.

आया है युवराज जीत, फिर ध्वज फहरा रे.

दुआ 'सलिल' की, मौत इस तरह मार न…

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Added by sanjiv verma 'salil' on January 24, 2013 at 3:00pm — 6 Comments

दुनिया केवल पैसे की

दुनिया केवल पैसे की

प्रो. सरन घई, संस्थापक, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

ऐसे की ना वैसे की, ये दुनिया केवल पैसे की।

ना कीमत है इसे धर्म की,

ना कीमत है इसे कर्म की,

इसको तो परवाह है केवल बिरला, टाटा जैसे की।

ना साधू ना जोगी पुजता,

ना ईश्वर ना अल्ला रुचता,

यहाँ तो केवल जय-जय होती ठन-ठन बजते पैसे की।

समाचार ना लेख सुहाते,

ना गीता ना वेद ही भाते,

यहाँ लोग लिटरेचर पढ़ते फ़िल्मी…

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Added by Prof. Saran Ghai on January 24, 2013 at 6:51am — 3 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
दोहा विशिष्ट /डॉ. प्राची

सप्त सिन्धु घट बह रहे, कर्ण पार स्वर सप्त.

व्योम वृहत निज व्याप्त है, सप्त वर्ण संतृप्त//१//

**************************************************

तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.

तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त//२//

**************************************************

मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.

तप्त इष्टि परिशान्तिनी, शक्ति उर अनुज्ञप्त//३//

**************************************************

डॉ.…

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Added by Dr.Prachi Singh on January 24, 2013 at 12:00am — 31 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
(छंद त्रिभंगी एक प्रयास ) कर्म किये जा

{चार चरण मात्रा ३२ यति (१०,८,८,६) , चरणान्त समतुकांत तथा चरणान्त में जगण वर्जित,  अंत में गुरु (२)}



(1)निश्शंक  जिए जा , कर्म किये जा , ,फल की मत कर ,अभिलाषा 

भगवन सब जाने ,सब पहचाने , कृपा करेंगे   ,रख आशा 

कर मनन निरंतर ,हिय अभ्यंतर,तन मन सुख की ,परिभाषा

पर लोभ  बुरा है , क्षोभ  बुरा है,   पर मन  जीते   ,  मृदु  भाषा 

(2)

शिव हरि  नाम भजो ,मद बिषय तजो ,जितेंद्रिय नाम,सुख पाओ 

भज  दुर्गे अम्बा , माँ जगदम्बा ,मातु रूप  नौ  , …

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Added by rajesh kumari on January 23, 2013 at 11:01pm — 12 Comments

मुझे फकत एक शाम चाहिए (अभिलाषा)

मुझे फकत एक शाम चाहिए

बस अपने ही नाम चाहिए

उस तरु की छाया में बैठे

मन में एक विराम चाहिए



कितने अवसादों से घिरकर

थके थके क़दमों से चलकर

कितनी जिम्मेदारी है सर पर

थोडा सा आराम…

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Added by SUMAN MISHRA on January 23, 2013 at 7:30pm — 6 Comments

मुझको क़फस में क़ैद रहने दीजिए

मुझको क़फस में क़ैद रहने दीजिए
अश्कों को मेरे यूँ ही बहने दीजिए

मेरे गुनाहों की तलाफी है यही
हर सितम चुपचाप सहने दीजिए

गुन्ग दीवारें फकत और कुछ नहीं
ना कीजिए आवाज, रहने दीजिए

महव-ए-गम हो जाओगे ऐ गम-गुसार
होठों को मेरे कुछ ना कहने दीजिए

किस बात के हो मुन्तज़र "विश्वास" तुम
ख़्वाबों को होकर ख़ाक ढहने दीजिए

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Praveen Verma 'ViswaS' on January 23, 2013 at 4:30pm — 5 Comments

"दर्द और आंसू "

स्वयं के आंसुओं से ,

कपोल उसका झुलस गया !

दया हाय! आयी मुझको ,

मेरा भी अश्रु बह गया !!

अपनो के लिए उसकी ,

पत्थर तोड़ती माता !

भूंख से छटपटाता बच्चा,

हाय! पाषाण ह्रदय विधाता !!

असहनीय पीड़ा से रो रही थी ,

नम आँखों से दर्द धो रही थी !

कई दिनों की भूंखी बेचारी ,

खुली आँखों से सो रही थी !

उसके आँख का खारा पानी ,

यह कह रहा था !

दिल में कहीं गम का ,

समंदर बह रहा था !!

दम तोड़ती ज़िन्दगी ,

दम तोड़ती मानवता !

कहीं ना…

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Added by ram shiromani pathak on January 23, 2013 at 12:38pm — 7 Comments

शब्‍द

शब्‍द,

तेरी गंध

बड़ी सोंधी है

तेरी देह,

बड़ी मोहक है

अपनी उपत्‍यका में

एक मूरत गढ़ने दोगे ?

देखो न,

तेरे ही आंचल का

वह विस्मित फूल

मोह रहा है मुझे

और मेरे बालों में

अंगुली फिराती

बदन पर हाथ फेरती

मुझे सिहराती

सजाती, सींचती

वो तुम्‍हारी लाजवंती की साख

जब

चांद के दर्पण में

कैद

मेरी प्रतिच्‍छाया को

आलिंगन में भींच लेती है,

और मैं…

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Added by राजेश 'मृदु' on January 23, 2013 at 12:00pm — 14 Comments

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