जब छोटी सी है दुनिया तुम्हारी
तो अनंत संसार में तुम्हारा क्या
जब मेंडक हो तुम कूंए के
तो दरिया क्या और किनारा क्या
जब भूल चुके हो अपनों को
तो संसार में तुमको प्यारा क्या
जब कूंद चुके हो दंगल में
तो दुश्मन क्या और यारा क्या
जब बाँट रहे खुले हाथों से
तो थोड़ा क्या और सारा क्या
जब धुल लिखी है किस्मत में
तो ज़मीन से ज्यादा न्यारा क्या
जब दुनिया का है इश्वर वो
तो मेरा क्या और तुम्हारा…                      
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                                                        Added by Bhasker Agrawal on December 29, 2010 at 12:44pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      ग़ज़ल  
अज़ीज़ बेलगामी 
मेरा असासा सुलगता हुवा मकाँ है अभी 
अगरचे आग बुझी है  धुवाँ धुवाँ  है  अभी 
यकीं की शम्मा जलाता रहा हूँ सदियौं…
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                                                        Added by Azeez Belgaumi on December 29, 2010 at 10:53am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                    
                                                        Added by Lata R.Ojha on December 29, 2010 at 2:30am                            —
                                                            5 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                    
                                                        Added by Lata R.Ojha on December 29, 2010 at 2:00am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      
मिटटी ...
नर्म होती है
जब गीली होती है
पक जाती है वह
जब आग पर
रंग ,रूप आकार नहीं बदलती //
बांस ...
जब कच्चा होता है
जिधर चाहो ,मोड़ दो
पक जाने पर
नहीं मुड़ेगा //
आदमी ...
कब पकेगा
मिटटी की तरह
बांस की तरह
शायद कभी नहीं क्योकि
दिल तो बच्चा है जी //…
                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by baban pandey on December 28, 2010 at 11:00am                            —
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                      विशेष रचना : 
                                                                                   
षडऋतु-दर्शन                  
*
संजीव 'सलिल' 
*…                      
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                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on December 27, 2010 at 11:54pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      
 झारखंड बिहार की सीमा पर बसे कोडरमा जिले के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पानी के इस्तेमाल से बच्चे और बडे विकलांग हो रहे हैं। ये बदनसीब ऐसे कि पानी का घूंट लेते वक्त उनके हाथ-पैर कांपते हैं। इन गांवों में बडे भी खुद कब की लाठी थामे हैं, अब बच्चों को बैसाखियों के सहारे जिंदगी ढोते देख रहे हैं। कोडरमा घाटी में बसे गाव मेघातरी, उससे सटे विष्नीटिकर और करहरिया को विकास का…                      
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                                                        Added by sanjeev sameer on December 27, 2010 at 10:08pm                            —
                                                            No Comments                                                
                                     
                            
                    
                    
                      देश की सबसे बड़ी समस्या महंगाई ने बीते कुछ बरसों से इस कदर लोगों की फजीहत खड़ी की है, उससे घर का बजट ही बिगड़ गया है। हाल की महंगाई ने तो लोगों के कलेजे, चबड़े पर ला दिया है। जिस तरह देश में विकास का सूचकांक बढ़ने का दावा किया जा रहा है, उस लिहाज से महंगाई कई गुना ज्यादा बढ़ रही है और सरकार है कि दावे पर दावे किए जा रही है। एक बार फिर महंगाई के सुरसा ने मुंह फाड़ा तो जैसे-तैसे सरकार यह कह रही है कि मार्च तक महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा, मगर यहां सवाल यही है कि इससे पहले सरकार ने कई बार जो दावे किए थे,…                      
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                                                        Added by rajkumar sahu on December 27, 2010 at 3:37pm                            —
                                                            No Comments                                                
                                     
                            
                    
                    
                      मैं कौन हूँ?
ये सोच कर ,
 विचार कर ,
 परेशान हो गया ,
 मेरी सोचने की क्षमता,
 बेकार हो गई !
 मैं कौन हूँ  ?
 मन बोला मैं पंडित ,
 मेरी बातो में दम हैं ,
 इस धरती पर ,
सबसे बुद्धिशाली ,
मैं सबसे गुणी ,
मगर जो ,
हश्र रावण का हुआ ,
वो सोच मैं बेजार हो गया !
 मैं कौन हूँ  ?
 मगर मन भटकता रहा ,
 अपने बल पे गरूर था ,
 डरते हैं लोग सारे ,
अच्छो अच्छो को ,
पस्त कर डाला ,
मगर जो ,
हश्र…
                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Rash Bihari Ravi on December 27, 2010 at 3:30pm                            —
                                                            14 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      बहुत कुछ सुना पर सीख न पाया
बहुत कुछ सूझा पर लिख न पाया
बहुत कुछ हुआ मेरे पीठ पीछे
मुडके देखा तो कुछ और ही पाया 
नमक के जैसी थी प्रकृति मेरी
पानी में घुला पर मिट न पाया
बन बोछार जब छलका में
चिकने घड़ों पे टिक न पाया
घूमता हूँ छुपाये कितने मोती में
खारा समुन्दर हूँ छुप न पाया
तंग होकर जब खुद को बेचने चला बाज़ार में
निष्फल था…                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Bhasker Agrawal on December 27, 2010 at 8:30am                            —
                                                            9 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                    
                                                        Added by Lata R.Ojha on December 27, 2010 at 1:00am                            —
                                                            6 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      प्रेम हो गया आज नमकीन
 …
                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 26, 2010 at 11:25pm                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      
 एक कविता आज के दौर के नाम....
पैसा है, उसका नशा है, और शोहरत है
अब कहाँ इतनी फुरसत है
लोगों के आसपास होने का अहसास नहीं होता
अपनों के खोने का डर आसपास नहीं होता
हसरतें, इतनी कि ख़त्म ही नहीं होती!
पाना ये , वो भी कि, सबर ही नहीं होती
स्नेह, प्यार, विश्वास शब्दों में अब गुजर नहीं होती
प्रकृति के नज़ारे भी लगते…                      
Continue
                                           
                    
                                                        Added by anupama shrivastava[anu shri] on December 26, 2010 at 7:00pm                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे 
जुटाई थी हिम्मत उसके लिए 
कुछ ऐसे तेरे लडखडाये कदम
जैसे लगी ठोकर कोई 
वादे थे जो घबरा गए 
होंगे वो पूरे अब नहीं 
यादें थी जो संजोई तूने
काँटों सी वो चुभने लगीं 
बढ़ने थे जो जमकर कदम 
राहों में वो दुखने लगे
उभरी थी जो कश्ती बड़ी
भवर में कहीं खो गयी
कोन सी है मंजिल तेरी 
वो ही है या वो नहीं 
कोन सी है मुश्किल तेरी 
कुछ है नहीं कुछ है नहीं 
शायद वो कुछ बताता तुझे 
आगे वो…                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Bhasker Agrawal on December 26, 2010 at 6:58pm                            —
                                                            2 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      ग़ज़ल 
अज़ीज़ बेलगामी
ग़म उठाना अब ज़रूरी हो गया
चैन पाना अब ज़रूरी हो गया
आफियत की ज़िन्दगी जीते रहे
चोट खाना अब ज़रूरी हो गया
गूँज उट्ठे जिस से सारी काएनात
वो तराना अब ज़रूरी हो गया 
जारहिय्यत  के दबे एहसास का
सर उठाना अब ज़रूरी हो गया
अब करम पर कोई आमादा नहीं
दिल दुखाना अब ज़रूरी हो गया
साज़िशौं, रुस्वायियौं को दफ'अतन…
                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Azeez Belgaumi on December 26, 2010 at 2:00pm                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      आधुनिकता की चकाचौंध जिस तरह से समाज पर हावी हो रही है, उससे समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा हो रही हैं। एक समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय जैसे कई अमर सपूतों ने लंबी जंग लड़ी और समाज में जागरूकता लाकर लोगों को जीवन जीने का सलीका सिखाया। आज की स्थिति में देखें तो समाज में हालात हर स्तर पर बदले हुए नजर आते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है, मगर यह चिंता की बात है कि इस दौर में हमारी युवा पीढ़ी आखिर कहां जा रही है ? समाज में इस तरह का माहौल बन रहा है,…                      
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                                                        Added by rajkumar sahu on December 26, 2010 at 1:25pm                            —
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                      ऐसे समय में
जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है
बाजार हो रहा है हावी
और आदमी बिक रहा है
कैसी बच सकेगी आदमियत
यह सोचना जरूरी है।
टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें
हकीकत नहीं है
और न ही पेज 3 पर के चेहरे
आज भी बच्चे 
दो जून की रोटी के लिये 
चुनते हैं कचरे
और करते हैं बूट पालिष
अरमानों को संजोये 
हजारों लडकियां 
पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में
और यही हकीकत है।
पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है
जब बाजार हो रहा है…                      
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                                                        Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:29pm                            —
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                      कुछ दिनो सेये शहर लगता उदास हैउपर से शान्त परअन्दर से बना आग है.कुछ दिनो सेसान्झ होते हीखिडकिया और दरवाजे हो जाते है बन्दऔर लोग अपने ही घरो मेहोकर रह जाते है कैद.कुछ दिनो सेलगता ही नही किरहता है यहा कोई आदमी…                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:26pm                            —
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                      कभी कोई अनजाना 
अपना हो जाता है. 
कभी किसी से 
प्यार हो जाता है. 
ये जरूरी नहीं 
कि जो खुशी दे 
उसी से प्यार हो. 
दिल तोडने वाले से भी 
प्यार हो जाता है. 
जिन्दगी हर कदम पर 
इम्तिहान लेती है, 
तन्हाई हर मोड पर 
धोखा देती है. 
फिर भी हम 
जिन्दगी से प्यार करते हैं 
क्यूंकि हम किसी का 
इंतजार करते हैं. 
कुछ दोस्तों का 
हां दोस्तों का 
इंतजार करते हैं.                                          
                    
                                                        Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:22pm                            —
                                                            1 Comment
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      लघुकथा
एकलव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई.,…                      
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                                                        Added by sanjiv verma 'salil' on December 26, 2010 at 12:06pm                            —
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