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October 2014 Blog Posts (161)

वैदेही

एक बार फिर आओ न वैदेही
फिर राम की बनो सनेही
इस बार उसके साथ वन में मत जाओ
उसे ले चलो किसी शहर की ओर
जहाँ अनगिनत रावण तुम्हारे
अपहरण का स्वप्न सजाये बैठे हैं.
रावण द्वारा अपहृत हो जाओ,
इन नए राक्षसों के विनाश का
तुम फिर से कारण बनो.
एक नया संसार बसाओ
इनका अब संहार कराओ.

तनिक फिर भृकुटि बनालो
राम को फिर से बुला लो.

मौलिक व अप्रकाशित
विजय प्रकाश शर्मा

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on October 8, 2014 at 10:30pm — 18 Comments

चित्त की वृत्ति

चित्त की वृत्ति

चंचल है कदाचित,

यह मचलती

सूर्य के प्रकाश जैसी।



तन विषय विष से भरे

घट को पिए जो

खार के सागर

अहं के ज्वार उगले।



रोक दो वृत्ति

तमस को भेद कर -चित्त में

योग - अनुशासन

तुला पर तोलता है।



वृत्ति की आवृत्ति

निश्छल शून्य जब भी

दिव्य अद्भुत योग से

साक्षात मुक्ति।



आत्मा - परमात्मा

चित्त के उपज जो

एक खोली में रहें जीव जैसे-

काष्ठ में अग्नि,

जल में वाष्प…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 8, 2014 at 9:00pm — 14 Comments

पूर्वगाथा ....(विजय निकोर)

पूर्वगाथा

हादसा नया हो न हो

पुरानी चोट से जगह-जगह

दर्द नया

लहर दर्द की, अब दुखी

तब दुखी

कब रुकी

बहती चली गई

मेघ यादों के आँखों में घने

बरसे, बरसे अनमने

तालाब से नदी, सागर

रातों सियाह महासागर बने

कोई नि:सीम अखण्ड विश्वास

तारिकाएँ नभ में कितनी टूटीं

टूटी नहीं किसी के आने की आस

स्नेह की किरणों की उष्मा में बादल

बने फिर घने, फिर बरसे

भीतर सागर…

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Added by vijay nikore on October 8, 2014 at 8:00pm — 14 Comments

गाँव आ गया.....

* गाँव आ गया*



उबड़ खाबड़ सड़कें,गाड़ी

हिचकोले खाती।

सड़क किनारे लगीं सब्जियाँ

मन में बस जातीं

शुद्ध हवा साँस खिल आए।

गाँव आ गया।



पानी लेने ललनाएँ भी

दूर दूर आती।

सिर काँधें पर धरी गगरियाँ

छलक छलक जाती।

गागर कटि संग लचकी जाये।

गाँव आ गया।



लिपे पुते हैं सजे धजे से

आँगन दालानें।

भोली भाली सरल सहज सी

निश्छल मुस्कानें।

आँगन को तुलसी महकाये।

गाँव आ गया।



आम नीम जामुन कनेर के

पग… Continue

Added by seemahari sharma on October 8, 2014 at 4:35pm — 6 Comments

चुटकियों से माँ...................

एक छतरी है जो याद मुझको बहुत आती है|

चुनरी पालने की याद मुझको रोज आती है |।

 

सुधियों से परिपूर्ण,सुध बचपन की आती है |

अंगने के झूले की,याद उस उपवन की आती है|।

 

सायबान की छाया में ..पालने की गोदी में.......

हरकतों पर मेरी दूर खड़ी माँ खूब  मुस्कुराती है।।

 

चुटकियों से माँ, मेरे चेहरे पर सरगम सजाती है |

डूबकर मेरी किलकारियों में ,हर गम भूल जाती है|।

 

माँ मुझे पालना झुलाती है ,कभी गोदी में हिलाती है…

Continue

Added by anand murthy on October 8, 2014 at 4:30pm — 4 Comments

स्नेह की छाँव (लघुकथा)

" बेटा, तुम जब भी शहर से आते हो तो घर में कम और इस पेंड़ के पास ज्यादे समय बिताते हो, घर में मन नही लगता क्या..."

" चाचा, यहाँ बड़ा सुकून मिलता है! याद है आपको जब मैं नर्सरी में पढता था! एक बार वहाँ पौधशाला वाले पौधे बाँट रहे थें, ये आम का पेंड़ मैं वहीं से लाया था, पिता जी पौधों के प्रति मेरा प्रेम देखकर बहुत खुश हुए थें!  इसे उन्होने अपने हाथों से लगाया था और खाद-पानी भी समय-समय से दिया करते थें! इसे वे बहुत प्यार करते थें,  इसीलिए कुछ पल इसकी छाया में बिताना, पिता जी के स्नेह की…

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Added by Pawan Kumar on October 8, 2014 at 12:30pm — 16 Comments

सच! में..आज बहुत बदसूरत है

बहुत सुंदर है

मीठा है बहुत,

बिलकुल मिश्री की तरह

मिल जाता है, कहीं भी

कभी भी, हर तरफ

खोखलापन लिए, समा जाये इसमें

कोई भी,कितना भी.

सच! ही तो है

असत्य जो है

कितना आसान है

इसे पाना, स्वीकारना

खुश हो लेना

चलायमान तो इतना

कि रुकता ही नहीं

अनेकों राहें, उनमे भी कई राहें

पूर्ण सामयिक ही बन बैठा  है.

और वो देखो !.. सत्य

वहीं खड़ा है, अनंत काल से

न हिलता न…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on October 8, 2014 at 10:02am — 18 Comments

थका-हारा-मेहनतकश आदमी

थका-हारा-मेहनतकश आदमी

थका-हारा-मेहनतकश आदमी कहीं भी सो सकता है

24 घंटे चिल्लाती पौं-पौं पी-पी पू-पू करती

धूल फांकती धुआं चाटती सड़को के फूटपाथों पे भी |

उसके फेफड़े बहुत मज़बूत होते हैं…

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Added by somesh kumar on October 8, 2014 at 12:00am — 7 Comments

लगता है ये त्योहारों का मौसम है..

खुशूबू हैं संगीत हवाएं सरगम हैं

ये आंसू की बूंद नहीं ये शबनम है.

सूरज जब भी ड्यूटी करके घर लौटा
अंधकार में डूबा सारा आलम है,

बडे—बडे तैराक डूबते देखे हैं,
बचकर रहना उसकी आंखें झेलम हैं,

तुम क्या जानो अश्क कहां से आते हैं
उनसे पूछो जिनकी आंखों में गम है,

चौराहों पर पुलिस, लोग सहमे—सहमे
लगता है ये त्योहारों का मौसम है।।


- मौलिक व अप्रकाशित

@ अतुल कुशवाह

Added by atul kushwah on October 7, 2014 at 11:30pm — 5 Comments

दीप जलाएँ....

'दीप जलाएँ....



मावस का तम घना मिटाएँ

आओ सब मिल

दीप जलाएँ।



महकाएँ घर आँगन द्वारे

स्वच्छ करें गलियाँ चौबारे

कटुता के सब महल ढहाएँ

हिलमिलकर यह

पर्व मनाएँ।



अम्बर का तम मिट ना पाया

अनगिन तारे थाल सजाया

तम की शिला भेद जो पाएँ

दीप माल से

धरा सजाएँ।



घर जो उजियारे को तरसे

माँ लक्ष्मी की कृपा यूँ बरसे

दीप पर्व वो सभी मनाएँ

खील बतासे

ना मुरझाएँ।

आओ मिल सब

दीप जलाएँ।

सीमा हरि… Continue

Added by seemahari sharma on October 7, 2014 at 7:18pm — 16 Comments

दीप कोई प्रीत का अंतस जले

**दीप कोई प्रीत का अंतस जले.

 

हो चुकी है रात आधी,

घोर तम मावस पले.

इस अमा में दीप कोई,

प्रीत का अंतस जले.

--

हर तरफ खुशियाँ बिछी हैं,

द्वार तोरण से सजे.

आतिशी होते धमाके,

वाद्य मंगल धुन बजे.

कौन देता ध्यान उनपर,

भूख से मरते भले.

--

बाल दे इक दीप कोई,

रौशनी भी हो यहाँ.

झोपड़ी को राह तकते,

घिर चूका है कहकशाँ.

लूटते सारी ख़ुशी वो,

काट सकते जो…

Continue

Added by harivallabh sharma on October 7, 2014 at 2:07pm — 13 Comments

चौराहे-चौपाल हर जगह मिलते हैं बौराए लोग --- सुलभ अग्निहोत्री

चौराहे-चौपाल हर जगह मिलते हैं बौराये लोग

हमसे, तुमसे, इससे, उससे, सबसे आजिज आये लोग

बड़ी दिलेरी दिखलाते थे बिला वजह हर मौके पर

वक्त पड़ा तो सबसे पहले भागे पूँछ दबाये लोग

भाई का कंधा भी अपने कंधे से उठता देखा

कैसे उसके कद को छांटें, सोच-सोच पगलाये लोग

नुक्कड़-नुक्कड़ ढोल पीटते अपने सूरज होने का

सूरज जब निकला तो बरबस चुंधियाये अँधराये लोग

खुद ही तमगे गढ़े टांककर खुद ही अपने सीने पर

अपने चारण बने आप ही अपने पर…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on October 7, 2014 at 12:00pm — 13 Comments

एक व्यवस्थित इंटरप्राइज़-डा० विजय शंकर

अच्छे काम का प्राइज़ हो न हो

बेईमानी एक व्यवस्थित इंटरप्राइज़ है .

बेईमानी स्वयं बड़ी ईमानदारी से होती हैं .

सिद्धांतों , आदर्शों में नहीं , व्यवहार में होती है .

इसीलिये लोग किसी को यह सलाह नहीं देते

कि बेईमान बनो, कहते हैं व्यवहारिक बनो .



व्यवहार का नेटवर्क कितना भी गहन क्यों न हो

व्यवस्था का हर अंग अकेला माना जाता है ,

कोई अदना या सरगना कभी पकड़ा भी जाए ,

वह स्वतन्त्र, अकेला इंटरप्रिन्योर माना जाता है .

सजा सिर्फ उसे होती है ,चाहे जितनी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on October 7, 2014 at 10:36am — 14 Comments

कविता का आगमन

 दूर किसी स्टेशन से

शहर के ट्रैफिक को चीरते हुए

फुटपाथ पर उनींदे पड़े बच्चे का स्पर्श लिए

चौथे माले पर बेरोजगारों के कमरे तक

तुम्हारा आना

 

उन उखड़ी सड़कों से होते हुए

जहाँ की धूल विकास के नारों पर मुस्कुराती है,

बस की पिछली सीढ़ियों से लटकते हुए

बेटिकट पहुँचना मेरे गाँव

और मुझे छज्जे के कोने पर बैठा देख

यक-ब-यक मुस्कुराना  

 

तुम्हारा आना

छिपकली की तरह दीवार पर

आँधियों की तरह…

Continue

Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 6, 2014 at 11:34pm — 2 Comments

ग़ज़ल- वहशतों का असर न हो जाये

वहशतों का असर न हो जाये

आदमी जानवर न हो जाये



शाम के धुंधलके डराने लगे हैं,

हमसे ओझल नगर न हो जाये



अपने रिश्तों को अपने तक रखना,

मीडिया को खबर न हो जाये



ग़म का पत्थर मुझे दबा देगा,

आपकी हाँ अगर न हो जाये...



आप झुक जाएंगी जवानी में,

टहनियों सी कमर हो जाये



आपका इन्तजार जहर बना,

“सब्र वहशत असर…

Continue

Added by सूबे सिंह सुजान on October 6, 2014 at 9:00pm — 2 Comments

कुर्बानी (लघुकथा)

"क्या बात है, आपने कुर्बानी क्यों नहीं दी इस बार ? "
"दरअसल क़ुरआन मजीद फिर से पढ़ ली थी मैंने |"

.

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by विनय कुमार on October 6, 2014 at 9:00pm — 15 Comments

ग़ज़ल --एक तू क्या मिला मैं ख़दा हो गया

212 212 212 212

----------------------------

इश्क़ मैंने किया दिलज़ला हो गया

उम्र भर के लिये मसख़रा हो गया



कुछ ग़लत फहमियाँ इस क़दर बढ़ गयीं

एक तू क्या मिला मैं ख़ुदा हो गया



चाँद भी सो गया रात तन्हा कटी 

लुट गयी महफ़िलें सब ये क्या हो गया



एक लौ दिख रही थी कहीं दूर फिर

देख़ते देख़ते रतज़गा हो गया



दर्द बढ़ता गया आँख बहती गयीं

आँसुओं का समन्दर ख़ड़ा हो गया



आसमाँ फट पडा जब ये उसने कहा

हाथ छोड़ो मेरा मैं बड़ा हो…

Continue

Added by umesh katara on October 6, 2014 at 5:40pm — 3 Comments

तुम्हारी याद में बरसात का मौसम हुईं आंखें..

लगे हैं जोडने में फिर भी अक्सर टूट जाते हैं,

यहां रिश्ते निभाने में पसीने छूट जाते हैं,

भले रंगीन हैं इनमें हवाएं कैद हों लेकिन

ये गुब्बारे जरा सी देर में ही फूट जाते हैं।।

आपका हाथ थामकर मैं चल ही जाऊंगा,

अगर मना करोगे तो मचल ही जाऊंगा,

मैंने माना कि रेस कातिलों से होनी है,

मुझे यकीन है बचकर निकल ही जाऊंगा।।

आजकल ये मन मेरा जाने कहां खोने लगा

जब कभी भी गम लिखा तो ये हृदय रोने लगा,

हाथ में थामी कलम तो खुद—ब—खुद चलने…

Continue

Added by atul kushwah on October 6, 2014 at 5:30pm — 1 Comment

तो क्या बात हो

अपने जज्बात दिखाओ तो क्या बात हो

खुल के हर बात बताओ तो क्या बात हो

सभी ने दिन में हैं तारे ही दिखाये मुझको

तुम कभी चाँद दिखाओ तो क्या बात हो

वो अकेला ही चल पड़ा राहे-सच्चाई

दो कदम साथ मिलाओ तो क्या बात हो

मेरे…

Continue

Added by Pawan Kumar on October 6, 2014 at 5:30pm — 4 Comments

ये मेरी वाली है (लघुकथा) // --शुभ्रांशु पाण्डेय

 जैऽऽ…….दुर्गामइया की जैऽऽऽ……

नाव के एकबारगी हिचकोले खाने के साथ ही दुर्गा एवं संलग्न प्रतिमाओं का विसर्जन हो गया. माता, माता के शृंगार, शेर के अयाल, महिष के सींग, असुर की फैली भुजायें, सबकुछ एक साथ जल में समाने लगे.  

मूर्ति के साथ साथ मनुआ भी पानी में कूदा. उसे न तो दानव का कोई डर था, न उसे माता के आशीर्वाद चाहिये थे.

“अबे.. ये मेरी वाली है..”, कहता हुआ वो डूबती हुई प्रतिमाओं की ओर तैर चला.

उसे उनके पास बाकियों से पहले पहुँचना था, ताकि आने वाली ठंड में…

Continue

Added by Shubhranshu Pandey on October 6, 2014 at 3:30pm — 17 Comments

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