122 - 122 - 122 - 122
जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते
तो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते
*
न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिर
न ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते
*
ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारे
जो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते
*
फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी
तज़लज़ुल की आहट अगर जान लेते
*
न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र
मियाँ गर सही सारे अरकान लेते
*
"अमीर'' ऐसे सर को न धुनते…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 1, 2025 at 12:13am — 3 Comments
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