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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-159

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 159 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है |

इस बार का मिसरा जनाब 'क़ैसर-उल-जाफ़री'साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

'जब उँगलियाँ जलीं तो ग़ज़ल आ गई मुझे'

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212

मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक़्फ़ूफ़ महज़ूफ़

रदीफ़ --गई मुझे

क़ाफ़िया:-अलिफ़ का (आ स्वर) भा,बहला, समझा,पा,महकाआदि

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 सितंबर दिन बुधवार को हो जाएगी और दिनांक 28 सितंबर दिन गुरुवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

अच्छे अशआर के लिये बधाई स्वीकारें आदरणीय दण्डपाणि जी।

आदरणीय dandpani nahak जी आदाब।
ग़ज़ल के उम्दा प्रयास के लिए बधाई स्वीकार करें।

शोलों में लिपटी बर्फ़ थी झुलसा गई मुझे
उस शोख़ की मगर ये अदा भा गई मुझे
हो सके तो बर्फ़ की जगह कोई और शब्द रखें

ऐसा नहीं कि पहले से सूखा हुआ था मैं
तेज़ इतनी ग़म की धूप थी कुम्हला गई मुझे
सुझाव -
1. गुलशन की शान मैं भी हुआ करता था मगर
2. रश्क-ए-चमन दिया था मुझे नाम सबने पर

आप नस्र ( गद्य ) और कविता/ग़ज़ल ( पद्य ) में फ़र्क समझें ..

जो आपने कहा है वह एक सूचना देने के अंदाज़ से कहा

उसमें कविता नहीं है। सुझाव के मिसरों के साथ सानी को पढ़ें

और फ़र्क़ समझने का प्रयास करें।

मैं बिन पिये ही होश गँवाने लगूँ अगर
कह देना उसकी आँख ही बहका गई मुझे
सुझाव - कह देना चश्म-ए-साक़ी ही बहका गई मुझे

मेरी शुभकामनाएँ सदैव आपके साथ हैं

आदरणीय  dandpani nahak  जी,

मैं तो सेवक हूँ बस आप सब की सेवा करने चला आता हूँ।

जब मैं अपने शागिर्दों को बताता हूँ कि उनके सुर नहीं लगते

तब वो समझ नहीं पाते परंतु पाँच साल के अभ्यास के बाद

उन्हें मेरी बात समझ आती है और सही लगती है ।

आप इस इस्लाह को कहीं सुरक्षित रखें शायद कुछ वर्षों के अभ्यास के 

बाद आप को समझ आए कि आप कितने सौभाग्यशाली थे ।

मेरी शुभकामनाएँ सदैव आपके साथ हैं।

आदरणीय दंडपाणि नाहक जी दिए गए मिसरे पर प्रयास अच्छा है, सहभागिता के लिए बधाई

आदरणीय नाहक जी नमस्कार

अच्छी ग़ज़ल हुई आपकी बधाई स्वीकार कीजिये 

अमित जी की बात क़ाबिले ग़ौर है 

सादर

जनाब नाहक़ जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

आदरणीय दण्डपाणि नाहक़ जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें।

आदरणीय दण्डपाणि नाहक जी नमस्कार। ग़ज़ल बहुत ख़ूब हुई। बधाई स्वीकारें।

आ. भाई दण्डपाणि जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

221 2121 1221 212

नाशाद ज़िंदगी थी, सो ठुकरा गई मुझे

फ़ुर्क़त-नसीबी की यूँ घुटन खा गई मुझे

मुझको बड़ा गुमान था अपनी बुलंदी पर

इक चोट नींव पर लगी और ढा गई मुझे

यूँ ज़िंदगी गुज़र ही रही थी किसी तरह

फिर किसलिए वो बे-वफ़ा याद आ गई मुझे 

दिखला सकी न ज़ीस्त जो अपनों की असलियत

वो एक पल ही में क़ज़ा दिखला गई मुझे

बच्चों की परवरिश मुझे आसाँ लगी थी 'ज़ैफ़'

बच्चों की परवरिश लहू रुलवा गई मुझे

****

गिरह:-

ज़ख़्मों की भट्टियों से मैं अशआर चुनता था

'जब उँगलियाँ जलीं तो ग़ज़ल आ गई मुझे'

(मौलिक/अप्रकाशित)

आदरणीय जैफ साहब अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई

भाई ज़ैफ़ जी, बहुत उम्दा शेर हुए हैं। गिरह ख़ासतौर पर पसंद आई।

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