For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

विकल विदा के क्षण

विकल विदा के क्षण

सिहरता सूनापन

संग्रहीत हैं अनायास उमड़ते  अनुभव

पता नहीं अब जीवन के इस छोर पर

प्रलय-पवाह  जो  भीतर  में  है

वह  बाहर  व्याप्त  हो  रहा  है,  या

स्तब्धता जो बाहर है, घुटती-बढ़ती

आकर समा गई है  हृदय  में  आज

मेरी कमज़ोरियों का रूपांकन करती

शोचनीय स्थिति मेंं मूलभूत समस्याएँ

अवसर-अनवसर झुठलाती हैं मुझको

उभरते हैं पुराने जमे दुखों के बुलबुले

दुख  में  छटपटाती  सलवटों  की

सीमा  रेखाएँ  होती  हैं  क्या ?

किसी उलझे गणित की जटिल

आत्म-चेतस  मनोभूमि  में

यह विडम्बना ही तो है जो हम जीते हैं

अन्तर्ध्वनित  सत्यों को  प्रमाणित  करते

अकसर हम कई वतसर नहीं बीता देते क्या

विशमय अभिशाप-सा  यह प्रश्न है गंभीर

इस पर भी आधी-आधी रात में

अर्ध-अचेतन स्थिति में 

अंधेरे के फैलाव में

तनाव में, घिराव में

प्रतीक्षातुर, गिनते ही रहते हैं हम

अशान्त साँसों की खतरनाक धड़कन

हार कर भी हार नहीं मानती है 

खंडित चेतना प्रलय के द्वार पर 

                --------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित

 

Views: 778

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on January 10, 2018 at 7:34pm

//शब्दों का सुंदर चयन, भावों का निर्बाध प्रवाह , अनुपम सृजन//

इस सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी। बीमारी के कारण विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2017 at 11:28pm

आ. भाई विजय जी, इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 20, 2017 at 7:07pm

बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति हुई है आदरणीय विजय सर | हार्दिक बधाई |

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 19, 2017 at 9:52pm

आदरणीय विजय निकोरे सर हार्दिक बधाई स्वीकारें इस अद्भुत अभिव्यक्ति के लिए 

Comment by Mahendra Kumar on December 18, 2017 at 10:24pm

//अंधेरे के फैलाव में

तनाव में, घिराव में

प्रतीक्षातुर, गिनते ही रहते हैं हम

अशान्त साँसों की खतरनाक धड़कन// वाह!

इस उम्दा कविता हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आ. विजय निकोर जी. सादर.

Comment by Samar kabeer on December 18, 2017 at 5:13pm

जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक उत्तम और प्रभावशाली प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Neelam Upadhyaya on December 18, 2017 at 12:48pm

आदरणीय विजय निकोर जी, सुंदर भावों से भरपूर सुंदर रचा की प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on December 17, 2017 at 8:27pm

जनाब विजय निकोर साहिब , सुन्दर भावों को दर्शाती उम्दा रचना हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।

Comment by नाथ सोनांचली on December 17, 2017 at 4:35pm
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बेहतरीन भाव सम्प्रेषण, बहुत उम्दा। अंतर्मन को छूती इस रचना पर कोटिश बधाइयाँ।सादर
Comment by Mohammed Arif on December 17, 2017 at 11:44am

आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,

                                   सुंदर, अनुपम अनुभूतियों से गूँथित प्रवाहमयी भावों का गुलदस्ता । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं हम कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२जब जिये हैं दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं हम कान देते आपके निर्देश हैं…See More
5 hours ago
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service