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ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं

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सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं 

जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.

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ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं    

अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.

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ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ   

ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.

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मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब  

किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.

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सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू

जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?

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परे हूँ जिस्म से अपने…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 11, 2025 at 1:08pm — 5 Comments

तरही ग़ज़ल

2122 2122 2122 212 

मित्रवत प्रत्यक्ष सदव्यवहार भी करते रहे

पीठ पीछे लोग मेरे वार भी करते रहे

वो ग़लत हैं जानते थे पर अहेतुक स्नेहवश

हम सभी से मित्रवत व्यवहार भी करते रहे

आपके मंतव्य में थे अन्यथा कुछ अर्थ तो

मौन रहकर भाव से प्रतिकार भी करते रहे

दुष्प्रचारित कर रहे वो क्या कहूँ छल छद्म पर

शत्रुओं का पक्ष लेकर प्यार भी करते रहे

लाभ एवं हानि का था लक्ष्य उन के प्रेम में

अस्तु वो संबंध में व्यापार…

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Added by Ravi Shukla on June 9, 2025 at 1:25pm — 2 Comments

गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

सार छंद 16,12 पे यति, अंत में गागा



अर्थ प्रेम का है इस जग में

आँसू और जुदाई

आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

कैसी रीत चलाई



सूर्य निकलता नित्य पूर्व से

पश्चिम में ढल जाता

कब से डूबा सूर्य हृदय का

अब भी नजर न आता



धीरे धीरे बढ़ता जाए

अंतस में अँधियारा

दिशाहीन पथहीन जगत में

भटक रहा बंजारा



अभी शेष है कितनी पीड़ा

बोलो कुछ पुरवाई

आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

कैसी रीत चलाई



ओ दक्षिण को…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 5, 2025 at 12:30pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - यहाँ अनबन नहीं है ( गिरिराज भंडारी )

१२२२    १२२२     १२२२      १२२

मेरा घेरा ये बाहों का तेरा बन्धन नहीं है

इसे तू तोड़ के जाये मुझे अड़चन नहीं है

 

समय की धार ने बदला है साँपों को भी शायद

वो लिपटे हैं मेरी बाहों से जो चन्दन नहीं है

 

जिन्हों ने कामनाओं की जकड़ स्वीकार की थी   

उन्हीं की भावनाओं में बची जकड़न नहीं है

 

न लो…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 29, 2025 at 8:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं

मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं

मगर पाण्डव हैं मुट्ठी भर, खड़े हैं.

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हम इतनी बार जो गिर कर खड़े हैं

मुख़ालिफ़ हार कर शश्दर खड़े हैं.      शश्दर-आश्चर्यचकित, स्तब्ध

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कभी कोई बसेगा दिल-मकां में

हम इस उम्मीद में जर्जर खड़े हैं.

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ऐ रावण! अब तेरा बचना है मुश्किल

तेरे द्वारे पे कुछ बंदर खड़े हैं.

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उसे लगता है हम को मार देगा

हम अपने जिस्म से बाहर खड़े हैं.

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मुझे क़तरा समझ बैठा है नादाँ

मेरे पीछे…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2025 at 6:45pm — 11 Comments

ग़ज़ल (कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का)

देखे जो एक दिन का भी जीना किसान का

समझे तू कितना सख़्त है सीना किसान का



मिट्टी नहीं अनाज उगलती है तब तलक

जब तक मिले न उस में पसीना किसान का



बारिश की आस और कभी है उसी का डर

यूँ बीतता हर एक महीना किसान का



कब से उगा रहा है कपास अपने खेत में

कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का



समतल ज़मीन पर ये लकीरें अजब-ग़ज़ब

देखे ही बन रहा है करीना किसान का



है हिम्मती है…

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Added by अजय गुप्ता 'अजेय on May 28, 2025 at 6:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे

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ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे

दुश्मनी हम से हमारे यार भी करते रहे.

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जादू टोना यूँ लब ओ रुख़्सार भी करते रहे

जो मुदावा थे वही बीमार भी करते रहे.

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उस की सुहबत के असर में हो गए उस की तरह  

फिर उसी के लहजे में गुफ़्तार भी करते रहे.

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जिस्म को जीते रहे हम एक क़िस्सा मान कर  

और अपनी रूह को तैय्यार भी करते रहे.

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हर क़िले के द्वार अन्दर ही से खोले जाते हैं

दुश्मनों का काम चौकीदार भी करते रहे.

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‘नूर’ ऐसा…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 25, 2025 at 6:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)

लोग हुए उन्मत्ते हैं

बिना आग ही तत्ते हैं

गड्डी में सब सत्ते हैं

बड़े अनोखे पत्ते हैं

उतना तो सामान नहीं है

जितने महँगे गत्ते हैं

जितनी तनख़्वाह मिलती है

उस से ज्यादा भत्ते…

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Added by अजय गुप्ता 'अजेय on May 23, 2025 at 12:15pm — 7 Comments

ग़ज़ल (हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है)

हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है

पहचान छुपा के जीता है, पहचान में फिर भी आता है

दिल टूट गया है- मेरा था, आना न कोई समझाने को,

नुक़सान में अपने ख़ुश हूँ मैं, क्या और किसी का जाता है

संतोष सहज ही मिल जाए, तो कद्र नहीं होती इसकी,

संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है

आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,

जो धार से पीते है उनको,…

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Added by अजय गुप्ता 'अजेय on May 15, 2025 at 6:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा

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ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा,

मुझ को बुनने वाला बुनकर ख़ुद ही पगला जाएगा.

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इश्क़ के रस्ते पर चलना है तेरी मर्ज़ी; लेकिन सुन

इस रस्ते को श्राप मिला है राही पगला जाएगा.

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उस के हुनर पर किस को शक़ है लेकिन उस की सोचो तो

ज़ख़्म हमारे सीते सीते दर्ज़ी पगला जाएगा.  

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उस को समुन्दर जैसी छोटी मोटी जगहें भाती हैं

इन आँखों में आएगा तो पानी पगला जाएगा.

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जिससे बदला लूँगा उस को इतना याद करूँगा मैं

मेरे नाम की लेते लेते…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 15, 2025 at 2:59pm — 14 Comments

दोहा पंचक. . . अपनत्व

दोहा पंचक. . . . .  अपनत्व

अपनों से मिलता नहीं,  अब अपनों सा प्यार ।

बदल गया है  आजकल,  आपस का व्यवहार ।।

अपने छूटे द्वेष में, कल्पित है व्यवहार ।

तनहा जीवन ढूँढता, अपनों का संसार ।।

क्षरण हुआ विश्वास का, बिखर गए संबंध ।

कहीं शून्य में खो  गई, अपनेपन की गंध ।।

तोड़ सको तो तोड़ दो, नफरत की दीवार ।

इसके पीछे है छुपा, अपनों का संसार ।।

आपस में अपनत्व का, उचित नहीं पाखंड ।

रिश्तों को अलगाव का, फिर मिलता है दंड ।।

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on May 7, 2025 at 4:41pm — 15 Comments

दोहा पंचक. . . नया जमाना

दोहा पंचक. . . . . नया जमाना

अपने- अपने ढंग से, अब जीते हैं लोग ।

नया जमाना मानता, जीवन को अब भोग ।।

 मुक्त आचरण ने दिया, जीवन को वो रूप ।

जाने कैसे ढल गई, संस्कारों की धूप ।।

मर्यादा  ओझल हुई, सिमट गए परिधान ।

नया जमाना मानता, बेशर्मी को शान ।।

सार्वजनिक अश्लीलता, फैली पैर पसार ।

नयी सभ्यता ने दिया, खूब इसे विस्तार ।।

निजी पलों का आजकल, नहीं रहा अब मोल ।

रहा मौन को देखिए, नया जमाना खोल ।।

सुशील सरना / 6-5-25

मौलिक…

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Added by Sushil Sarna on May 6, 2025 at 8:40pm — No Comments

ग़ज़ल....उदास हैं कितने - बृजेश कुमार 'ब्रज'

बह्र-ए-मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ

मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

1212  1122  1212  112/22 

 

किसे जगा के बताएं उदास हैं कितने

सितारे,चाँद, हवाएं  उदास  हैं कितने

न कोई आह लबों पे न ही सदा कोई

ख़मोश रात  बिताएं उदास  हैं कितने

सुदूर सरहदों पे इक ग़ज़ल सिसकती है

ख़ुशी के गीत न गाएं, उदास  हैं कितने

 

क़ज़ा खड़ी है यहीं सामने शिफ़ा लेकर

हमीं न दार पे  जाएं, उदास हैं कितने



रखो न ज़ेहन को अय जान…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 5, 2025 at 2:30pm — 19 Comments

दोहा दशम -. . . . . शाश्वत सत्य

दोहा दशम -. . .  शाश्वत सत्य

बंजारे सी जिंदगी, ढूँढे अपना गाँव ।

मरघट में जाकर रुकें , उसके चलते पाँव ।।

किसने जाना आज तक, विधना रचित विधान ।

उसका जीवन पृष्ठ है  , आदि संग अवसान ।।

जाने कितने छोड़ कर, मोड़ मिला वो अंत ।

जहाँ मोक्ष का ध्यान कर , देह त्यागते संत ।।

मरघट का संसार में, कोई नहीं विकल्प ।

कितनी भी कोशिश करो, ,बढ़ें  न साँसें अल्प ।।

जीवन भर मिलता नहीं, साँसों को विश्राम ।

थम जाती है जिंदगी, जब हो अन्तिम शाम…

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Added by Sushil Sarna on May 3, 2025 at 6:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा

आँखों की बीनाई जैसा

वो चेहरा पुरवाई जैसा.

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तेरा होना क्यूँ लगता है

गर्मी में अमराई जैसा.

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तेरे प्यार में तर होने दे

मुझ को माह-ए-जुलाई जैसा.

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जोबन आया है, फिसलोगे

ये रस्ता है काई जैसा.

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साथ हैं हम बस कहने भर को

दूध हूँ मैं वो मलाई जैसा.  

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जाते जाते उस का बोसा

जुर्म के बाद सफ़ाई जैसा.

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ज़ह’न है मानों शह्र का एसपी  

और ये दिल बलवाई जैसा.

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तेरा आना पल दो पल को

सरकारी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 3, 2025 at 4:22pm — 19 Comments

ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 

जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते

तो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते

*

न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिर

न ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते

*

ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारे

जो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते

*

फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी

जो बाँहों के साँपों को भी जान लेते

*

न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र

दुरुस्त हम अगर सारे अरकान लेते

*

"अमीर'' ऐसे सर को न…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 2, 2025 at 6:12am — 11 Comments

दोहा सप्तक. . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविध

कह दूँ मन की बात या, सुनूँ तुम्हारी बात ।

क्या जाने कल वक्त के, कैसे हों हालात ।।

गले लगाकर मौन को, क्यों बैठे चुपचाप ।

आखिर किसकी याद में, अश्क बहाऐं आप ।।

बहुत मचा है आपकी. खामोशी का शोर ।

भीगे किसकी याद से, दो आँखों के कोर ।।

मन मचला जिसके लिए, कब समझा वह पीर ।

बह निकला चुपचाप फिर, विरह व्यथा का नीर ।।

दो दिल अक्सर प्यार में, होते हैं मजबूर ।

कुछ पल चलते साथ फिर, हो जाते वह दूर ।।

कहते हैं मजबूरियाँ,…

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Added by Sushil Sarna on May 1, 2025 at 12:52pm — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

1212 1122 1212 22/112



मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

मगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना है



मैं देखता हूँ तुझे भी वो सब दिखाई दे

मुझे कभी न कोई ऐसा शग्ल करना है



नज़ारा कोई दिखा दे ये शब तो वक्त कटे

इसी के साथ सहर होने तक ठहरना है



न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे

कोई ये काश बता दे कहाँ उतरना है



ये…

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Added by शिज्जु "शकूर" on May 1, 2025 at 12:20pm — 15 Comments

दोहा सप्तक. . . लक्ष्य

दोहा सप्तक. . . . . लक्ष्य

कैसे क्यों को  छोड़  कर, करते रहो  प्रयास ।

लक्ष्य  भेद  का मंत्र है, मन  में  दृढ़  विश्वास ।।

करते  हैं  जो जीत से, लक्ष्यों का शृंगार ।

उनको जीवन में कभी, हार नहीं स्वीकार ।।

आज किया कल फिर करें, लक्ष्य हेतु संघर्ष ।

प्रतिफल है प्रयासों का , लक्ष्य प्राप्ति पर हर्ष ।।

देता है संघर्ष ही, जीवन को उत्कर्ष ।

आज नहीं तो जीत का, कल छलकेगा  हर्ष ।।

सच्ची कोशिश हो अगर, मंज़िल आती पास ।

मिल जाता संघर्ष को,…

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Added by Sushil Sarna on April 30, 2025 at 7:30pm — 6 Comments

मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२

**

आग में जिसके ये दुनिया जल रही है

वह सियासत कब तनिक निश्छल रही है।१।

*

पा लिया है लाख तकनीकों को लेकिन

और आदम युग में दुनिया ढल रही है।२।

*

क्लोन का साधन दिया विज्ञान ने पर

मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है।३।

*

मान मर्यादा मिटाकर पाप करती

(भूल जाती मान मर्यादा सदा वह)

भूख दौलत की जहाँ भी पल रही है।४।

*

गढ़ लिए मजहब नये कह बद पुरानी

पर न सीरत एक की उज्वल रही है।५।

*

दौड़ती नफरत हमेशा फिर रही…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2025 at 11:41am — 13 Comments

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