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ग़ज़ल नूर की -बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना

२१२२/२१२२/२१२२/२१२ 

बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना
बस्तियाँ जलती रहेंगी, तुम तमाशा देखना.
.
छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.
.
देखने से गो नहीं मक़्सूद जिस बेचैनी का
हर कोई कहता है फिर भी उस को “रस्ता देखना”  
.
क़ामयाबी दे अगर तो ये भी मुझ को दे शुऊ’र 
किस तरह दिल-आइने में अक्स ख़ुद का देखना.
.
चाँद में महबूब की सूरत नज़र आती नहीं   
जब से आधे चाँद में आया है कासा देखना.
.
तीरगी फिर कर रही है घेरने की कोशिशें,
“नूर” है तेरा इसे तू ही ख़ुदाया देखना.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1660

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 9:23pm

आ. मनन जी,
.
फ़ैसले कर रहे हैं अर्श-नशीं
आफ़तें आदमी पे आती हैं
...
अहमद नसीम काज़मी 
.
हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं

जौन एलिया 
.
सुनो लोगों को ये शक हो गया है
कि हम जीने की साज़िश कर रहे हैं

फ़हमी बदायुनी 
.
क्यूँ हश्र का क़ौल कर रहे हो
'मुज़्तर' को यहीं की आरज़ू है

मुज़्तर खैराबादी (जावेद अख्तर के दादा)
.
जान-ए-ख़ुलूस बन कर हम ऐ 'शकेब' अब तक
ता'लीम कर रहे हैं आदाब ज़िंदगी के

शकेब जलाली 
.
वफ़ाओं के बदले जफ़ा कर रहे हैं
मैं क्या कर रहा हूँ वो क्या कर रहे हैं

हफ़ीज़ जालंधरी .
.
एक पैकर में सिमट कर रह गईं
ख़ूबियाँ ज़ेबाइयाँ रानाइयाँ

कैफ़ भोपाली 
.
जहाँ इश्क़ में डूब कर रह गए हैं
वहीं फिर उभरने को जी चाहता है

शकील बदायुनी 
.
जो बिखर कर रह गया है इस जगह
हुस्न की इक शक्ल भी है उस तरफ़

मुनीर नियाजी 
.
इक आह-ए-सर्द बन कर रह गए हैं
वो बीते दिन वो याराने पुराने

हबीब जालिब 
.
क्या मिरी तक़दीर में मंज़िल नहीं
फ़ासला क्यूँ मुस्कुरा कर रह गया

वसीम बरेलवी 
.
सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर 
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है
..
रुक कर 
फ़िराक गोरखपुरी ..
...
हरि अनंत हरि कथा अनंता ..
कहने का अर्थ यही है कि रुक कर या ...कर रहा सादर इतने रचे बसे जुमले हैं कि इस में ऐब नहीं है ..
सादर 

 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 9:08pm

शुक्रिया आ. तस्दीक़ साहब... 
डिक्शनरी देख लें मद्दाह की ...शुऊर ही सही   शब्द है ,,,
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 9:07pm

शुक्रिया आ. गिरिराज जी (पता नहीं ज के बाद जी लिखने में भी ऐब न हो जाये)
सादर  

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 5, 2017 at 8:45pm
मुहतरम जनाब नीलेश साहिब,बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ---शेर4 में टाइप में शऊर का शुऊर हो गया है,"दिल आइना" कोई शब्द है क्या? देख लीजियेगा --सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2017 at 8:26pm

आदरणीय नीलेश भाई , बेहतरीन शे र कहे हैं आपने , पूरी गज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.    ---- विशेष बधाइयाँ ।

Comment by Manan Kumar singh on May 5, 2017 at 7:45pm
जैसी मर्जी,आदरणीय;जो दिखा,सो कह दिया,सादर
Comment by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 6:55pm
छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.

तीरगी फिर कर रही है घेरने की कोशिशें,
“नूर” है तेरा इसे तू ही ख़ुदाया देखना.

आदरणीय नीलेश जी एक और शानदार ग़ज़ल केलिए आपको बहुत बहुत बधाई
Comment by Mohammed Arif on May 5, 2017 at 5:48pm
आदरणीय नीलेश जी आदाब, लाजविब ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अफनी राय दे चुके हैं ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 4:38pm

शुक्रिया आ. हेमंत जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 4:38pm

शुक्रिया आ. समर सर..

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