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दहलीज

जहाँ से यथार्थ की दहलीज

खत्म होती है

वहाँ से हसरतों का

सजा धजा बागीचा

शुरु होता है

जब भी कदम बढ़ाया

दहलीज फुफकार उठती है…

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Added by Gul Sarika Thakur on September 22, 2012 at 11:00pm — 11 Comments

माँ होती तो ऐसा होता

माँ होती तो ऐसा होता माँ होती तो वैसा होता



खुद खाने से पहले तुमने क्या कुछ खाया "पूछा " उसको 

जैसे बचपन में सोते थे उसकी गोद में बेफिक्री से 

कभी थकन से हारी माँ जब , तुमने कभी सुलाया उसको ?

पापा से कर चोरी जब - जब देती थी वो पैसे तुमको 

कभी लौट के उन पैसो का केवल ब्याज चुकाया होता 



माँ तुम ही हो एक सहारा तब तुम कहते अच्छा होता 

माँ होती तो ऐसा होता…

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Added by ajay sharma on September 22, 2012 at 10:30pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मुझे तलाश है उस भोर की

मुझे तलाश है उस भोर  की ,जो नव दिव्य चेतना भर दे |

निज लक्ष्य  से ना हटें कभी 

अटूट  निश्चय पे डटें सभी 

ना सत्य वचन  से फिरें कभी 

ना निज मूल्यों से गिरें कभी 

जो गर्दन नीची कर दे 

मुझे तलाश है उस भोर  की ,जो नव दिव्य चेतना भर दे |

दूजों के दुःख अपनाएँ हम 

 अक्षत पुष्प बरसायें हम 

नेह  का निर्झर  बहायें हम

जग  के संताप मिटायें हम

भगवन ऐसा अवसर दे 

मुझे तलाश है उस…

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Added by rajesh kumari on September 22, 2012 at 8:30pm — 23 Comments

भाई - लघुकथा

निकिता की शादी हो रही थी| सभी बेहद खुश थे| सारा इंतजाम राजसी था| होता भी क्यों न? निकिता और उसका होनेवाला पति, दोनों ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊँचे ओहदों पर थे और अच्छे घरों से आते थे| वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान भाई के द्वारा की जानेवाली रस्मों की बारी आई| अब भाई की रस्में करे कौन? निकिता का इकलौता भाई, जो इंजीनियरिंग का छात्र था, परीक्षाएँ पड़ जाने के कारण अपनी दीदी की शादी में आ ही नहीं पाया था| लेकिन इससे कोई समस्या नहीं हुई क्योंकि राज्य के नामी उद्योगपति आर.के सिंहानिया का बेटा और…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 22, 2012 at 6:44pm — 18 Comments

मान जाओ न

मान जाओ न



मचल उठता है

ये ह्रदय

जब आती है

दूर कहीं से कोयल की

कूक सी मीठी

सदा



पीपल के पत्तों की तरह  …

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 22, 2012 at 11:30am — 3 Comments

गुरु ज्ञान (दोहे)

   

 1.गुरु ज्ञान बाँटते रहे, ले सके वही लेत,

   भभूत समझे तो लगे, वर्ना वह तो रेत |



  

 2.अमल करे तबही बढे, गुरु सबके हीसाथ,

   करम सेही भाग्य बढे, भाग्य उसीके हाथ |



 3. नेता भाषण में  कहें,जाति का नहीं भेद,

   जो फोटू दिखलाय दो, तुरत करेंगे खेद |



4. भेद गरीब अमीर का , नहीं करे करतार,

   करतारही जब न करे,हमको क्यों दरकार |


 5.पुत्र से अगर वंश चले, बेटी भी हकदार,              

 बिन जमींन नहि कुछ…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 22, 2012 at 11:00am — 14 Comments

काले किले का वो काला कलाल

यह रचना हास्य के लिए रची गयी है, कृपया अपना दिमाग साइड में रख दें , और अपने बचपन की शरारतों भरी यादों में खो जाएँ :

 

काले किले का वो काला कलाल

भोलू के भाले में अटका वो बाल |

मामा के मोहल्ले का माल-पुआ

गुल्लू की गाली का गुलाब जामुन

पुणे के पानी को पीने को जाना

पान चबाकर वो पाना ले आना

गन को दिखाकर वो गाना तो गाना

गुनगुना के वो धुन…

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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on September 21, 2012 at 11:30pm — 12 Comments

कब आता है कल.....

अभी कुछ देर पहले ही वो लौटा था,

घर पर आया तो कल की फिक्र में था,

बच्चे दिन से इंतज़ार में थे उसके घर आने के,

पर वो उनसे बात भी न कर सका,

वो कल की जल्दी में था,



उसने कल की तैयारी भी कर ली थी रात ही से,

जैसे वक्त बिलकुल भी नहीं हो पास उसके,

कल उसको सुबह ज़रा जल्दी निकालना था,

किसी से मुलाक़ात थी, कारोबार के सिलसिले में,

वक्त और जगह भी मुकर्रर थे मुलाक़ात के लिए,



सुबह के लिए कुछ कपड़े भी निकले उसने,

अपने कागजों को पढ़ा और…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 21, 2012 at 10:00pm — 1 Comment

वो बीते दिन फिर से वापस आयेंगे....

वक्त वक्त की बात है

वक्त तो बदल जायेंगे..

गर वक्त ने दिए हैं जखम

तो वक्त के साथ ही भर जायेंगे...…

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Added by Harvinder Singh Labana on September 21, 2012 at 8:58pm — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३२ (यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को )

यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को

कि शर्म आ जाती है शहरों में गुम उजालों को

 

गरीबोगुरबा की तमकनत तो है बस आँखों में

जो देखके आ जाती है ऐवाँ में रहने वालों को

 

मैं शाइरोफलसफी हूँ, तसव्वुर ही काम है मेरा

मैं ख़्वाबोंके सीमाब पैरहन देता हूँ ख्यालों को  

 

न दे मुझ को शराब न सही जो तेरी मरज़ी है

पे ये भी बतादे मैं क्या बोलूं सुबूओप्यालों को 

 

ख्वाह न हो कोई जवाब न कोई हल इस हाल

ज़माना देखेगा…

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Added by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 8:20pm — 6 Comments

प्रेम अगन को बांधो कितना,..

लाख झूठ चाहे स्वर बोलें,

मौन मगर सच कह जाये |

प्रेम अगन को बांधो कितना,

धुँआ तो जग में रह जाये ||

ये प्रेम हुआ ये कृष्ण हुआ,

न पहरों से है झुक पाता|

जो बन सुगंध हो चुका व्याप्त,

कैसे हाथों में रुक जाता||

तुम कई लगा लेना बंधन,

बहना है इसको बह जाये|

प्रेम अगन को बांधो कितना,

धुँआ तो जग में रह जाये||1||

बीज घृणा के बोने वाले,

भ्रम के कितने यंत्र करोगे|

जिस आश्रय में जीवित है जग,

क्या उसको परतंत्र…

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Added by Pushyamitra Upadhyay on September 21, 2012 at 7:24pm — 5 Comments

सिपाही जंग के मैदान का...

सिपाही, दूर घर से खड़ा सीमा पर..

अपनी मातृभूमि की रक्षा को...

जो समर्पित है चिर काल से..

अपने देश के लिए अर्पण को..

सिपाही, जिसका घर सीमा पर बनी चौकियां हैं..

सिपाही, जिसका परिवार उसके साथ खड़े भाई हैं..

सिपाही, जो सर्द रातों में भी थकता नहीं है...

सिपाही, जो जेठ की दुपहरी में भी रुकता नहीं है...

वो सिपाही, जिसके लिए तिरंगा उसकी शान है...

सिपाही, जिसके लिए राष्ट्र, उसकी जान है...

सिपाही, जो छोड़ता नहीं…

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Added by Harvinder Singh Labana on September 21, 2012 at 6:30pm — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मन क्षेत्र - आकाश सा विस्तृत

मन क्षेत्र  

आकाश सा विस्तृत... 

आकांक्षाओं के बिंब ,

बन 

भाव-बादल,  

करते 

कभी आहलादित  

कभी विकृत  

संपूर्ण अस्तित्व... 

बदल बदल स्वरूप 

बादल सम चंचल  

अस्…

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Added by Dr.Prachi Singh on September 21, 2012 at 4:40pm — 8 Comments

वलवले

ये कैसी, अनहोनी होई |

दिल रोया, पर आँख ना रोई ||

चाहूँ लाख, जगाना उसको |

कम करे, तदबीर ना कोई || 

सब बेचारा, कह देते हैं |

जो लिखा है , होगा सोई ||

याद नहीं है, क्या बोया था |

दिल की बस्ती, बंज़र होई ||

अँधेरा है, कैसे ढूँढूँ |

यारो, अपनी किस्मत खोई ||

तन्हाई अच्छी, लगती है |

तन्हाई सा, मीत ना कोई ||

बन्ज़ारों सा, घूम रहा हूँ |

अपना पक्का, ठौर, ना कोई ||

कब अपने से, मिल पाऊँगा |

कब मेरा…

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Added by Shashi Mehra on September 21, 2012 at 11:30am — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३१ (गुफ्तगूबराएऔरतको ज़मीनोबहर क्या)

दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या

जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या

 

जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या

कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या

 

जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या

और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या

 

तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या

जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या

 

देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें  

जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या

 

ज़िंदगी जिस तरहा हो…

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Added by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 11:53pm — 4 Comments

हम हो न सकते नीलकंठ

व्योमकेश !

हम हो न

सकते नीलकंठ ....

 गरल कर

धारण स्वयम

तुमने उबारा

संसृति को 

अमिय देवों

ने पिया

झुकना पड़ा

आसुरी प्रकृति को

थम गया

तव कंठ में ही

सृष्टि का विध्वंस

हम हो न सकते ....

साक्षी थे

तुम भी तो

विकराल मंथन के

सर्प सम संतति

समूची

तुम ही चन्दन थे

विष तुम्हें डंसता नहीं

देता हमें शत दंश

व्योमकेश!

हम हो न सकते......

दृष्टि तेजोमय तुम्हारी …

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Added by Vinita Shukla on September 20, 2012 at 11:00pm — 19 Comments

स्वप्न !!

वो न्यारा सा आँगन .

वो प्यारा सा बगीचा



वो लह लहाते खेत .

वो दूर जाती पगडण्डी



वो सुबह शाम चिड़ियों का चहचहाना

वो सिंदूरी शाम गऊ माँ का रम्भाना



वो चंदा का रात में, धरती पे उतर के आना

वो बर्फ सी चांदनी तन-मन का सिहर जाना



अंधेरिया अंजोरिया के साथ हर पल का जुड़ जाना

वो स्वच्छ गगन में तारों का जग-मग टिम टिमाना



वो खपरैल कुशा से बने घर वातानुकूल

वो पेड़ों पर झूलों का सावन मे लटकाना



वो गेहूं चने की…

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Added by Rajeev Mishra on September 20, 2012 at 10:30pm — 6 Comments

मौसम

हम चुप हैं के कहने से कुछ नहीं होता

बस ग़म निकलता है पर कम नहीं होता,

कल फिर हम दिल को संभालेंगे देखो

ये ग़म का मौसम कभी कल नहीं होता,

अच्छा है ये के प्यास क्या है हम नहीं जानते

साकी की मेहरबानी मेरा पैमाना कम नहीं होता,

हम बे घर तो नहीं फुटपाथ है अपना घर

हम घर बनाते हैं हमारा घर नहीं होता ,

अपने पराये का फ़र्क़ अब ख़त्म हो गया है

सब दर्द दे रहे हैं अब दर्द नहीं होता.

Added by प्रमेन्द्र डाबरे on September 20, 2012 at 10:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल-भावनाओं से खाली हृदय हो गये।

भावनाओं से खाली हृदय हो गये।
लोग हारे हैं पत्थर विजय हो गये।।

आँखें रह जाती हैं बस खुली की खुली
आज ऐसे भयानक दृश्य हो गये।

आदमी के लिये सिर्फ पृथ्वी नहीं
दूसरे भी ग्रहों के विषय हो गये।

न्याय की आस में बैठा है आमजन
अन्त आरोप उस पर ही तय हो गये।

प्रेम में पहले जैसी न गर्मी रही
रिश्ते खामोशियों में विलय हो गये।

प्रेम सम्बन्ध उनसे बनाओ “सुजान”
प्रेम से जिनके कोमल हृदय हो गये।।

  • सूबे सिंह “सुजान”

Added by सूबे सिंह सुजान on September 20, 2012 at 10:00pm — 7 Comments

तजुर्बा ए इश्क

वो रहते है मेरे जानिब से हर पल बेख़बर यारों

जब भी रात होती है खिड़की खोल देते हैं,

क़यामत आएगी इक दिन पता उनको भी है यारों

इसी बहाने से वो  खिड़की से नज़ारा रोज़ लेते  हैं,

मुक़द्दर में था दीदार करना नूर ए हुस्न का

इसी के वास्ते पौधों को वो पानी रोज़ देते हैं,

क़यामत आ ही जाएगी मै मिट जाऊं भी शायद

इसी खौफ में शायद वो नमाजें रोज़ पढ़ते हैं,

सोया रहता हूँ जब मैं बेख़बर हो दीन दुनिया से

वो नीदों  में…

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Added by लोकेश सिंह on September 20, 2012 at 9:16pm — 11 Comments

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