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कुरीतियों को मिटाकर परिवर्तन लाना है।

इस चराचर जगत में परिवर्तन तो होना ही है। अगर परिवर्तन नहीं होगा तो सँसार चक्र का पहिया रुक जाएगा। परिवर्तन ही संसार को गतिमान बनाए रखता है। जिस प्रकार एक जगह पङा हुआ लोहे का मजबूत सरिया जंग लगने से खत्म हो जाता है उसी प्रकार बिना परिवर्तन के संसार भी खत्म हो जाएगा। इसलिए हमें पता है कि हम बहुत कुछ नहीं कर सकते पर फिर भी घङे की एक बूँद तो जरुर बन ही सकते हैं।



परिवर्तन के लिए बहुत कुछ खोना पङता है और बहुत कम फल मिलता है। प्राचीन रुढियों को तोङकर नयी व्यवस्थाएँ अपनानी होंगी जो समय के… Continue

Added by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 4, 2013 at 9:13pm — 2 Comments

आज़ादी के नाम पर (मॉरीशस के 45 वें स्वतंत्रता दिवस 12 मार्च 2013 के अवसर पर)

मौलिक एवं अप्रकाशित

मेरे पूर्वज भारत से आये थे इतना सुनकर

मारीच में सोना मिलता है पत्थर पलटकर

उन्नीसवीं सदी का दौर था,

अंग्रेज़ों का कठोर राज था,

हर दिशा हाहाकार मचा था,

बिहार से हर कोई भाग रहा था.

प्रथम पग रखे जब मारीच के रेतीले धरती पर

उन्हें क्या पता  कि वे लाये गये ठगकर

बंद कोठरी में वे कितने दिन पड़े थे,

आदमी जानवर की तरह गिने जाते थे,

जिससे डर के इतने दूर भागे…

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Added by coontee mukerji on March 4, 2013 at 2:18pm — No Comments

दीमक बिच्छू साँप से, पाला पड़ता जाय -

मौलिक / अप्रकाशित

दीमक बिच्छू साँप से, पाला पड़ता जाय ।

पाला इस गणतंत्र ने, पाला आम नशाय ।

पाला आम नशाय, पालता ख़ास सँपोला ।

भानुमती…

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Added by रविकर on March 4, 2013 at 9:22am — 16 Comments

लघुकथा : ख़ुशामद

दुखीराम नॆ जब जब दीनानाथ के द्वार पर ख़ुशामद की,,,,नतीज़ा हर बार उनकी पत्नी की कोंख से कन्या रत्न की ही प्राप्ति हुई,,इस तरह शासकीय जन-गणना मॆं चार अंकॊं की बढ़ोत्तरी हो गईं,,,लेकिन दुखीराम की ख़ुशामद परॆड अब तो पहले से भी ज्यादा बढ़ गई,,,ख़ुशामद करनॆ के स्थान भी अनगिनत हो गये, भगवान तो भगवान अब दुखीराम पंडित, मौलवी, और तुलसी, नीम, पीपल, बरगद,सभी की ख़ुशामद करनॆ लगॆ,,,और आखिरकार इस बार दुखीराम की ख़ुशामद नें अपना रंग दिखाया,,और दुखीराम कॆ घर मॆं कुल का चिराग़ जगमगाया,, दुखीराम कॆ सारे दुख:…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 4, 2013 at 3:30am — 14 Comments

कर अपना कल्याण - दोहे

युवतियाँ भी सीख रही, युवकों के ही साथ,

 जूडो करांटे  सीखे, रक्षा खुद  के  हाथ  |

             

 आँख मार मुँह फेरले, खावे मार  कपाल,        

 छेड़-छाड़ अब छोड़ दे, नहीं बचेगी खाल |

 अगर बुजुर्ग नहीं करे, कोंई शर्म लिहाज,       

 इज्जत के बट्टा लगे, समझे अब यह राज…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 3, 2013 at 8:00pm — 3 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल // -- सौरभ

आज दि. 03/ 03/ 2013 को इलाहाबाद के प्रतिष्ठित हिन्दुस्तान अकादमी में फिराक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि के अवसर पर गुफ़्तग़ू के तत्त्वाधान में एक मुशायरा आयोजित हुआ. शायरों को फिराक़ साहब की एक ग़ज़ल का मिसरा   --तुझे ऐ ज़िन्दग़ी हम दूर से पहचान लेते हैं--  तरह के तौर पर दिया गया था जिस पर ग़ज़ल कहनी थी. इस आयोजन में मेरी प्रस्तुति -

********

दिखा कर फ़ाइलों के आँकड़े अनुदान लेते हैं ।

वही पर्यावरण के नाम फिर सम्मान लेते हैं ॥

 

निग़ाहें भेड़ियों के दाँत सी लोहू*…

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Added by Saurabh Pandey on March 3, 2013 at 8:00pm — 65 Comments

हाइकु कविता

पथ के कांटे

तेरी एक छुअन

नया साहस।

   -----

 

ओस की बूंदें

हवा की शीतलता

तेरी छुअन।

   -----

 …

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Added by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 6:32pm — 18 Comments

चित्रगुप्त का हिसाब

मंदिर के बाहर भिखारियों की कतार में वो भी खड़ा था, पर भिखारी नहीं लगता था, उसकी आँखों में खुद्दारी, चेहरे पे आत्मविश्वास था । सेठजी हमेशा की तरह एक घंटे की पूजा की समाप्ति के बाद बाहर आये, चाल में अमीरों वाला रौबीलापन और चेहरे पे दानकर्ता होने का गर्व, जैसे साक्षात् भगवान् लोगों का दुःख दूर करने उतर आये हो, सबसे ज्यादा आकर्षक वो फूली हुई तोंद, शायद संसार के हर पुण्य का हिसाब इसी में हो, साथ में पचास के नोटों की गड्डी लिये बूढ़ा मुनीम, जो कई पुश्तों से सेठजी के सभी काम धंधों का हिसाब किताब…

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Added by Harjeet Singh Khalsa on March 3, 2013 at 5:30pm — 3 Comments

अब बजट में आदमी - हो गया सस्ता चले ।।

मौलिक/अप्रकाशित

जब कभी रस्ता चले ।

फब्तियां कसता चले ।।

जान जोखिम में मगर-

मस्त-मन हँसता चले…

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Added by रविकर on March 3, 2013 at 4:04pm — 1 Comment

मै बांसुरी बन जाऊं प्रियतम

मै बांसुरी बन जाऊं  प्रियतम

और फिर इसे तुम अधर धरो

.............................................

.धुन मधुर बांसुरी की सुन मै

 पाऊं कान्हा को राधिका बन 

..........................................

रोम रोम यह कम्पित हो जाए

तन मन में कुछ ऐसा भर दो

............................................

प्रेम नीर भर आये नयनों में

शांत करे जो ज्वाला अंतर की 

..........................................

फैले कण कण में…

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Added by Rekha Joshi on March 3, 2013 at 11:53am — 20 Comments

"यहाँ सबकुछ बिकता है "

कलयुग है भाई ,

यहाँ सबकुछ बिकता है !

घर ,वाहन,ज़मीन को छोड़ो,

यहाँ इंसान बिकता है !!



बस खरीदने वाला चाहिए ,

यहाँ ईनाम बिकता है !

फ़कत चंद नोटों के लिए ,

यहाँ सम्मान बिकता है !!



गरीब की रोटी बिकती है ,

लाचार,नंगा भूखा बिकता है !

जिससे ढकता बदन वह ,

गरीब की वह धोती बिकती है !!



जिसके पास कुछ नहीं ,

स्वाभिमान को छोड़कर !

उस स्वाभिमानी का अब ,

ईमान बिकता है !!



राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक…

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Added by ram shiromani pathak on March 3, 2013 at 11:35am — 2 Comments

चौपाई

जय अम्बे जय मातु भवानी

जय जननी जय जगकल्यानी

जय बगुला जय विन्ध्यवासिनी

जय वैष्णव जय सिंहवाहिनी

 

कण कण में है वास तिहारा

तुम जग की हो पालनहारा

करूणा की हो सागर माता…

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Added by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 10:32am — 13 Comments

दोहे

देख धनी बलवान के, चिकने चिकने पात।

दुखिया दीन गरीब के, खुरदुर चिटके पात।।

दुखिया सब संसार है, सुख ढूंढन को जाय।

दूजों का जो दुख हरे, सुख खुद चल के आय।।

अपना कष्ट बिसारि के, औरों की सुधि लेय।

नहीं रीति ऐसी रही, अपनी अपनी खेय।।…

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Added by बृजेश नीरज on March 3, 2013 at 9:00am — 17 Comments

पवन का:- दुख....

पवन का:- दुख...

लड्डू बने,थालिया बजी

लड़कों के होने पर

घर घर मिठाइयाँ बंटी

घर खुशियों से और

चेहरा अकड़ से भर गया ...

चूल्‍हे चाहे ठंडे रहे

अपना पेट जला…

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Added by pawan amba on March 2, 2013 at 11:30pm — 8 Comments

बजट बिराना पेश, देखता रहा बिराना

मौलिक / अप्रकाशित

राना जी छत पर पड़े, गढ़ में बड़े वजीर |

नई नई तरकीब से, दे जन जन को पीर |



दे जन जन को पीर, नीर गंगा जहरीला |

मँहगाई *अजदहा, समूचा कुनबा लीला |…

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Added by रविकर on March 2, 2013 at 5:38pm — 3 Comments

बेंच बेंच दूल्हा किया, शादीघर बदहाल-

मौलिक / अप्रकाशित

बड़ा बटोरा आज तक, लोलुपता ने माल |

बेंच बेंच दूल्हा किया, शादीघर बदहाल |

शादीघर बदहाल, सुता चैतन्य आज है ।…

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Added by रविकर on March 2, 2013 at 4:44pm — 10 Comments

छाँव --- मीना पाठक

वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर
आँचल की
ममता दे सींचा
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा
ताकि वक्त
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए
निहारती रही
पल-पल
अब वो नन्हें
से अंकुर
विशाल वृक्ष
बन चुके हैं
और मैं बैठी हूँ
उस वृक्ष की
शीतल छाँव में
आनन्दित
मगन
अपने आप में ||


मौलिक / अप्रकाशित 

Added by Meena Pathak on March 2, 2013 at 4:19pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हिन्दी साहित्य

उदित सौर मंडल शिखर, ऊर्जस्वी आदित्य

विद्याभूषण में जड़ित, नग हिन्दी साहित्य

नग हिंदी साहित्य, संकलन काव्य निरूपम

छंदों की रसधार, नव निरवच्छिन्न अनुपम

काव्य कोष में छंद, मधुर कविताएँ अन्वित

ज्ञान अमिय मकरंद, पिए हिय कलिका प्रमुदित…

Continue

Added by rajesh kumari on March 2, 2013 at 1:00pm — 18 Comments

ग़ज़ल

===========ग़ज़ल===========



खामोश लब पलकें झुकीं हालात देखिये

इस मौन में सिमटे हुए जज्बात देखिये



हमको मिली जो इश्क की सौगात देखिए

हर सुब्ह रोशन चाँदनी है रात देखिये



इंसानियत से बढ़ के क्या मजहब हुआ कोई

फिर भी वो हमसे पूछते हैं जात देखिये



पंजा कमल हाथी हथोडा सारे हो जमा

समझा रहे हैं आपकी औकात देखिये



पल पल मे बदले रंग वो माहौल देख के

गिरगिट के जैसे हो गयी हर बात देखिए



सब “दीप” मांगे बिन मिला हमको जुगाड़…

Continue

Added by SANDEEP KUMAR PATEL on March 2, 2013 at 12:00pm — 9 Comments

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