22122-22122-2222-2212
उनसे ख़फ़ा हो करके रहूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।
उनकी नज़र में आँसूं भरूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।
उनकी ख़ुशी का मालिक हूँ मैं, उनकी चाहत मेरी ख़ुशी।
कोई शिकन उस माथे पढूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।
नादान हैं वो मुझको पता है, मौसम का उन पर भी असर।
इल्ज़ाम उनके सर पे धरूँ मैं, मेरे वश में है ही नहीं।।
कैसे शिकायत उनसे करूँ मैं, वो कुछ ऐसे मिलते ही हैं।
उनकी अदा से कैसे बचूँ मैं, मेरे वश में है ही…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 3, 2016 at 11:55am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      शब्दों की माला सुमन भाव निर्मित।
सभी प्रियजनों को मैं करता समर्पित।
नव वर्ष के आगमन की घड़ी में।
हृदय से शुभेच्छाएँ करता हूँ अर्पित।।
सदी 16वें साल में आ गयी है
ये यौवन हाँ जीवन में सबके अपेक्षित।।
खुशियाँ सदा द्वार पर आपके हों।
कलम से यही कामनाएँ हैं प्रेषित।।
कि धन-धान्य, सुख-शांति से घर भरा हो।
हर कामना आप सबकी हो पूरित।।
न मन न हीं तन न ही धरती गगन ये।
किसी हाल "पंकज" नहीं हो…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 2, 2016 at 8:40am                            —
                                                            7 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      122-122-122-122
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 मैं रूठा हूँ तुमसे, मना क्यूँ न लेती।
 अदाओं का जादू, चला क्यूँ न लेती।।
 
 गज़ब का नशा है जो,तेरी नज़र में।
 तो हाला ये तू, आज़मा क्यूँ न लेती।।
 
 पता है मुझे सिर्फ़, धोखाधड़ी है।
 हक़ीक़त पता तू,लगा क्यूँ न लेती।।
 
 जो डरती है हासिल,गँवाने से ग़र तू।
 तो इन आंसुओं को छिपा क्यूँ न लेती।।
 
 सुना है तेरे जिस्म में दामिनी है।
 चिता पर हूँ लेटा,जला क्यूँ न देती।।
 
 मौलिक एवम् अप्रकाशित
                                           
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 30, 2015 at 10:30pm                            —
                                                            10 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      1222 1222 1222 1222
तुझे मैं चित्त से अपने मिटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।
तेरे अवधान को मन से घटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।।
हे प्रियतम रूप रस तेरा मनस पर इस कदर हावी।
ये दृग रस पान से तेरे हटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।।
ये पर्वत पेड़ ये नदिया, ये शीतल सी हवाएँ भी।
अलग तुमसे हैं ये खुद को बता पाऊँ तो कुछ देखूँ।।
कि मन्दिर चर्च मस्ज़िद और गुरुद्वारे बहुत हैं पर।
तेरे छवि धाम से मन को बुला पाऊँ तो कुछ देखूँ।।
ये पंकज खिल भी सकता है हाँ जी…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 22, 2015 at 12:15am                            —
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                      1212 1122 1212 112
कि जिनके पास नहीं छत उन्हें सतायेगी क्या?
ये सर्द रात भला उनको अब सुलायेगी क्या?
बहुत अगन है सुना है श्मशान घाटों पर।
गरीब जमने लगा उनको अब तपायेगी क्या?
मिला था शाम में जो चीथड़े लपेटे हुए।
उसी को शीत लहर साथ में ले जायेगी क्या?
बहुत ही ऊँचा है रुतबा अगर तुम्हारा तो फिर?
तुम्हारे नाम की बन्दूक उसे बचायेगी क्या?
हमेशा साध रहे स्वार्थ नाम लेके तेरा।
ज़रा तू पूछ दरिंदों को भी उठाएगी क्या?                                          
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 9, 2015 at 4:00pm                            —
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                      खुद से हूँ नाराज़ बहुत।
दुःख में हूँ मैं आज बहुत।।
वर्ग भेद की नीति मुल्क में।
सच में आती लाज बहुत।।
झूठ कांठ का झण्डा ऊँचा।
पद पाता है गुण्डा ऊँचा।
संविधान में कई छेद हैं।
सच पर गिरती गाज़ बहुत।।
चोर सिपाही मिले हुए हैं।
इक धागे में सिले हुए हैं।
किसको हार समर्पित कर दूँ।
किस पर कर लूँ नाज़ बहुत।।
जात पात का देते नारा।
मज़हब का लेते हैं सहारा।
समता का अधिकार दिखावा।
राजनीति में राज…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 6, 2015 at 11:32pm                            —
                                                            No Comments                                                
                                     
                            
                    
                    
                      इबादत कर रहा हूँ कर रहा हूँ
कर रहा हूँ मैं।
खलल मत डालिये चेहरे की पुस्तक,
पढ़ रहा हूँ मैं।।
अभी मैं रोककर साँसों को,
प्राणायाम में रत हूँ।
विधाता की सुघर कृति के सघन,
अवधान में रत हूँ।
अभी मत बोलिये मन में ये प्रतिमा,
गढ़ रहा हूँ मैं।
खलल मत डालिये चेहरे की पुस्तक,
पढ़ रहा हूँ मैं।।
अभी धड़कन सँवरनी है,
अभी शृंगार करना है।
अभी बेजान से बुत पर,
हृदय का हार चढ़ना है।
नज़र मत डालिये प्रियवर मिलन को,
बढ़ रहा…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 17, 2015 at 5:09pm                            —
                                                            4 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      1222 1222
~~~~~~~~~~~~~~
निगाहों में संवर लेती।
मुहब्बत क्यूँ न कर लेती?
बहुत सुंदर शहर है ये।
मेरे दिल की खबर लेती।।
उदासी का मैं दुश्मन हूँ।
तू दामन क्यूँ न भर लेती।।
नदी कब तक यूँ भटकेगी?
समन्दर में उतर लेती।।
तेरे ख्वाबों की मन्ज़िल हूँ।
कदम अपने इधर लेती।।
तू ख़ुश्बू और मैं "पंकज"।
आ मुझपे ही बिखर लेती।।
~~~~~~~~~~~~~~
मौलिक एवम् अप्रकाशित                                          
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 15, 2015 at 8:11pm                            —
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                      खोज रहे हो सूत्र एकता, के तुम काहें खद्दर में।
नैतिकता का बलात्कार, होता है पार्टी दफ्तर में।।
अपनी टाँगें मोड़-माड़कर, खूब बचाकर पड़े रहो।
सोच रहे हो घर बस जाये, तम्बू वाले चद्दर में।।
संसाधन पर हक़ तब भी और, अब भी उन लोगों का है।
जो भी रहता है सत्ता के, इर्द-गिर्द के संस्तर में।।
नींद भला आती ही कैसे, उसकी बेबस आँखों में।
यादों के बादल बरसे वो, जगता रह गया बिस्तर में।।
दिल की धड़कन चलती रहती, ऐसे टूट नहीं जाती।
सच कहता हूँ धार…                      
Continue
                                          
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 11, 2015 at 11:49pm                            —
                                                            13 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      आइये महानुभाव!
बेख़ौफ़ आईये
मत घबराईये।।
ये गरीबखाना है
यहाँ सबका आना जाना है।
ये जो झीलंगहिया खटिया है न?
दर्द से चुर्र चुर्र ज़रूर कराहती है
पर यह सबके भार उठाती है।।
खैर!
आप मचिया पर बैठिये
किन्तु थोड़ा ठहरिये
इसे साफ़ कर देता हूँ
आपके लायक कर देता हूँ।
आपके श्वेतावरण का ध्यान है मुझे;
दाग अंदर हों, कोई बात नहीं
लेकिन
कपड़ों पर अच्छे नहीं लगते
ज्ञात है मुझे।।
बोलिये…                      
Continue
                                          
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 8, 2015 at 7:28pm                            —
                                                            8 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      16 रुक्नी ग़ज़ल
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 नफ़रत का बाज़ार सजा है; हममें जितनी, कीमत उतनी।
 इच्छाओं का दाम लगा है, खुदमें जितनी, कीमत उतनी।।
 
 इस पुस्तक के पन्नों पर तुम, नैतिकता क्यों कर लिखते हो।
 मानवता की छद्म व्याख्या, इसमें जितनी, कीमत उतनी।।
 
 व्यवहार और समाचार में, सिर्फ एक सम्बन्ध यही है।
 नमक मिर्च की हुई मिलावट, इनमें जितनी, कीमत उतनी।।
 
 कलयुग वाले महाराज के, दरबारी मानक बदले हैं।
 चाटुकारिता भरी हुई है, जिसमें…
                      Continue
                                           
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 7, 2015 at 9:30am                            —
                                                            13 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      16 रुक्नी ग़ज़ल
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हम अब भी साँसें खींच रहे; कुछ और सितम तुम ढ़ाओ भी।
दीदार तो होगा कम से कम; तुम इस ही बहाने आओ भी।।
कल सुब्ह चले जाना ये शब, तूफ़ान भरी को बीतने दो।
बादल झरते हैं आँखों से, बरसात है तुम रुक जाओ भी।
अरमान भरे दिल की दुनिया, उजड़ी है अभी बर्बाद हुई।
बस बाकी है दीवार ज़रा, माटी में इसको मिलाओ भी।।
तैयार ज़रा कर दो मुझको, बिखरा बिखरा हूँ ठीक नहीं।
शृंगार अधूरा है मेरा, कुछ मोती मुझपे चढ़ाओ…                      
Continue
                                          
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 2, 2015 at 10:30pm                            —
                                                            18 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      2222 2222 2222 2222
(16 रुक्नी ग़ज़ल- बीच बीच में 2 मात्रा को 1-1 भी लिखा गया है)
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मन की देवी कुछ पल ठहरो, मैं तेरा शृंगार तो कर लूँ।
इन आँखों से झरते हैं जो, उन मोती के हार तो गढ़ लूँ।।
जिस मन्दिर को तोड़ चली हो, उससे बहते रक्तिम रस से।
तेरे इन गोरे हाथों पर, मेहदी बन कर आज बिखर लूँ।।
कुंडल कंगन बिंदिया बाली, ये तेरे होंठों की लाली।
दिल की भष्म से करके टीका, इनकी नज़र मैं आज तो हर लूँ।।
जाना है तो…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 10:46am                            —
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                      221 2122 2122
सौ सौ सवाल करते हो मिश्रा जी।
कितना बवाल करते हो मिश्रा जी।।
मतलब परस्त युग में प्रीत मिलेगी?
झूठा ख़याल करते हो मिश्रा जी।।
जीवन सदा परीक्षा से है गुज़रा।
किसका मलाल करते हो मिश्रा जी।।
कोई नहीं है यहाँ सुननें वाला।
काहें कराल करते हो मिश्रा जी।।
दुनिया के दर्द खुदमें भर लिया है।
मुझको निहाल करते हो मिश्रा जी।।
औरों के अश्क खुद की आँख भीगी?
तुम तो कमाल करते हो मिश्रा जी।।                                          
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 29, 2015 at 11:40pm                            —
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                      2122 122 122 2122 122 122
 किस तरह से दशहरा मनायें; राम जी रावणी मन हुआ है।
 राम नामी वसन पर न जायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।
 
 वासना से भरा है कलश ये, हो गया कामनाओं के वश में।
 भेष साधू का झूठा, भुलायें राम जी रावणी मन हुआ है।।
 
 स्वर्ण का ये महल चाहता है, मन्त्र बस धन का ये बांचता है।
 किस तरह से "स्वयं" को जगायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।
 
 स्वार्थ का आचरण हर घड़ी है, नेक नीयत दफ़न हो गयी है।
 आज खुद को विभीषण बनायें, राम जी रावणी मन…
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 22, 2015 at 7:00pm                            —
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                      1222 1222 1222 1222
 
 तेरे नैनों के पर्दे को उठा लेती तो बेहतर था।
 निगाहों को मेरे मुख पर टिका देती तो बेहतर था।।
 
 हाँ बेहतर तो यही होता कि तुझमें खो ही जाता मैं।
 औ तुम भी मेरी आँखों में समा जाती तो बेहतर था।।
 
 न खाली हो सके तुम भी बहुत मशरूफ थे हम भी।
 घड़ी कोई हमें तुमसे मिला देती तो बेहतर था।।
 
 पता है, मेरे इस दिल में कई सपने सुहाने थे।
 तू अपने ख़्वाब सारे जो बता देती तो बेहतर था।।
 
 यहाँ खोने का डर था तो वहाँ संकोच का…
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 18, 2015 at 11:00pm                            —
                                                            12 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      2212 122 2212 122
रुसवा किया जो यारी, तुमको मिली सज़ा है।
फ़तवा हुआ है ज़ारी, पढ़लो मिली सज़ा है।।
बदनामियों की ज़द में, वो आ गए तो सदमा।
भिजवा दिया है भारी, सिसको मिली सज़ा है।।
उनकी निगाह में थी, जो भी हाँ छवि तुम्हारी।
हटवा दिया है सारी, भटको मिली सज़ा है।।
चोरी से चाहने की, उसनें ख़ता रपट में।
लिखवा दिया तुम्हारी, भुगतो मिली सज़ा है।।
खुद चाँद ने तुम्हारे, हिस्से की रात सारी।
लिखवा दिया है कारी, सुनलो मिली सजा…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 17, 2015 at 11:28am                            —
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                      2122 2122 2122 212
दिल की धड़कन का उन्हें देकर नियंत्रण फँस गये।
रूप मदिरा पान का पाकर निमन्त्रण फँस गये।।
चित्त की हर भित्ति पर बस रंग उनका दिख रहा।
भित्तियों पर उनकी छवि का करके चित्रण फँस गये।।
मन भ्रमर चञ्चल जो बंजारे सा था तो ठीक था।
उनमें ही अवधान का करके एकत्रण फँस गये।।
कल्पना की वाटिका में तितलियों की भीड़ थी।
मन के उपवन में उन्हें देकर आमन्त्रण फँस गये।।
इस तरह प्यासे नहीं थे चक्षु ये मेरे कभी।
दृष्टि से…                                          
                    
                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 12:49am                            —
                                                            3 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      1222 1222 1222 1222
हैं हँसते मुस्कुराते हम छिपाते जानें कितने ग़म।
हाँ चलते गुनगुनाते हम मिटाते जानें कितने ग़म।।
हमारे होंठ जब लरज़े सुनाएँ दास्ताँ अपनी।
अचानक रूबरू मेरे हैं आते जानें कितनें ग़म।।
कभी रोते हुए बच्चे कभी तो छटपटाती माँ।
विवशता युक्त आँखों से बताते जानें कितने ग़म।।
वो जो चलती हुई गाड़ी से पटरी पर गयी फेंकी।
बिलखती आँख के आंसूँ सुनाते जानें कितने ग़म।।
दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।
निवाले में तभी से…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 13, 2015 at 11:39pm                            —
                                                            14 Comments
                                                
                                     
                            
                    
                    
                      2212 122 2212 122
क्या आदतों से अपनी, मज़बूर हो गयी हो।
आँखों से मेरी काहें, तुम दूर हो गयी हो।।
सपनों में उनसे मिलता, कुछ हाल चाल कहता।
लेकिन बहुत बुरी हो, मग़रूर हो गयी हो।।
आती नहीं कभी भी, मिलने तू हमसे निदिया।।
यूँ छोड़ कर हमें तुम, मफ़रूर हो गयी हो।।
जगता रहा हूँ कब से, बीती हैं कितनी रातें।
पंकज से दुश्मनी कर, मशहूर हो गयी हो।।
तुझमें मेरे सनम में, कुछ साम्य लग रहा है।
सच सच बता रहा हूँ, कस्तूर हो गयी…                      
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                                                        Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 6, 2015 at 6:13pm                            —
                                                            9 Comments