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हैं हँसते मुस्कुराते हम छिपाते जानें कितने ग़म।
हाँ चलते गुनगुनाते हम मिटाते जानें कितने ग़म।।

हमारे होंठ जब लरज़े सुनाएँ दास्ताँ अपनी।
अचानक रूबरू मेरे हैं आते जानें कितनें ग़म।।

कभी रोते हुए बच्चे कभी तो छटपटाती माँ।
विवशता युक्त आँखों से बताते जानें कितने ग़म।।

वो जो चलती हुई गाड़ी से पटरी पर गयी फेंकी।
बिलखती आँख के आंसूँ सुनाते जानें कितने ग़म।।

दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।
निवाले में तभी से हम हैं खाते जानें कितने ग़म।।

यहाँ अपनी कहानी में तो बस इक दिल ही टूटा है।
फूंके घर जिनके उनको तो जगाते जाने कितने ग़म।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 6:15pm
सादर अभिवादन आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी
Comment by Shyam Narain Verma on October 15, 2015 at 5:58pm
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 12:47pm
आदरणीय रवि सर सादर प्रणाम्
Comment by Ravi Shukla on October 15, 2015 at 12:44pm

आदरणीय पंकज जी  अच्‍छे प्रयास के लिये , हार्दिक बधाइयाँ आपको । सुरीला रुक्‍न है ये इस‍लिये प्रवाह भी शानदार होता है इसमें । बधाई ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 12:51am
आदरणीय समर कबीर सर सादर धन्यवाद।
Comment by Samar kabeer on October 14, 2015 at 11:24pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 14, 2015 at 10:15pm
आख़िरी शेर का दूसरा मिसरा निम्नवत् पढ़ें-

जले घर जिनके उनको तो जगाते जाने कितने ग़म
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 14, 2015 at 10:13pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर नमन्।
वो गल्ती मेरी भी निगाह में आयी; लेकिन पोस्ट को एडिट करनें पर सुधार लूँगा।।

सुझाव के लिए सादर धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 14, 2015 at 9:31pm

आदरणीय , ग़ज़ल अच्छी कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।

फूंके घर जिनके उनको तो जगाते जाने कितने ग़म --- मिसरा पहले रुक्न से बेबहर है , देख लीजियेगा ॥

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 14, 2015 at 8:35pm
आदरणीय जय प्रकाश जी; शेर की तारीफ के लिए शुक्रिया।।

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