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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (505)

सब हमामों के चरित्तर (ग़ज़ल )

2112     2112   2112    112

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दाग  चंदा   को  लगे  हैं, सूरज  का  क्या गया

ढूँढ  लेगा रात  को  वो, फिर से  कोई घर नया



बादलों  को  थी  मनाही ,  कैसे   करते  बारिसें

उसके  सूखे  दामनों  पर, आँसुओं  ने  की दया



कौन बोले, किसको बोले, इस सियासत में बुरा

सब  हमामों  के चरित्तर, शेष  किसमें  है हया



बाज  के  थे  सहायक  चील ,  कौवे  औ’ उलूक

फिर अकेली  बाज से, कब   तलक लड़ती बया



सोच…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:00am — 8 Comments

गर जीना हो भोलापन (ग़ज़ल)

1221 1221 1221 121



हमेशा  राह में  नदियों,  बिछे पत्थर नहीं होते

मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते

.

किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल

कभी   इन  सवालों के,  कोई  उत्तर  नहीं होते

.

कभी  चलके, कभी  तर के, जहाँ   घूम  लेते हैं

परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते

.

चला  देते  हैं झट खन्जर,  नीदों में भी साये पे

ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते

.

गर  जीना हो  भोलापन,  रहो  भीड़  से…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2013 at 11:00am — 11 Comments

ग़ज़ल

बताई बात मिलने की अगर तूँने जमाने को

बचेगा पास मेरे क्या बताओ फिर गँवाने को



न दिल को लगने पाएगा ये गम जुदाई का

तुम्हारी याद जो होगी हमें हँसने-हँसाने को



लगी सूंघने दुनिया तेरी खुशबू हवाओं में

लिखी जब गयी चिट्ठी किताबों में छुपाने को



किया फौलाद जैसा दुखों ने पालकर तन से

खुशी एक ही काफी हमें जी भर रूलाने को

गिरे अनमोल मोती जो सुख की कड़ी टूटी

सहेजे दामनों ने हैं नयन में फिर सजाने को…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 17, 2013 at 7:00am — 8 Comments

बुलाकर नेह को रखो

मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में

लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में



बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित  

मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में



निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो

यहां सौ-सौ लंकेश  बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में



सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का

मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में



अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें

भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 5, 2013 at 6:00am — 7 Comments

आज भी - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२



साथ जिसकी हर निशानी आज भी

हूँ न  उस  को  राजधानी  आज भी।।



काम में खटता है बचपन देश का

भूख से मरती  जवानी  आज भी।।



प्यासा पन्छी ढूँढता है हर तरफ

सूखी नदिया में रवानी आज भी।।



फूल सूखे  पुस्तकों  में  कह  रहे

नेह की बिसरी कहानी आज भी।।



जन के सेवक ठाठ करते देश में

बनके राजा और रानी आज भी।।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2013 at 10:00pm — No Comments

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