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Aazi Tamaam
  • Male
  • Bareilly, UP
  • India
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"बेहद खूबसूरत जानकारी साझा करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय ग़ालिब साहब का लेखन मुझे बहुत पसंद है"
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Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
Jul 27
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय हार्दिक बधाई"
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Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय गुणीजनो की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी हार्दिक बधाई"
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"सहृदय शुक्रिया आदरणीय ग़ज़ल पर ज़र्रा नवाज़ी का"
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"२१२२ २१२२ २१२२ २१२ अब तुम्हारी भी रगों में खूँ उबलना चाहिए ज़ुल्म करने वालों का सीना दहलना चाहिए/१ थर्थरा उठ्ठे हुक़ूमत शोषितों की गूँज से हर दबी आवाज़ को बाहर निकलना चाहिए/२ हो गुमाँ जिसको घिनौनी जातिवादी सोच पर उसको अपना नज़रिया फ़ौरन बदलना…"
Jul 27
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल ; पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई हैये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई हैघूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे मेंकाट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई हैजंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनीख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई हैना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हनआँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई हैशादी का अवसर लाया है ग़म के साथ ख़ुशी आज़ीएक तरफ़ है मिलन की बेला दूजी ओर विदाई है(मौलिक व अप्रकाशित) See More
Oct 16, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Sep 28, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बधाई स्वीकार करें आदरणीय अच्छी ग़ज़ल हुई गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतरीन हो जायेगी"
Sep 28, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ग़ज़ल मुकम्मल कराने के लिये सादर बदल के ज़ियादा बेहतर हो रहा है आदरणीय बे-क़रारी की इंतिहा भी थी हिज्र में एक ये सज़ा भी थी"
Sep 28, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"अब देखियेगा आदरणीय  हिज्र में एक ये सज़ा भी थी बे-क़रारी की इंतिहा भी थी"
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Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"जी शुक्रिया आदरणीय ज़र्रा नवाज़ी का ग़ज़ल पर"
Sep 28, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय इस ज़र्रा नवाज़ी का दूसरा मतला देखियेगा"
Sep 28, 2024
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"शुक्रिया आदरणीय ग़ज़ल पर नज़र ए करम का"
Sep 28, 2024

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Poet, Lawer, Engineer
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ग़ज़ल ; पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है

ये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई है

घूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे में

काट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई है

जंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनी

ख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई है

ना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हन

आँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई है

शादी का अवसर लाया है ग़म के साथ…

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Posted on October 5, 2024 at 10:40am

दोहे : बैठ एक की आस में, कब तक रहें उदास

बैठ एक की आस में, कब तक रहें उदास

चल दिल चल के ढूँढ लें, दूजा और निवास

ये जग है मायानगर, कौन करे विश्वास

इस झूठे बाजार में, टूटी सब की आस

पल भर में मेला लगे, पल भर में वनवास

अभी पराया हो गया, अभी हुआ जो खास

रहते थे हम ठाठ से, सब था अपने पास

छोड़ जिसे, आवारगी, हमको आई रास

श्वेत रंग की प्रीत का, उनको क्या एहसास

रंगों के शौकीन तो, बदलें रोज लिबास

(मौलिक व अप्रकाशित) 

Posted on August 6, 2024 at 12:00am — 2 Comments

ग़ज़ल : मिज़ाज़-ए-दश्त पता है न नक़्श-ए-पा मालूम

१२१२ ११२२ १२१२ २२

मिज़ाज़-ए-दश्त पता है न नक़्श-ए-पा मालूम

हमारे दर्द-ए-जिगर का भी किसको क्या मालूम

करेगा दर्द से आज़ाद या जिगर छलनी

तुम्हारे तीर-ए-नज़र की किसे रज़ा मालूम

न जाने कैसे थमेगा ये सिलसिला ग़म का

कोई बताये किसी को हो गर ज़रा मालूम

झुकाएं कौन से दर पर ज़बीं ये दीवाने

वफ़ा का कौन सा घर है किसी को क्या मालूम

क़फ़स में क़ैद परिंदे की बेबसी देखो

न हश्र-ए-क़ैद पता है न है ख़ता…

Continue

Posted on July 14, 2024 at 11:30am — 10 Comments

ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी

२१२२ २१२२

ग़मज़दा आँखों का पानी

बोलता है बे-ज़बानी

मार ही डालेगी हमको

आज उनकी सरगिरानी

आपकी हर बात वाजिब

और हमारी लंतरानी

जाने किसकी बद्दुआ है

वक़्त-ए-गर्दिश जाँ-सितानी

दर्द-ओ-ग़म रास आ रहे हैं

बुझ रही है ज़िंदगानी

कौन जाने कब कहाँ से

आये मर्ग-ए-ना-गहानी

ले के फागुन आ गया फिर

फ़स्ल-ए-गुल की छेड़खानी

कैसे मैं समझाऊँ ख़ुद…

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Posted on April 1, 2024 at 5:30pm — 6 Comments

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At 10:44am on April 9, 2024, Erica Woodward said…

I need to have a word privately, please get back to me on ( mrs.ericaw1@gmail.com) Thanks.

At 1:08pm on January 16, 2021, लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' said…

आ. भाई आज़ी तमाम जी, सादर अभिवादन । मेरी गजलें आपको अच्छी लगीं यह हर्ष का विषय है । आपके इस स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद।

मंच पर अपनी रचनाओं का आनन्द लेने का अवसर प्रदान करें और अन्य रचनाकारों का भी अपनी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन करते रहिए ।

At 8:15pm on January 12, 2021, Samar kabeer said…

जनाब आज़ी साहिब,तरही मुशाइर: में शामिल सभी ग़ज़लों पर लाइव ही तफ़सील से गुफ़्तगू होती है, शिर्कत फ़रमाएँ, और कोई उलझन हो तो मुझसे 09753845522 पर बात कर सकते हैं ।

 
 
 

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