आदरणीय साथिओ,
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मुहतरमा बबीता साहिबा, रिश्तों पर आधारित सुन्दर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आभार तासिक सरजी ।
अच्छी लघुकथा के लिए बधाई बबीता जी
आभार राजेश दी।
*लघुकथा 'क्या लाया'*
सवेरे उसकी पत्नी की चीखने चिल्लाने, कोसने की आवाज़ ने उसकी नींद उड़ा दी पता नहीं रात देर कब नींद लगी थी, सोचने लगा अब मैं क्या करूं, पत्नी के ताने, लोगों के सवाल,क्या ख़ुद से लड़ूं, मैं तो जीवन भर का मज़ाक बनकर रह गया, 'हे भगवान मुझे इतना मूर्ख क्यों बनाया के अपनी क़बर खुद खोद ली'।
हुवा युूं के रामू बढ़ाई ने परिवार को पालते हुए तंगी से लड़ते हुए बड़ी मुश्किल से पंद्रह सौ रुपया जमा किया था,कि एक दूध वाली गाय ले आए ताकि बच्चों को दूध घी मिल सके, और कुछ गोबर कंडे भी हो जाए, रुपया लेकर कल पास के गांव में हाट-बजार करने गया था हाट जरा तेज चल रहा था सोचा आधे दिन बाद कुछ ठंडा हो तो मोलभाव करें, पेड़ की छांव में सुस्ताने बैठ गया, कई मनक बैठे थे, एक मनक आया और पास बैठ गया बीड़ी निकाली रामू की तरफ बढ़ा दी रामू ने बिना संकोच के ले ली और मुंह में लगा ली, उसने पहले रामू की बीड़ी सुलगाई फिर अपनी, लंबा कश मारा और बोला: कौन गांव के हो ?
रामू: "ई कालू खेड़ा..भाव तेज है गाबण गय्या लेनो है, तमारे कईं लेनो है"?
बीड़ी वाला: "का बतऊं दादा एक बेल मरी गयो है जोड़ी बनानो है, सामने बेल वाले से भाव पटियो नी, मगजमारी हुई गई म्हारे बेल देने को राजी कोणी, बोल रियो है दूसरा को फ्री दइ दूं, पर थारे को नी दूं, जोड़ी तो उसी से बने म्हारे बेल की"। और उसने रामू से मदद मांगी। रामू ने मोल भाव करके पन्द्रह सौ रुपए में बेल ले लिया, और उस बीड़ी वाले के बताई जगह पर पुल के पास में बैल को ले गया!
बीड़ी वाले ने कहा था "मैं सत्रह सौ रुप्या में बेल ले लूंगा, तम-भी बढ़िया गाय लइ-ली जो', रामू बढ़ाई को इंतजार करते-करते शाम से रात हो गई लेकिन वह बीड़ी वाला नहीं आया, थक-हार कर रामू बेल घर ले आया और बाड़े में बांध दिया। बस फिर क्या था,सवेरे पत्नी की चिल्ला चोट "गाय लेवाणे गयो थो,बैल उठा लायो..."।गांव वालों की जिज्ञासा पत्नी की जुबानी..और रामू बेचारा...।
मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। बढ़िया उम्दा रचना। हार्दिक बधाई जनाब आसिफ़ ज़ैदी साहिब। दूसरे अनुच्छेद के विवरण का आवश्यक भाव भी संवादों में समेटा जा सकता था, इसी क्षेत्रीय भाषा में।
बहुत शुक्रिया उस्मानी साहब अभी आप लोगों से और भी बहूत कुछ सीखना है मोहतरम
बढ़िया व्यंग्य लिखा है आपने, सीधे आदमी को हर कोई बेवकूफ बना देता है. आंचलिक भाषा ने इसका सौंदर्य बढ़ा दिया है, बधाई इस रचना के लिए आ आसिफ ज़ैदी साहब
आदरणीय विनय कुमार जी बहुत बहुत आभार आपकी तवज्जो के लिए
इस बढ़िया लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय आसिफ़ ज़ैदी जी. सच है, सीधे आदमी को दुनिया ऐसे ही बेवक़ूफ़ बनाती है. सादर.
बढ़िया रचना । आए थे गाय लेने को और बैल लेकर लौट गए । अपने सीधे पन और लालच के कारण। क्षेत्रीय भाषा ने कथा की रोचकता में वृद्धि कर दी है ।
अच्छी रोचक लघुकथा, क्षेत्रीय भाषा ने संवादों को और प्रभावी बनाया। हार्दिक बधाई आदरणीय आसिफ जैदी जी
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