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ग़ज़ल : क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

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याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं

क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

 

बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे

और हम हैं घड़ी न होते हैं

 

प्रेम के वो न टूटते धागे

जिनके रेशे महीन होते हैं

 

वन में उगने से, वन में रहने से

पेड़ खुद जंगली न होते हैं

 

उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ

रात सपने हसीन होते हैं

 

खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे

यूँ नयन शर्बती न होते हैं

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:20pm

आदरणीय सौरभ जी, काश ऐसी ग़ज़लें रोज होतीं जिनका  हर शे’र आपका ध्यान खींच पाता। इस स्नेह के लिए तह-ए-दिल से आपका आभारी हूँ। स्नेह बना रहे

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:19pm

Baidya Nath 'सारथी' जी, बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:18pm

Nilesh Shevgaonkar जी, बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:18pm

बहुत बहुत धन्यवाद गीतिका 'वेदिका' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:18pm

बहुत बहुत शुक्रिया SANDEEP KUMAR PATEL जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:17pm

बहुत बहुत धन्यवाद AVINASH S BAGDE जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:17pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय vijay nikore जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:17pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, नादिर ख़ान साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:16pm

बहुत बहुत आभारी हूँ MAHIMA SHREE जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 8:16pm

डॉ. अनुराग सैनी जी, बहुत बहुत धन्यवाद

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