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कुछ दोहे-प्रीत पर ..........डॉ० प्राची सिंह

मृग छाया सी प्रीत बस, दे समीप्य का भास
मधुर मोहिनी बन करे, बैरी खुद की श्वास

बाह्य प्राप्ति से पूर्णता, मिलती कब पर्याप्त 

मिले न कुछ वो भी मिटे, जो भी हो निज व्याप्त

नहीं एक भी वायदा, नहीं बंध से युक्त 
प्रीत प्रखर निभती तभी, मन हों जब उन्मुक्त

प्रीत न कलुषित कर कभी, आरोपित कर चाह
मन इच्छित हर कामना, लीले सलिल प्रवाह

अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही अनुवाद 

मौलिक और अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 5, 2016 at 11:11pm

दोहों की सराहना के लिए आप सभी का दिल से धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 9, 2016 at 11:03pm

पहला दोहा गड़बड़ है. 

बाकियों पर सुधीजनों ने अपनी राय अभिव्यक्त की है. मैं भी उन कहे से सहमत हूँ. 

प्रीत न कलुषित कर कभी -- इतना आदेशात्मक होना क्यों आवश्यक लगा ? कर कभी को कीजिये करना मेरी समझ से उचित होता. 

है न ?

शुभ-शुभ

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on January 29, 2016 at 7:30pm

डॉ प्राची जी प्रीत विषय को केंद्रित कर लिखे गए सुन्दर दोहे मन को छू गए। .
बधाई
 भ्रमर ५

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 13, 2016 at 11:16am

प्रीत पर अति सुंदर भाव रचित दोहे हुए है | मुझे भी श्री  अरुण कुमार निगम जे बात ठीक लग रही है | पास में ही पानी का आभास होने से अपनी तृष्णा शांत करने के लिए दौड़ता है | इसलिए  - मृग तृष्णा  सी प्रेत बस |

अंतिम दोहा यूँ भी हो सकता है -

अकथ मौन करता ह्रदय, मन ही मन संवाद,

जैसी जिसकी सोच हो, वैसा ही अनुवाद  | ---  बहुत  बहुत  बधाई  आपको 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on January 10, 2016 at 3:03pm

वाह आदरणीया प्राची जी , प्रीत पर सुकोमल दोहों ने मुग्ध कर दिया. 

मृग छाला सी प्रीत समीप्य का भास कैसे दे सकती है ?

मेरे विचार में

मृग तृष्णा सी प्रीत बस 

या 

मृग मरीचिका प्रीत बस 

होने से सामीप्य का भास बेहतर होगा. 

समीप्य पर भी मन में संदेह हो रहा है, शायद शुद्ध शब्द सामीप्य होना चाहिए. कृपया मेरा संदेह दूर करने का का करें. 

शेष सभी दोहे अति उत्कृष्ट हैं. बधाइयाँ. 

किन्तु 

नहीं एक भी वायदा, नहीं बंध से युक्त 
प्रीत प्रखर निभती तभी, मन हों जब उन्मुक्त      यह दोहा प्रीत की विलक्षण परिभाषा कर गया. वाह !!!!!!!!!!!!!!!!!!

Comment by Ravi Shukla on January 8, 2016 at 4:57pm

आदरणीया प्राची जी  अत्‍यन्‍त सुन्‍दर दोहे हुए है सभी ने इस पोस्‍ट के अंतिम दोहे की सराहना की है और वो है भी सर्वोत्‍तम सीधे दिल को छू लेने वाला इन सभी दोहो के लिये हार्दिक बधाई स्‍वीकार करें । सादर

Comment by Sushil Sarna on January 8, 2016 at 12:38pm

अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही अनुवाद

वाह आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी प्रीत को केंद्रित कर सृजित इन अनुपम दोहों की प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2016 at 12:52am

अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही अनुवाद

इस दोहे बीसियों बार पढ़ गया. चमत्कृत हूँ आपकी कलम का जादू देखकर. आपको शत शत नमन है इस दोहे के लिए. ऐसा दोहा हो जाना साहित्यिक जीवन की उपलब्धि है. पुनः सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 7, 2016 at 10:17pm

आदरणीया प्राची जी , प्रीत पर आपके सारगर्भित दोहों के लिये हारदिक बधाइयाँ ।

प्रीत न कलुषित कर कभी, आरोपित कर चाह
मन इच्छित हर कामना, लीले सलिल प्रवाह

अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही अनुवाद  ---       शाश्वत सत्य कहते इन दोहों के लिये आपको पुनः बधाई ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 7, 2016 at 6:53pm
बेहतरीन शिल्प में सार्थक दोहासृजनके लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आदरणीया डॉ.प्राची सिंह जी।

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