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इस बार बनवास सीता को मिला था। पीत वस्त्र धारण कर श्री राम और लक्ष्मण भी बन गमन हेतु तैयार खड़े थे। लेकिन सीता जी ने लक्ष्मण को साथ चलने से साफ़ मना कर दिया। अश्रुपूर्ण नेत्र लिए भरे हुए गले से लक्ष्मण ने पूछा: 

"क्या हुआ माते ?"
"कुछ नहीं हुआ लक्ष्मण,  तुम अयोध्या में ही रहोगे।" 
"मुझ से कोई भूल हो गई क्या ?"
"भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ।"
"भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"
"उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।"  

(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2015 at 2:58am

इस लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में किन लंगड़ी भावनाओं की मजम्मत हुई है इसका अहसास होते ही दिल खिल उठता है आदरणीय योगराजभाईजी. आपने सटीक वाक्यों के हवाले से उर्मिला की भावदशा को अभिव्यक्त कर दायित्वबोध की आड़ में चल रहे भावमर्दन की परिपाटी के उछाह पर सार्थक उंगली उठायी है. यह आवश्यक भी है. लक्ष्मण का सीता और राम के साथ वन जाना, उचित है या अनुचित यह बाद का विषय है. सर्वोपरि, इसकी ओट में किसी के प्रति बन रहे असहज व्यवहार का महिमा-मण्डन न हो. अनुचित प्रश्रय न मिले लघुकथा का हेतु यहाँ है.
इस संवेदना केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय.


कतिपय पाठक पौराणिक कथा का संदर्भ लेकर लघुकथा के व्यवहार और विन्यास तो छोड़िये, वज़ूद पर ही प्रश्न उठाते दिख रहे हैं. अच्छा है, कि, यह मंच शिष्ट वाद-विवाद, चर्चा-परिचर्चा को प्रश्रय देता है. इसी से नये सदस्य अपनी साहित्यिक समझ को पुख़्ता करते हैं.
वस्तुतः साहित्य की रचनाओं के बिम्ब आज के यथार्थ के सूत्र को बाँधने के इंगित देते हैं, न कि इनका हेतु इतिहास का निर्माण या ध्वंस हुआ करता है. इतिहास से एक पल ले कर उसे आजके संदर्भ में प्रस्तुत करना, ताकि सुधार केलिए एक वातावरण तारी हो, रचनाप्रक्रिया का उद्येश्य होता है.
 
अच्छा हो, कि हमारे पाठक कुछ अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएँ भी पढ़ें. यदि नहीं, तो इसी ओबीओ पर विगत में इतनी सघन रचनायें प्रस्तुत हो चुकी हैं, उनका ही अध्ययन किया जाये. आयोजनों के संकलन से भी पद्य रचनाओं को उठाया जा सकता है. फिर उन पर समझ आयी टिप्पणी दी जाये ताकि उनकी समझ के स्तर का भी पता चले. लेकिन दुःख होता है कि नये हस्ताक्षर पढ़ते कम हैं, या पढ़ते ही नहीं हैं. तभी तो, तनिक गहन रचना हुई नहीं कि उनकी समझ लसर जाती है. ऐसे किसी रचनाकार से किस रचना की उम्मीद की जा सकती है ? क्या छन्द विधान या अरुज़ के नियमों का रट्टा मार लेने से कोई कवि या ग़ज़लकार हो जायेगा ? छन्द जानना या अरुज़ समझना तो पहला पग है रचनाकर्म की यात्रा में !
शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:05am

बिम्बों के माध्यम से कथा अपने मर्म को अभिव्यक्त करते हुए गहरे तक सोचने के लिए विवश करती है.

बहुत बहुत बधाई इस सफल लघुकथा की प्रस्तुति पर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 21, 2015 at 2:12pm

आ. लघुकथा को कई बार पढ़ा सभी आ. जनों के कमेन्ट भी पढ़े!
//भूल तुमसे नहीं श्री राम से हो गई थी, जिसे सुधारने का प्रयास कर रही हूँ//" मै इस वाक्य से सरासर असहमत हूँ!

//इस बार बनवास सीता को मिला था// कथा को इस दृष्टि से रखने का औचित्य भी मुझे समझ में नही आया... माता सीता को वनवास हुआ..और फिर श्री राम और लक्ष्मण उनके साथ चलने को तैयार हुए..तभी उन्हें(माता सीता को ) अपनी नैतिक ज़िम्मेवारी या कर्तव्य (उर्मिला और लक्ष्मन के प्रति )का भान हुआ या फिर एक नारी के रूप में वनवासी होने पर ही उन्हें एक नारी के विरह के दुःख का अहसास हुआ?? और क्या श्री रामजी इसके प्रति सचेत नही थे??
भूल श्री राम जी से कैसे हुयी??क्या उन्होंने लक्ष्मण को वनवास में साथ चलने से हर प्रकार से रोकने का प्रयास नही किया था?? बल्कि उन्होंने तो माता सीता को भी हर प्रकार से साथ में न चलने के लिए मनाने का प्रयास भी किया था!...प्रभु श्री राम का लक्ष्मन को हर तरह से रोकने का प्रयास उन सभी कर्तव्यों के पालन के ही संदर्भ में ही तो है चाहे वो माता-पिता के प्रति हो या पत्नी उर्मिला के प्रति!.....पर लक्ष्मन जी ने बड़े भाई के प्रति ही अपने को समर्पित करने का निर्णय किया,जो तत्काल का भी नही था कथा में माता सुमित्रा ने बचपन में उनसे सदैव बड़े भाई के साथ रहने और सेवा के लिए कहा था,यानि लक्ष्मन जी माँ के वचन और अपने धर्म से बंधे है!!..अब सीधे तौर पे उर्मिला की ज़िम्मेवारी लक्ष्मन जी पर आती है... लक्ष्मन जी ने सेवक धर्म का हवाला देकर उर्मिला से वचन लिया की आप अयोध्या में ही रहें!क्यूंकि जाहिर तौर पर अन्यथा वनवास के दौरान सेवकधर्म निभाने में व्यवधान आता..दूसरा माता कैकेयी,माता सुमित्रा,आदि के प्रति सबकी अनुपस्थिति में ज़िम्मेवारी का भी भान कराया!
अब बात आती है माता सीता व् उर्मिला में किसका त्याग बड़ा था, तो सदा से ही माता उर्मिला के त्याग को माता सीता के त्याग से बड़ा माना गया है चूँकि श्री राम प्रभु और माता सीता का चरित्र कथा में मुख्य है तो माता सीता के त्याग के उदाहरण ज्यादा दिए जाते है..माता सीता के त्याग को ज्यादा बार सुना/गाया कहा जाता है!

उर्मिला के प्रति मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से भूल की बात का तो प्रश्न ही नही उठता हाँ धोबी द्वारा चरित्र पर आक्षेप लगाने के बाद माता सीता को त्यागने का प्रश्न अलग है!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 21, 2015 at 10:27am

एक स्त्री की पीड़ा को जितना एक स्त्री समझ सकती है और कोई नहीं ये जितना शत प्रतिशत सत्य है वहीँ हम उन स्त्रियों के स्वभाव को क्या कहें  जिन्होंने इस वनवास जैसे प्रकरण को जो बाद में राम रावण के युद्द तक पँहुचा ,जन्म दिया| मंथरा ,कैकयी,के साथ मैं सीता को भी गिनुंगी जिन्होंने उर्मिला के आंसूं नहीं देखे, जब वो राम के बिना नहीं रह सकती थी तो उर्मिला की अंतरात्मा की आवाज उन्हें क्यूँ सुनाई नहीं दी |शायद इन्हीं भावों ने ,आत्ममंथन ने लेखक को इस तथ्य  पर इस विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया है इसका शीर्षक प्रायश्चित भी कहें तो दो राय नहीं होगी | आ० योगराज जी ,ये आपकी संग्रहणीय लघु कथा है जिसके लिए आपकी लेखनी को नमन आपको नमन |

Comment by somesh kumar on June 19, 2015 at 7:39pm

वाह !आदरणीय वास्तव में ये प्रश्न विचारणीय है कि सीता व् उर्मिला में किसका त्याग बड़ा है |कहने वाले कहेंगे की सीता ने सब सुख त्याग पति के साथ सुख-दुःख बांटें और अंत में भी उन मर्याद -पुरुष का भरोषा नहीं जीत पाई |पर क्या उर्मिला ने भी एक प्रकार से पति -की उपेक्षा  नहीं झेली |जैसा आपने कहानी में इंगित किया अगर ऐसा पहले होता तो शूपणखा की नाक काटने ,सीता हरण ,तथा धोबी द्वारा उनके चरित्र पर आक्षेप लगाने जैसी घटना भी नहीं होती यानि राम शायद पुरुषोतम नहीं होते |

रचना एवं रचनाकार को करबद्ध प्रणाम

Comment by Sushil Sarna on June 19, 2015 at 12:45pm

"भूल और मर्यादा पुरुषोत्तम से ? मैं कुछ समझा नहीं माते।"
"उर्मिला के हृदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण।"
वाह आदरणीय योगराज सर बहुत ही सुंदर गहन भावों की ये लघु कथा बनी है । अंतिम पंक्ति इस कथा के बारे में सोचने के मज़बूर करती है। इस सुंदर लघु कथा के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई सर।

Comment by Archana Tripathi on June 19, 2015 at 2:42am
बहुत ही उत्कृष्ट रचना हैं सर आपकी।सीता के पाँव के छाले तो सभी ने देखे , उर्मिला का एक पैर पर खड़े रहना किसने देखा ?
सीता वनवास पर रामायण लिखड़ी गयी लेकिन उर्मिला का त्याग किसने लिखा ।
बधाई सर जी आपको।
Comment by विनय कुमार on June 18, 2015 at 9:17pm

 //उर्मिला के ह्रदय में झाँकोगे तो समझ जाओगे लक्ष्मण// , ये पंक्तियाँ अपने आप में ही सम्पूर्ण लघुकथा का सार हैं | बेहतरीन लघुकथा , उम्दा शीर्षक | ऐसा बहुधा देखने को मिल जाता है कि किसी बड़े के साये तले पता नहीं कितने छोटे अपना वज़ूद खो देते हैं और उनको इतिहास में कोई याद करने वाला ही नहीं होता | बहुत बहुत बधाई आदरणीय इस लघुकथा के लिए ..

Comment by maharshi tripathi on June 18, 2015 at 7:01pm

आ.योगराज प्रभाकर जी ,,कथा का सार तो अपने बखूबी दिया है ,,किन्तु लघुकथा का शीर्षक ,,,,उचित है ??कृपया मेरी जिज्ञासा को शांत करें ,,,सर |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 18, 2015 at 6:33pm

आ० अनुज

कथा के बार में  सुधीजन  बहुत  कुछ कह चुके पर मेरी जिज्ञासा यह है कि यह अंतर्ज्ञान सीता को तब क्यों नहीं हुआ जब राम को बनवास हुआ था, मानस में सीता कहती हैं -     जंह लगि  नाथ नेह अरु नाते i पिय बिनु तियहि  तरनिहु ते ताते  I

                                                   तनु धनु धाम धरनि पुर राजू I  पति बिहीन सब शोक समाजू --और सीता का प्रलाप यहाँ तक चला कि -  अस कहि  सीय  बिकल भइ भारी . बचन वियोग न सकी सम्भारी .

              देखि दशा रघुपति जिय  जाना . हठि राखे नहि राखिहि प्राना  ii --और राम लक्ष्मण सीता सहित वन चले गए . सीता के सारे तर्क के अपने लिए थे तब उर्मिला के बारे में किसने सोचा , स्वयं उसके पति ने भी नहीं  क्या उसने परित्यक्ता का जीवन जिया . आभारी हूँ मैंथिलीशरण गुप्त जी का  जिन्होंने उर्मिला के लिये आंसू गिराए  जो साकेत लिखते समय उनकी आँखों से स्वतः टपके .  सीता से मेरी यही शिकायत है . बाकी आपकी  कथा अपना प्रभाव तो छोडती ही है . सादर .

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