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1222 1222 1222

मिला था जो हमें पल खो दिया हमने
मुलायम नर्म मखमल खो दिया हमने ।
*
बचा रख्खे हैं यादों के नुकीले शर
मज़े से झूमता कल खो दिया हमने ।
*
उड़ा दी खुशबुएँ जो साथ रहती थीं
गँवा दी उम्र संदल खो दिया हमने ।
*
मुहब्बत नाम से हर दिन जिहालत की
सुकूँ था एक आँचल खो दिया हमने ।
*
सवालों पर सवालों की थीं बौछारें
जवाब आए तो संबल खो दिया हमने ।
*
चली है जब हवा थर्रा गया आलम
बरसता मस्त बादल खो दिया हमने ।
*
किनारा छू लिया फिर मोड़ दी कशती
हुआ जो भ्रम धरातल खो दिया हमने ।  
.
मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 3, 2021 at 6:38am

आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 30, 2021 at 9:55pm

आदरणीय अशोक भाई साहब, हिन्दी ग़ज़लों की तासीर ही विशिष्ट हुआ करती है. मुलायम नर्म मलमल की अनुभूति से विगत के पलों का स्मरण किया जाना रोचक तो है ही,अभिनव भी है. अलबत्ता बादल वाले शेेर में विशेषण 'मस्त' पर कुछ और समय दिया जा सकता था. 

किंतु, अधोलिखित शेर पर विशेष बधाई स्वीकार करें : 

सवालों पर सवालों की थीं बौछारें
जवाब आए तो संबल खो दिया हमने 

हार्दिक बधाई. 

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 30, 2021 at 9:03pm

आदरणीय विजय निकोर साहब सादर, प्रस्तुत ग़ज़ल पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार. सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 30, 2021 at 9:02pm

प्रस्तुत ग़ज़ल पर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय दण्डपाणी नाहक साहब .सादर

Comment by vijay nikore on September 30, 2021 at 12:49pm

गज़ल हो तो ऐसी हो,  आनन्द आ गया

Comment by dandpani nahak on September 29, 2021 at 2:31pm
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी नमस्कार! उम्द: ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई स्वीकार करें
Comment by Ashok Kumar Raktale on September 28, 2021 at 12:59pm

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत ग़ज़ल पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदयतल से आभार. समय-समय पर आप से मिले सहयोग और सुझावों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on September 28, 2021 at 12:56pm

आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहब सादर नमस्कार, बहुत-बहुत आभार. मेरी प्रस्तुत ग़ज़ल पर आपके  कसावट, अस्पष्टता अरु रब्त सम्बंधित बहुत उत्तम सुझाव हैं. मैं अवश्य ही इस पर ध्यान देकर अपनी रचना में सुधार का प्रयास करूँगा. आपके इस महती कार्य के लिए आपका हृदय से धन्यवाद. सादर 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 27, 2021 at 4:36pm

जनाब अशोक कुमार रक्ताले जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें, कुछ अशआर पर अपनी राय का इज़हार करने की जसारत कर रहा हूँ। 

महब्बत नाम से हर दिन जिहालत की

सुकूँ था एक आँचल खो दिया हमने. - इस शे'र के ऊला मिसरे का शिल्प कसावट चाहता है सानी मिसरा भी मामूली बदलाव का हामिल है। चाहें तो शे'र यूँ कर सकते हैं-

"हवस को ही महब्बत मान बैठे हैं 

सुकूँ का अब वो आँचल खो दिया हमने" 

सवालों पर सवालों की थीं बौछारें

जवाब आए तो संबल खो दिया हमने. - इस शे'र का भाव स्पष्ट नहीं है चाहें तो ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं - 

"सवालों की हमीं ने की थीं बौछारें" 

चली है जब हवा थर्रा गया आलम

बरसता मस्त बादल खो दिया हमने. - इस शे'र के मिसरों में रब्त नहीं है, ऊला का भाव भी स्पष्ट नहीं है चाहें तो ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं - 

"हवा बारिश उड़ाकर ले गई फिर से" 

सादर।

Comment by Samar kabeer on September 27, 2021 at 4:03pm

जनाब अशोक कुमार रक्ताले जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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