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 221 1222 221 1222

 

उसकी ये अदा आदत इन्कार पुराना है

बेचैन नहीं करता ये प्यार पुराना है ।

 

ये हुस्न नया पाया उसने है सताने को

ये जिस्म तमन्नाएं इसरार पुराना है ।

 

अब इसमें नया क्या है बातें हैं गई गुज़री 

रद्दी है कबाड़ा है अख़बार पुराना है ।

 

आते हैं कई ग्राहक मंडी है अमीरों की

कहते हैं मगर इसको बाज़ार पुराना है ।

 

अब कोई दवा इसको आराम नहीं देती

ये शख़्स मुहब्बत का बीमार पुराना है ।

 

इक जंग अजब देखो कोविड ने चला रख्खी 

ये रोग नया लेकिन उपचार पुराना है ।

 

कोई भी सलीक़े से अब रखता नहीं इसको

ये बाप बहुत बूढ़ा लाचार पुराना है ।।

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by Ashok Kumar Raktale on June 13, 2020 at 11:21pm

आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहब सादर, प्रस्तुति पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से धन्यवाद. आपके सुझावों का स्वागत है. किन्तु यहाँ 'कई' की जगह मात्र 'नये' रख देने से बात नहीं बनने वाली है. उसके लिए सम्बंधित मिसरे में 'हर रोज' का भी जिक्र करना पड़ेगा. जो कि संभव नहीं है. इसलिए आपसे सक्षमा मैं यह बदलाव नहीं कर सकूँगा. सादर 

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on June 8, 2020 at 1:11pm

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले साहिब, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पे आपको दाद और बधाई पेश करता हूँ। सभी अशआर बहुत अच्छे लगे। एक शे'र के लिए सुझाव देना चाहूँगा, इस उम्मीद के साथ कि इससे शे'र का भाव नहीं बदल रहा। अगर सुझाव मुनासिब न लगे तो नज़र-अंदाज़ कर दीजियेगा:

आते हैं नये ग्राहक मंडी है अमीरों की

कहते हैं मगर इसको बाज़ार पुराना है 

Comment by Samar kabeer on June 8, 2020 at 11:07am

मेरे कहे को मान देने के लिए आपका धन्यवाद ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 7, 2020 at 10:54pm

सादर नमस्कार आदरणीया डिंपल शर्मा जी. प्रस्तुत गज़ल पर उत्साहवर्धन के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 7, 2020 at 10:53pm

जी ! मैंने एडिट कर लिया है आपकी सलाह अनुसार. हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब. सादर नमन.

Comment by Dimple Sharma on June 6, 2020 at 2:45pm

आदरणीय अशोक रक्ताले जी नमस्ते , अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें।

Comment by Samar kabeer on June 6, 2020 at 11:32am

//इक जंग अजब देखो  कोविड ने चला रख्खी//  

अब मिसरा ठीक है ।

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 6, 2020 at 9:24am

आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, गज़ल पर हुए मेरे प्रयास को सराहने के लिए आपका दिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 6, 2020 at 9:23am

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, हार्दिक आभार आपका. बहुत कम ही  होता है जब मैं गज़ल पर प्रयास करूँ.  यहाँ इस गज़ल को पोस्ट करने का कारण आपसे इस्लाह करवाना ही था, क्योंकि बहुत से शब्द ऐसे इसमें आये हैं जो साधारणतः मेरी रचनाओं में नहीं होते हैं तब वर्तनी की त्रुटियाँ होना ही थीं. आपके कहे अनुसार मैंने परिमार्जन किया है. कोविड वाले मिसरे को यूँ कर लिया है // इक जंग अजब देखो  कोविड ने चला रख्खी // कर लिया है. यह ठीक है तो बताएं मैं परिमार्जन कर लूँ. सादर 

Comment by Samar kabeer on June 5, 2020 at 12:07pm

जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब,यक़ीन जानिए आप जैसे छंद शास्त्री को ग़ज़ल कहते देख बहुत मसर्रत होती है ।

अच्छी ग़ज़ल कही आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'इक जंग अजब देखो कोविड ने कर डाली'

इस मिसरे की बह्र चेक कर लें ।

'ये जिस्म तमन्नाएं इस्रार

पुराना है'

'इस्रार'--"इसरार"

'अब इसमें नया क्या है बातें हैं गई गुजरी'

'गुजरी'--"गुज़री"

 

'ये इश्क मुहब्बत का बीमार पुराना है'

इस मिसरे में उचित लगे तो 'इश्क़' की जगह "शख़्स" कर लें,क्योंकि इश्क़,महब्बत एक ही बात हुई ।

'कोई भी सलीके से अब रखता नहीं इसको'

'सलीके'--"सलीक़े"

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